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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 53
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    चिद॑सि॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द। परि॒चिद॑सि॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द॥५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चित्। अ॒सि॒। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒। प॒रि॒चिदिति॑ परि॒ऽचित्। अ॒सि॒। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥५३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चिदसि तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवा सीद परिचिदसि तया देवतयाङ्गिरस्वद्धरुवा सीद ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चित्। असि। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। सीद। परिचिदिति परिऽचित्। असि। तया। देवतया। अङ्गिरस्वत्। ध्रुवा। सीद॥५३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 53
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    भावार्थ -
    हे राजसने ! (चित् असि ) तू 'चित्' समस्त योग्य सुख साधनों का सञ्चय करनेवाली, शरीर में चित् चेतना के समान शक्ति है। तू (तथा) उस (देवतया) देवता या राजशक्ति या विजयिनी शक्ति से युक्त होकर ( अंगिरस्वत् ) प्राण के समान या अग्नि के समान या विद्वान् पुरुषों से युक्त होकर, ( ध्रुवा) ध्रुव, स्थिर निष्कम्प भाव से अचल होकर ( सीद ) विराज । इसी प्रकार तू ( परिचित् असि ) सब ओर से अपने अपने बल को संग्रह करनेवाली है। तू ( तया देवतया ) उस उत्कृष्ट विजय करनेवाली राजशक्ति से ( अङ्गिरस्वत्) अग्नि के समान या सूर्य के समान ( ध्रुवा ) स्थिर होकर ( सीद ) विराजमान हो । स्त्री के पक्ष में- हे स्त्री तू 'चित्', विद्या को जाननेहारी है तू ( तया देवतया ) उस प्रजा के समान प्रिय देवीरूप होकर देह में प्राण के समान गृह में स्थिर होकर रह ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इष्टके अग्निर्वा देवता । स्वराडनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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