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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 27
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ तं भ॑ज सौश्रव॒सेष्व॑ग्नऽउ॒क्थऽउ॑क्थ॒ऽआभ॑ज श॒स्यमा॑ने। प्रि॒यः सूर्ये॑ प्रि॒योऽअ॒ग्ना भ॑वा॒त्युज्जा॒तेन॑ भि॒नद॒दुज्जनि॑त्वैः॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। तम्। भ॒ज॒। सौ॒श्र॒व॒सेषु॑। अ॒ग्ने॒। उ॒क्थउ॑क्थ॒ इत्यु॒क्थेऽउ॑क्थे। आ। भ॒ज॒। श॒स्यमा॑ने। प्रि॒यः। सूर्ये॑। प्रि॒यः। अ॒ग्ना। भ॒वा॒ति॒। उत्। जा॒तेन॑। भि॒नद॑त्। उत्। जनि॑त्वै॒रिति॒ जनि॑ऽत्वैः ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तम्भज सौश्रवसेष्वग्नऽउक्थौक्थऽआभज शस्यमाने । प्रियः सूर्ये प्रियोऽअग्ना भवात्युज्जातेन भिनददुज्जनित्वैः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। तम्। भज। सौश्रवसेषु। अग्ने। उक्थउक्थ इत्युक्थेऽउक्थे। आ। भज। शस्यमाने। प्रियः। सूर्ये। प्रियः। अग्ना। भवाति। उत्। जातेन। भिनदत्। उत्। जनित्वैरिति जनिऽत्वैः॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 27
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    भावार्थ -
    जो (सूर्य) सूर्य के समान तेजस्वी, राजा के पद पर ( प्रियः ) सबको प्रिय, हितकारी और ( अग्नौ ) अग्नि, शत्रुतापक, अग्रणी सेना नायक के पद पर भी ( प्रियः ) सर्वप्रिय ( भवाति ) हो और ( जातेन ) अपने किये हुए कार्य से और ( जनित्वैः ) आगे होनेवाले कार्यों से भी ( उत् अभिनत् ) शत्रुओं को उखाड़ता और प्रजा के उपकार के कार्यों को उत्पन्न करता है (तम् ) उसको, हे राजन् ! ( सौश्रवसेषु ) उत्तम कीर्ति के पदों और अवसरों पर ( आ भज ) नियुक्त कर और ( उक्थे उक्थे शस्यमाने ) प्रत्येक प्रशंसा योग्य यज्ञादि कार्य के वन करने के अवसर पर भी ( तं आ भज) उसकी शुश्रूषा कर, उसको मान- पद प्राप्त करा ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता विराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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