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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 88
ऋषिः - भिषगृषिः
देवता - वैद्या देवताः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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अ॒न्या वो॑ऽअ॒न्याम॑वत्व॒न्यान्यस्या॒ऽउपा॑वत। ताः सर्वाः॑ संविदा॒नाऽइ॒दं मे॒ प्राव॑ता॒ वचः॑॥८८॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्या। वः॒। अ॒न्याम्। अ॒व॒तु॒। अ॒न्या। अ॒न्यस्याः॑। उप॑। अ॒व॒त॒। ताः। सर्वाः॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽवि॒दा॒नाः। इ॒दम्। मे॒। प्र। अ॒व॒त॒। वचः॑ ॥८८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्या वोऽअन्यामवत्वन्यान्यस्याऽउपावत । ताः सर्वाः सँविदाना इदम्मे प्रावता वचः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अन्या। वः। अन्याम्। अवतु। अन्या। अन्यस्याः। उप। अवत। ताः। सर्वाः। संविदाना इति सम्ऽविदानाः। इदम्। मे। प्र। अवत। वचः॥८८॥
भावार्थ -
हे ओषधियो ! ( व: ) तुममें से ( अन्या ) एक (अन्याम् ) दूसरी की (अवतु) रक्षा करे । और ( अन्या अन्यस्याः ) एक दूसरी के गुणों और प्रभावों को ( उप अवत ) रक्षा को ( ताः सर्वाः ) वे सब ( संविदाना: ) परस्पर सहयोग करती हुई ( मे इदं वचः ) मेरे इस वचन को ( प्रवत ) अच्छी प्रकार पालन करो। इसी प्रकार हे सेना के पुरुषो ! तुम एक दूसरे की रक्षा करो। परस्पर मिलकर मेरी आज्ञा का पालन करो ।
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