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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 62
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - निर्ऋतिर्देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    असु॑न्वन्त॒मय॑जमानमिच्छ स्ते॒नस्ये॒त्यामन्वि॑हि॒ तस्क॑रस्य। अ॒न्यम॒स्मदि॑च्छ॒ सा त॑ऽइ॒त्या नमो॑ देवि निर्ऋते॒ तुभ्य॑मस्तु॥६२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असु॑न्वन्तम्। अय॑जमानम्। इ॒च्छ॒। स्ते॒नस्य॑। इ॒त्याम्। अनु॑। इ॒हि॒। तस्क॑रस्य। अ॒न्यम्। अ॒स्मत्। इ॒च्छ॒। सा। ते॒। इ॒त्या। नमः॑। दे॒वि॒। नि॒र्ऋ॒त॒ इति॑ निःऽऋते। तुभ्य॑म्। अ॒स्तु॒ ॥६२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असुन्वन्तमयजमानमिच्छ स्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य । अन्यमस्मदिच्छ सा तऽइत्या नमो देवि निरृते तुभ्यमस्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असुन्वन्तम्। अयजमानम्। इच्छ। स्तेनस्य। इत्याम्। अनु। इहि। तस्करस्य। अन्यम्। अस्मत्। इच्छ। सा। ते। इत्या। नमः। देवि। निर्ऋत इति निःऽऋते। तुभ्यम्। अस्तु॥६२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 62
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    भावार्थ -
    हे ( निर्ऋते ) दुष्टों को दमन करने वाली दण्डशक्ते ! तू (असुन्वन्तम् ) राजा को कर न देने वाले और ( अयजमानम् ) राजा के आदर न करने वाले को ( इच्छ ) पकड़ । ( स्तेनस्य ) चोर और ( तरक- रस्य ) निन्दनीय कार्यों के करने वाले पापी पुरुष की ( इत्याम् ) चाल का ( अनु इहि ) पीछा कर चोर डाकू आदि रात को धनापहरण करके जहां भी छुपे हों उनके चरण चिन्हों से उनकी चाल पता लगाकर उनकी खोज कर (अस्मत् अन्यम् ) हम से भिन्न, हमारे शत्रु को ( इच्छ ) पकड़ । ( ते सा ) तेरी वही ( इत्या ) चलने योग्य चाल है। हे (निर्ऋते देवि ) व्यवहार कुशले ! निर्ऋते ! सर्वत्र व्यापक दमन शक्ते ! ( तुभ्यम् नमः अस्तु) तुझे ही सब दुष्टों को नमाने वाला बल प्राप्त हो । इस मन्त्र में - 'मा इच्छ' इस प्रकार की महर्षि दयानन्दकृत योजना विचारास्पद है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - निर्ऋतिर्देवता । निचृत् त्रिष्टुप् धैवतः ॥

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