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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 93
ऋषिः - वरुण ऋषिः
देवता - ओषधयो देवताः
छन्दः - विराडार्ष्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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याऽओष॑धीः॒ सोम॑राज्ञी॒र्विष्ठि॑ताः पृथि॒वीमनु॑। बृह॒स्पति॑प्रसूताऽअ॒स्यै संद॑त्त वी॒र्य्यम्॥९३॥
स्वर सहित पद पाठयाः। ओष॑धीः। सोम॑राज्ञी॒रिति॒ सोम॑ऽराज्ञीः। विष्ठि॑ताः। विस्थि॑ता॒ इति॑ विऽस्थि॑ताः। पृ॒थि॒वीम्। अनु॑। बृह॒स्पति॑प्रसूता॒ इति॑ बृह॒स्पति॑ऽप्रसूताः। अ॒स्यै। सम्। द॒त्त॒। वी॒र्य्य᳖म् ॥९३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
याऽओषधीः सोमराज्ञीर्विष्ठिताः पृथिवीमनु । बृहस्पतिप्रसूता अस्यै सन्दत्त वीर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
याः। ओषधीः। सोमराज्ञीरिति सोमऽराज्ञीः। विष्ठिताः। विस्थिता इति विऽस्थिताः। पृथिवीम्। अनु। बृहस्पतिप्रसूता इति बृहस्पतिऽप्रसूताः। अस्यै। सम्। दत्त। वीर्य्यम्॥९३॥
भावार्थ -
( सोमराज्ञी: ) सोम वल्ली के गुणों से प्रकाशित होनेवाली ( याः ओषधीः ) जो ओषधियां ( पृथिवीम् अनुविष्ठिताः ) पृथिवी पर एक दूसरे के अनुकूल गुण होकर स्थित हैं वे ( बृहस्पति - प्रसूता: ) वेदविद्या के पालक विद्वान् द्वारा प्रयोग की गई ( अस्यै) इस विशेष ओषधी को वीर्यम् संदत्त ) विशेष बल प्रदान करें ।
वीर प्रजाओं के पक्ष में- ( सोमराज्ञीः ओषधीः ) सोम को राजा स्वीकार करनेवाली प्रजाएं जो पृथिवी पर परस्पर अनुकूल होकर विराजती हैं, वे बृहत्, महान् पति द्वारा प्रेरित होकर ( अस्यै) इस विशेष सेना को ( वीर्यम् सं दत्त ) बल प्रदान करें । उसको पुष्ट करें ।
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