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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षयनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अग्ने॑ऽभ्यावर्त्तिन्न॒भि मा॒ निव॑र्त्त॒स्वायु॑षा॒ वर्च॑सा प्र॒जया॒ धने॑न। स॒न्या मे॒धया॑ र॒य्या पोषे॑ण॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। अ॒भ्या॒व॒र्त्ति॒न्नित्य॑भिऽआवर्त्तिन्। अ॒भि। मा॒। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। आयु॑षा। वर्च॑सा। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। धने॑न। स॒न्या। मे॒धया॑। र॒य्या। पोषे॑ण ॥७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेभ्यावर्तिन्नभि मा नि वर्तस्वायुषा वर्चसा प्रजया धनेन । सन्या मेधया रय्या पोषेण ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। अभ्यावर्त्तिन्नित्यभिऽआवर्त्तिन्। अभि। मा। नि। वर्त्तस्व। आयुषा। वर्चसा। प्रजयेति प्रऽजया। धनेन। सन्या। मेधया। रय्या। पोषेण॥७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 7
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    भावार्थ -
    हे (अभ्यावर्तिन् अग्ने ) मेरे सम्मुख आनेवाले या घर में पुन: आनेवाले गृहपते ! एवं शत्रुओं को बार २ विजय करके पुनः लौटने वाले विजयशील राजन् ! तू ( मा अभि ) मेरे प्रति ( प्रायुषा ) दीर्घ जीवन, ( वर्चसा ) तेज, ( प्रजया ) प्रजा, ( धनेन ) धन, (सन्या ) धन लाभ, ( मेधया ) मेधा बुद्धि, ( रय्या ) ऐश्वर्य और ( पोषेण ) पुष्टि इन सब के साथ ( निवर्त्तस्व ) प्राप्त हो ॥ शत० ६ । ७ । ३ । ६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निदेवता । भुरिगानुष्टुप् । गान्धारः ॥

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