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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 54
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षीनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    लो॒कं पृ॑ण छि॒द्रं पृ॒णाथो॑ सीद ध्रु॒वा त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नी त्वा॒ बृह॒स्पति॑र॒स्मिन् योना॑वसीषदन्॥५४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    लो॒कम्। पृ॒ण॒। छि॒द्रम्। पृ॒ण॒। अथो॒ऽइत्यथो॑। सी॒द॒। ध्रु॒वा। त्वम्। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। त्वा॒। बृह॒स्पतिः॑। अ॒स्मिन्। योनौ॑। अ॒सी॒ष॒द॒न्। अ॒सी॒ष॒द॒न्नित्य॑सीसदन् ॥५४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    लोकम्पृण ञ्छिद्रं पृणाथो सीद धु्रवा त्वम् । इन्द्राग्नी त्वा बृहस्पतिरस्मिन्योनावसीषदन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    लोकम्। पृण। छिद्रम्। पृण। अथोऽइत्यथो। सीद। ध्रुवा। त्वम्। इन्द्राग्नीऽइतीन्द्राग्नी। त्वा। बृहस्पतिः। अस्मिन्। योनौ। असीषदन्। असीषदन्नित्यसीसदन्॥५४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 54
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    भावार्थ -
    हे राजसभे ! अथवा हे राजन् ! तू ( लोकं पृण ) समस्त लोक का पालन कर । ( छिद्रं पृण ) जो कुछ ' छिद्र' अर्थात् न्यूनता हो उसको पूर्ण कर । ( अथो) और ( त्वम् ) तू (ध्रुवा ) पतिगृह में स्त्री के समान स्थिर होकर (सीद ) विराजमान हो । ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि, सेनापति और राजा ( बृहस्पतिः ) वेदवाणी का पालक ( त्वा ) तुझको ( अस्मिन् योनौ ) इस आश्रयस्थान में ( असीषदन् ) प्राप्त कराते हैं, स्थापित करते हैं । कन्या के पक्ष में - ( इन्द्र-अग्नि ) माता पिता और ( बृहस्पतिः ) आचार्य तुझको इस ( योनौ ) निवासगृह में स्थापित करते हैं । तू स्थिर रहकर लोक का पालन कर और छिद्र और त्रुटि को पूर्ण कर ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता विराडनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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