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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 55
    ऋषिः - प्रियमेधा ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - विराडार्षीनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    ताऽअ॑स्य॒ सूद॑दोहसः॒ सोम॑ꣳ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। जन्म॑न् दे॒वानां॒ विश॑स्त्रि॒ष्वा रो॑च॒ने दि॒वः॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः। अ॒स्य॒। सूद॑दोहस॒ इति॒ सूद॑ऽदोहसः। सोम॑म्। श्री॒ण॒न्ति॒। पृश्न॑यः। जन्म॑न्। दे॒वाना॑म्। विशः॑। त्रि॒षु। आ। रो॒च॒ने। दि॒वः ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताऽअस्य सूददोहसः सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वारोचने दिवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ताः। अस्य। सूददोहस इति सूदऽदोहसः। सोमम्। श्रीणन्ति। पृश्नयः। जन्मन्। देवानाम्। विशः। त्रिषु। आ। रोचने। दिवः॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 55
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    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( ताः ) वे ( सूददोहसः ) जलों को पूर्ण करने वाले ( पृक्षय: ) आदित्य के रश्मिगण (अस्य) इसके लिये ( सोमं श्रीण- न्ति ) सोम, अन्न को परिषक करती हैं। और (देवानां जन्मन्) देवों, ऋतुओं के उत्पादक पूर्ण संवत्सर में (दिवः ) सूर्य के ( त्रिषु ) तीन प्रकार के ( आरोचन् ) दीप्ति युक्त सवनों अर्थात् ग्रीष्म, वर्षा और शरत में ( विशः ) व्यापक रश्मियें होती हैं । उसी प्रकार ( सूददोहसः ) बलों को बढ़ाने वाली ( पृश्नयः विशः ) नानाविध प्रजाएं ( दिवः ) तेजस्वी राजा के (त्रिषु आरोचने) तीनों तेजों से युक्त रूपों में ( देवानां जन्मनि ) विद्वानों के उत्पन्न करने वाले राष्ट्र में ( अस्य ) इस राजा के लिये ( सोमं श्रीणन्ति ) (अस्य) समृद्ध राष्ट्र को परिपक्क करती हैं । स्त्रियों के पक्ष में- ( देवानाम् ) विद्वान् पतियों के ( ताः ) वे (पृश्र्नयः) स्पर्श योग्य कोमलाङ्गी ( विशः ) गमन योग्य स्त्रियां (सूददोहसः) उत्तम पाचन और दोहन करने में कुशल होकर ( दिवः ) दिव्य ( आरोचने) रुचिकर व्यवहार में (त्रिषु ) तीनों कालों में ( जन्मनि ) इस जन्म में या द्वितीय जन्म विद्यादि द्वारा गृहस्थ धारण करके( अस्य सोमं श्रीणन्ति ) इस ब्रह्मचर्य का गृहस्थ-आश्रम के भी परम सौभाग्यनय फल वीर्य यापुत्रादि को परिपक करती हैं। अथवा—(ताः ) वे स्त्रियें ( सूददोहसः ) प्रस्नवशील दुग्धादि को प्रदान करने वाली ( पृश्र्नयः ) गौवें जिस प्रकार ( समं श्रीरान्ति) दुग्धरूप सोम का परिपक करती हैं और प्रदान करती है उसी प्रकार ( सूददोहसः ) वीर्य को पूर्ण करने वाली ( पृश्नयः ) स्पर्श योग्य, कोमलाङ्गी स्त्रिवें भी ( सोमं श्रीणन्ति ) परम रसस्वरूप वीर्य को परिपक्क करती हैं । (दिवः ) सूर्य के ( त्रियु आरोचने) जिस प्रकार तीनों प्रकार के सवनों में ( देवानां जन्मनि ) देव- रश्मियों के उद्भव होजाने पर ( विश: ) प्रजाएं जिस प्रकार ( सोमं श्र ) धन्न को प्राप्त करती हैं । उसी प्रकार ( विशः ) पतियों के साथ संवेश- अर्थात् शयन करनेहारी पत्नियां भी (दिवः) क्रीड़ाशील पति के ( त्रिपुरोचनेपु ) वाचिक, मानस शारीरिक तीनों प्रकार के रुचिकर, प्रोतिकर व्यवहारों में ( देवानां ) सात्विक विकारों के ( जन्मन् ) उदय होजाने पर ( सोमं आ) परिपक्क वीर्य को प्राप्त करती हैं अर्थात् वीर्य धारण करती हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - इन्द्रपुत्रः प्रियमेधा ऋषिः । आपो देवताः । विराड् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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