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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 55
    ऋषिः - प्रियमेधा ऋषिः देवता - आपो देवताः छन्दः - विराडार्षीनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    59

    ताऽअ॑स्य॒ सूद॑दोहसः॒ सोम॑ꣳ श्रीणन्ति॒ पृश्न॑यः। जन्म॑न् दे॒वानां॒ विश॑स्त्रि॒ष्वा रो॑च॒ने दि॒वः॥५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताः। अ॒स्य॒। सूद॑दोहस॒ इति॒ सूद॑ऽदोहसः। सोम॑म्। श्री॒ण॒न्ति॒। पृश्न॑यः। जन्म॑न्। दे॒वाना॑म्। विशः॑। त्रि॒षु। आ। रो॒च॒ने। दि॒वः ॥५५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताऽअस्य सूददोहसः सोमँ श्रीणन्ति पृश्नयः । जन्मन्देवानाँविशस्त्रिष्वारोचने दिवः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ताः। अस्य। सूददोहस इति सूदऽदोहसः। सोमम्। श्रीणन्ति। पृश्नयः। जन्मन्। देवानाम्। विशः। त्रिषु। आ। रोचने। दिवः॥५५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 55
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    या देवानां सूददोहसः पृश्नयः पत्न्यो जन्मन् द्वितीये विद्याजन्मनि विदुष्यो भूत्वा दिवोऽस्य सोमं श्रीणन्ति, ता आरोचने त्रिषु सुखदा भवन्ति, विशश्च प्राप्नुवन्ति॥५५॥

    पदार्थः

    (ताः) ब्रह्मचारिणीः (अस्य) गृहाश्रमस्य (सूददोहसः) सूदाः सुष्ठु पाचका दोहसो गवादिदोग्धारश्च यासां ताः (सोमम्) सोमरसान्वितं पाकम् (श्रीणन्ति) परिपक्वं कुर्वन्ति (पृश्नयः) सुस्पर्शास्तन्वङ्ग्यः, अत्र स्पृशधातोर्निः प्रत्ययः सलोपश्च (जन्मन्) जन्मनि प्रादुर्भावे (देवानाम्) दिव्यानां विदुषां पतीनाम् (विशः) प्रजाः (त्रिषु) भूतभविष्यद्वर्त्तमानेषु कालावयवेषु (आ) (रोचने) रुचिकरे व्यवहारे (दिवः) दिवस्य। [अयं मन्त्रः शत॰८.७.३.२१ व्याख्यातः]॥५५॥

    भावार्थः

    यदा सुशिक्षितानां विदुषां यूनां स्वसदृशा रूपगुणसम्पन्नाः स्त्रियो भवेयुस्तदा गृहाश्रमे सर्वदा सुखं सुसन्तानाश्च जायेरन्। नह्येवं विना वर्त्तमानेऽभ्युदयो मरणानन्तरं निःश्रेयसं च प्राप्तुं शक्यम्॥५५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी उसी विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो (देवानाम्) दिव्य विद्वान् पतियों की (सूददोहसः) सुन्दर रसोइया और गौ आदि के दुहने वाले सेवकों वाली (पृश्नयः) कोमल शरीर सूक्ष्म अङ्गयुक्त स्त्री, दूसरे (जन्मन्) विद्यारूप जन्म में विदुषी होके (दिवः) दिव्य (अस्य) इस गृहाश्रम के (सोमम्) उत्तम ओषधियों के रस से युक्त भोजन (श्रीणन्ति) पकाती हैं, (ताः) वे ब्रह्मचारिणी (आरोचने) अच्छे रुचिकारक व्यवहार में (त्रिषु) तीनों अर्थात् गत, आगामी और वर्त्तमान कालविभागों में सुख देने वाली होती तथा (विशः) उत्तम सन्तानों को भी प्राप्त होती हैं॥५५॥

    भावार्थ

    जब अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुए युवा विद्वानों की अपने सदृश रूप और गुण से युक्त स्त्री होवें, तो गृहाश्रम में सर्वदा सुख और अच्छे सन्तान उत्पन्न होवें। इस प्रकार किये विना संसार का सुख और शरीर छूटने के पश्चात् मोक्ष कभी प्राप्त नहीं हो सकता॥५५॥

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    विषय

    सूददोहसः - पृश्नयः

    पदार्थ

    गत मन्त्र में वर्णन किये जा रहे पत्नी के कर्त्तव्यों के विषय में ही कहते हैं कि ( ताः ) = वे ( अस्य ) = इस घर की—जिस घर में उन्होंने स्थिर होकर रहना है और जिस घर का उन्होंने निर्माण करना है ( सूददोहसः ) = पाचिका व दोहन करनेवाली हैं, अर्थात् भोजन बनाने व गोदोहन के कार्य को अपने पास ही रखेंगी। भोजन पर सब घरवालों का स्वास्थ्य निर्भर है और गौ को जितने प्रेम से पाला जाएगा उतना ही वह अधिक व उत्तम दूध देगी। २. ये गृहिणियाँ ( सोमं श्रीणन्ति ) = सौम्य भोजन का ही परिपाक करती हैं। आग्नेय भोजनों से क्रोधादि में वृद्धि होती है, मनोवृत्ति राजस् बनती है, अतः समझदार पत्नी सौम्य भोजन ही पकाती है। ३. पाचन व दोहन की क्रियाओं को करनेवाली गृहिणियाँ इन्हीं कार्यों में ही नहीं उलझी रह जातीं, अपितु ( पृश्नयः ) = [ संस्पृष्टो भासा—नि० २।१४ ] ये ज्ञान की ज्योति से युक्त होती हैं। घर के कार्यों से निपटते ही ये स्वाध्याय में प्रवृत्त होती हैं और इस प्रकार निरन्तर अपने ज्ञान को बढ़ानेवाली होती हैं। ४. ( देवानां जन्मन् ) = दिव्य गुणोंवाले सन्तानों को जन्म देने के निमित्त ये ( त्रिषु विशः ) = तीनों में प्रवेश करनेवाली होती हैं। शरीर, मन व बुद्धि तीनों का ही ये विकास करती हैं। नीरोगता के लिए शरीर का विकास, निर्मलता के लिए मन का विकास और बुद्धि की तीव्रता के लिए मस्तिष्क का विकास आवश्यक है। त्रिविध उन्नति को प्राप्त माता ही ‘त्रिविक्रम’ सन्तान को जन्म दे पाएगी। ५. इस प्रकार त्रिविध उन्नति में लगी हुई माता ( दिवः आरोचने ) = मस्तिष्करूप द्युलोक के आरोचन में प्रवृत्त होती है। यह ज्ञान-विज्ञान से अपने मस्तिष्क को दीप्त करती है। इसके मस्तिष्करूप द्युलोक में ज्ञान का सूर्य चमकता है तो विज्ञानरूप नक्षत्र भी इसके आरोचन [ adornment ] का कारण बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — पत्नी ने घर के कार्यों के साथ ज्ञान की ज्योति को प्रज्वलित करने का प्रयत्न करना है। पत्नी पकाये, दूध दुहे और पढे़। दिव्य सन्तानों के जन्म देने का यही उपाय है कि शरीर, मन व बुद्धि के विकास की ओर ध्यान दिया जाए। मस्तिष्करूप द्युलोक को आरोचित करना पत्नी का मुख्य उद्देश्य हो। इसी उद्देश्य से वह सदा सौम्य भोजनों का परिपाक करे। ज्ञान-प्राप्ति को मुख्यता देनेवाली यह सचमुच ‘प्रियमेधाः’ है।

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    विषय

    सूर्य की रश्मियों से प्रजाओं और पक्षान्तर में स्त्रियों की तुलना और उनके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( ताः ) वे ( सूददोहसः ) जलों को पूर्ण करने वाले ( पृक्षय: ) आदित्य के रश्मिगण (अस्य) इसके लिये ( सोमं श्रीण- न्ति ) सोम, अन्न को परिषक करती हैं। और (देवानां जन्मन्) देवों, ऋतुओं के उत्पादक पूर्ण संवत्सर में (दिवः ) सूर्य के ( त्रिषु ) तीन प्रकार के ( आरोचन् ) दीप्ति युक्त सवनों अर्थात् ग्रीष्म, वर्षा और शरत में ( विशः ) व्यापक रश्मियें होती हैं । उसी प्रकार ( सूददोहसः ) बलों को बढ़ाने वाली ( पृश्नयः विशः ) नानाविध प्रजाएं ( दिवः ) तेजस्वी राजा के (त्रिषु आरोचने) तीनों तेजों से युक्त रूपों में ( देवानां जन्मनि ) विद्वानों के उत्पन्न करने वाले राष्ट्र में ( अस्य ) इस राजा के लिये ( सोमं श्रीणन्ति ) (अस्य) समृद्ध राष्ट्र को परिपक्क करती हैं । स्त्रियों के पक्ष में- ( देवानाम् ) विद्वान् पतियों के ( ताः ) वे (पृश्र्नयः) स्पर्श योग्य कोमलाङ्गी ( विशः ) गमन योग्य स्त्रियां (सूददोहसः) उत्तम पाचन और दोहन करने में कुशल होकर ( दिवः ) दिव्य ( आरोचने) रुचिकर व्यवहार में (त्रिषु ) तीनों कालों में ( जन्मनि ) इस जन्म में या द्वितीय जन्म विद्यादि द्वारा गृहस्थ धारण करके( अस्य सोमं श्रीणन्ति ) इस ब्रह्मचर्य का गृहस्थ-आश्रम के भी परम सौभाग्यनय फल वीर्य यापुत्रादि को परिपक करती हैं। अथवा—(ताः ) वे स्त्रियें ( सूददोहसः ) प्रस्नवशील दुग्धादि को प्रदान करने वाली ( पृश्र्नयः ) गौवें जिस प्रकार ( समं श्रीरान्ति) दुग्धरूप सोम का परिपक करती हैं और प्रदान करती है उसी प्रकार ( सूददोहसः ) वीर्य को पूर्ण करने वाली ( पृश्नयः ) स्पर्श योग्य, कोमलाङ्गी स्त्रिवें भी ( सोमं श्रीणन्ति ) परम रसस्वरूप वीर्य को परिपक्क करती हैं । (दिवः ) सूर्य के ( त्रियु आरोचने) जिस प्रकार तीनों प्रकार के सवनों में ( देवानां जन्मनि ) देव- रश्मियों के उद्भव होजाने पर ( विश: ) प्रजाएं जिस प्रकार ( सोमं श्र ) धन्न को प्राप्त करती हैं । उसी प्रकार ( विशः ) पतियों के साथ संवेश- अर्थात् शयन करनेहारी पत्नियां भी (दिवः) क्रीड़ाशील पति के ( त्रिपुरोचनेपु ) वाचिक, मानस शारीरिक तीनों प्रकार के रुचिकर, प्रोतिकर व्यवहारों में ( देवानां ) सात्विक विकारों के ( जन्मन् ) उदय होजाने पर ( सोमं आ) परिपक्क वीर्य को प्राप्त करती हैं अर्थात् वीर्य धारण करती हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रपुत्रः प्रियमेधा ऋषिः । आपो देवताः । विराड् अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जर उत्तम शिक्षणयुक्त तरुण विद्वानांना त्यांच्यासारख्याच रूपगुणांनी युक्त स्त्रिया मिळतील तर त्यांचा गृहस्थाश्रम सर्व दृष्टीने सुखी होईल व उत्तम संतानांची प्राप्ती होईल. याप्रमाणे न झाल्यास सांसारिक सुखही मिळू शकत नाही व शरीर त्यागानंतर मोक्षही प्राप्त होऊ शकत नाही.

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    विषय

    पुन्हा पुढील मंत्रात त्याचविषयी विधान केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (त्याच मुली आदर्श गृहिणी होतात का?) ज्या (देवानाम्‌) दिव्य विद्वान पतीची सेवा करणाऱ्या आणि (सूद दोहस:) श्रेष्ठ पाचक वा आचारी प्रमाणे सुंदर सैंपाक करतात आणि ज्या गौ आदीचे दोहम करण्यात निपुण आहेत. (पुश्‍चय:) कोमलांगी व स्वस्थ अवयव असणाऱ्या त्या मुली (दिव:) दिव्य (अस्य) या गृहाश्रमात असताना (सोमम्‌) उत्तम औषधींच्या रसाच्या साहाय्याने तयार केलेले भोजन (श्रीणन्ति) तयार करू शकतात. (ता:) त्या ब्रह्मचारिणी कन्या (आरोचने) सुंदर आचरण, व्यवहार आणि कर्म करण्यात (त्रिषु) तीन्ही काळात म्हणजे भूत, वर्तमान आणि भविष्य काळात सुखकारिणी असतात. त्याच कन्या (विश:) उत्तम संततीस जन्म देतात ॥55॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जेव्हा उत्तम विद्या-ज्ञान प्राप्त केलेल्या विद्वान युवकांना आपल्याशी अनुकूल वा समान असलेली रुपगुणवती पत्नी मिळते, तेव्हांच गृहाश्रमात सर्वदा सुख नांदते आणि संतानही श्रेष्ठ जन्मते. असे झाल्याशिवाय माणसाला या संसारात सांसारिक सुख आणि शरीरत्यागानंतर मोक्ष कदापि प्राप्त होत नाही ॥55॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The wives of learned persons, with beautiful bodies and tender limbs, having good cooks and servants to milch the cows, being reborn with knowledge, cook well prepared diet, in this beautiful domestic life. They observing the laws of Brahmcharya, give happiness to their husbands in past, present and future, in all pleasant domestic tasks and give birth to good offspring.

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    Meaning

    Blooming women of beauty and grace, wives of noble people, in this wonderful paradisal phase of their cultured home life, milk the dappled cows and prepare and season delicious foods with the dressing of soma. They create sweetness and joy in all the three phases of time, past, present and future, and are blest with noble and promising children.

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    Translation

    The multicoloured rays, coming from the three luminous regions of space, along with water and nutrients, enrich the vital sap every year for people. (1)

    Notes

    Sudadohasah, आपो वै सूदो, waters are verily sida and food is doha. य़ज्ञो वै विश: visah are v zip the sacrifice. (Satapatha, VIII. 7. 3. 21); also, प्रजा: people. सूद = सु + उद, good water; also milk. Sidadohasah will mean streaming with milk. This verse 15 also called सूददोहस | А Srinanti, पक्वं कुर्वंति, make ripe; enrich; cook. Janman deyanam, संवत्सरो वै देवानां जन्म, the year is verily the birth of gods (Satupatha, VIIL7. 3. 21); every year.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    তথাপি সেই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে (দেবানাম্) দিব্য বিদ্বান্ পতিদিগের (সূদদোহসঃ) সুন্দর পাচিকা এবং গাভি ইত্যাদি দোহনকারী সেবিকা (পৃশ্নয়ঃ) কোমল শরীর সূক্ষ্ম অঙ্গযুক্ত নারী দ্বিতীয় (জন্মন্) বিদ্যারূপ জন্মে বিদূষী হইয়া (দিবঃ) দিব্য (অস্য) এই গৃহাশ্রমে (সোমম্) উত্তম ওষধির রস দ্বারা যুক্ত ভোজন (শ্রীণন্তি) রন্ধন করে (তাঃ) এই সব ব্রহ্মচারিণী (আরোচনে) ভাল রুচিকারক ব্যবহারে (ত্রিষু) তিন অর্থাৎ ভূত, ভবিষ্যৎ, বর্ত্তমান কালবিভাগে সুখদায়িকা হইয়া থাকে তথা (বিশঃ) উত্তম সন্তানকেও প্রাপ্ত হইয়া থাকে ॥ ৫৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যখন ভাল শিক্ষা প্রাপ্ত যুবা বিদ্বান্দিগের নিজ সদৃশ রূপও গুণযুক্ত নারী হইবে তখন গৃহাশ্রমে সর্বদা সুখ এবং ভাল সন্তান উৎপন্ন হইবে । এই ভাবে না করিলে সংসারের সুখ এবং শরীর ত্যাগের পশ্চাৎ মোক্ষ কখনও প্রাপ্ত হইতে পারে না ॥ ৫৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তাऽঅ॑স্য॒ সূদ॑দোহসঃ॒ সোম॑ꣳ শ্রীণন্তি॒ পৃশ্ন॑য়ঃ ।
    জন্ম॑ন্ দে॒বানাং॒ বিশ॑স্ত্রি॒ষ্বা রো॑চ॒নে দি॒বঃ ॥ ৫৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তা অস্যেত্যস্য প্রিয়মেধা ঋষিঃ । আপো দেবতাঃ । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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