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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 52
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    अ॒यं ते॒ योनि॑र्ऋ॒त्वियो॒ यतो॑ जा॒तोऽअरो॑चथाः। तं जा॒नन्न॑ग्न॒ऽआ रो॒हाथा॑ नो वर्धया र॒यिम्॥५२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। ते॒। योनिः॑। ऋ॒त्वियः॑। यतः॑। जा॒तः। अरो॑चथाः। तम्। जा॒नन्। अ॒ग्ने॒। आ। रो॒ह॒। अथ॑। नः॒। व॒र्ध॒य॒। र॒यिम् ॥५२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयन्ते योनिरृत्वियो यतो जातोऽअरोचथाः । तञ्जानन्नग्नऽआ रोहाथा नो वर्धया रयिम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। ते। योनिः। ऋत्वियः। यतः। जातः। अरोचथाः। तम्। जानन्। अग्ने। आ। रोह। अथ। नः। वर्धय। रयिम्॥५२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 52
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ जन्यजनकानां कर्त्तव्यं कर्माह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने! त्वं यस्ते तव ऋत्वियोऽयं योनिरस्ति, यतो जातस्त्वमरोचथाः। तं जानँस्त्वमारोहाथ नो रयिं वर्धय॥५२॥

    पदार्थः

    (अयम्) (ते) तव (योनिः) दुःखवियोजकः सुखसंयोजको व्यवहारः (ऋत्वियः) ऋतुसमयोऽस्य प्राप्तः, अत्र छन्दसि घस् [अष्टा॰५.१.१०६] इति घस् प्रत्ययः (यतः) यस्मात् (जातः) प्रादुर्भूतः सन् (अरोचथाः) प्रदीप्येथाः (तम्) (जानन्) (अग्ने) अग्निरिव स्वच्छात्मन् (आ) (रोह) आरूढो भव (अथ) अनन्तरम्, अत्र निपातस्य च [अष्टा॰६.३.१३६] इति संहितायां दीर्घः (नः) अस्मभ्यम् (वर्धय) अत्र अन्येषामपि॰ [अष्टा॰६३.१३७] इति संहितायां दीर्घत्वम् (रयिम्) प्रशंस्तां श्रियम्। [अयं मन्त्रः शत॰७.१.१.२८ व्याख्यातः]॥५२॥

    भावार्थः

    हे मातापित्राचार्य्याः! यूयं पुत्रान् पुत्रीश्च धर्म्येण ब्रह्मचर्य्येण सेवितेन सद्विद्या जनयित्वोपदिशत। हे सन्तानाः! यूयं सद्विद्यया सदाचारेणास्मान् सुसेवया धनेन च सततं सुखयतेति॥५२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब माता-पिता और पुत्रादिकों को पस्पर क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान शुद्ध अन्तःकरण वाले विद्वन् पुरुष! जो (ते) आपका (ऋत्वियः) ऋतुकाल में प्राप्त हुआ (अयम्) यह प्रत्यक्ष (योनिः) दुःखों का नाशक और सुखदायक व्यवहार है, (यतः) जिससे (जातः) उत्पन्न हुए आप (अरोचथाः) प्रकाशित होवें, (तम्) उसको (जानन्) जानते हुए आप (आरोह) शुभगुणों पर आरूढ़ हूजिये, (अथ) इस के पश्चात् (नः) हम लोगों के लिये (रयिम्) प्रशंसित लक्ष्मी को (वर्धय) बढ़ाइये॥५२॥

    भावार्थ

    हे माता-पिता और आचार्य्य! तुम लोग पुत्र और कन्याओं को धर्मानुकूल सेवन किये ब्रह्मचर्य से श्रेष्ठविद्या को प्रसिद्ध कर उपदेश करो। हे सन्तानो! तुम लोग सत्यविद्या और सदाचार के साथ हम को अच्छी सेवा और धन से निरन्तर सुखयुक्त करो॥५२॥

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    विषय

    प्रचारक

    पदार्थ

    १. ( अयम् ) = गत मन्त्र के अनुसार त्रिविध उन्नति करनेवाला ( ते योनिः ) = तेरा उत्पत्ति-स्थान व घर बनता है। इसके जीवन में प्रभु के प्रकाश का उदय होता है। २. ( ऋत्वियः ) = यह ऋतु में होनेवाला होता है, अर्थात् प्रत्येक कार्य को अपने समय पर करता है। अथवा ऋतु के अनुकूल कार्यों को करनेवाला होता है। ३. हे प्रभो! यह ‘विश्वामित्र’ वह है ( यतः ) = जिससे ( जातः ) = प्रादूर्भूत हुए-हुए आप ( अरोचथाः ) = चमकते हो। आपका यह बड़ी सुन्दरता से प्रतिपादन करता है और वास्तव में तो इसका जीवन ही आपका प्रकाश करता है। ४. हे ( अग्ने ) = नेतृत्व करनेवाले विद्वन्! ( तम् ) = उस प्रभु को ( जानन् ) = जानते हुए आप ( आरोह ) = उन्नति-पथ पर आरूढ़ होओ। प्रभु का ज्ञान हमारे जीवनों को निश्चय से उन्नत करता है। ५. हे विद्वन्! स्वयं उन्नत होकर ( अथ ) = अब ( नः ) = हमारी ( रयिम् ) = ज्ञान-सम्पत्ति को ( वर्धय ) = बढ़ाइए।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारा हृदय प्रभु के प्रकाशवाला हो। प्रभु का ज्ञान हमारे जीवनों को उन्नत करे। स्वयं उन्नत होकर हम औरों की ज्ञान-सम्पत्ति को भी बढ़ाएँ।

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    विषय

    ऐश्वर्य वृद्धि का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे अग्ने ! ( ते ) तेरा ( अयम् ) यह ( योनिः ) मूल आश्रय स्थान, ( ऋत्वियः ) ऋतुओं, राजकर्ताओं और सदस्यों में आश्रित है । ( यतः ) जहां से ( जातः ) तू सामर्थ्यवान् होकर ( अरोचथाः प्रकाशमान होता है । हे ( अग्ने ) अग्ने ! राजन् ! (तम् ) उस अपने मूलकारण को ( जानन् ) भली प्रकार जानता हुआ ही तू ( अरोहथा : ) ऊंचे पद सिंहासन पर आरूढ होता है । तू ( नः ) हमारे ( रयिम् ) ऐश्वर्य को ( वर्धय ) बढ़ा । ऋतवो वै सोमस्य राज्ञो राजभ्रातरो यथा मनुष्यस्य । वै० १ । १ । १३ ॥ ऋतवो वै विश्वेदेवाः । शत० ७ । १ ।१ । ४२ ॥ ऋतवः उपसदः शत० १० । २ । ५ । ७ ॥ ऋतव एते यदृतव्याः । श० ९ । ७ । सदस्या ऋतवोऽभवन् । तै० ३ । १२ । ९ । ४ ॥ शत० । २ । ३ । ४ । १३ ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माता-पिता व आचार्य ! तुम्ही पुत्र व कन्या यांना धर्माने प्राप्त केलेल्या (ब्रह्मचर्यपूर्वक) श्रेष्ठ विद्येचा उपदेश करा. हे संतानांनो ! तुम्ही सत्य विद्या व सदाचाराने वागून आमची (माता व पिता) सेवा करा आणि धन देऊन सदैव सुखी करा.

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    विषय

    माता,पिता, पुत्र आदींनी एकमेकाशी कसे वागावे वा काय करावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) अग्निवत्‌ शुद्ध अंत:करण असलेले विद्वान, (ते) आपला (ऋत्विघ:) ऋतुकाळी (योग्यसमयी) केलेला (अयम्‌) हा प्रत्यक्ष (योनि:) दु:खनाशक आणि सुखकारक व्यवहार आहे (योग्यवेळी केलेले योग्य कार्य आहे) (यत:) यापासून (जात:) उत्पन्न झालेले (प्रसिद्ध झालेले) आपण अरोचचा) अशाच प्रकारे सुशोभित होत रहा. (तम्‌) हे (जानन्‌) जाणून घेऊन आपण (आरोह) शुभगुणांवर आरुढ व्हा (अधिक यशस्वी व्हा) (अथ) आणि यानंतर (न:) आम्हा गृहस्थजनांसाठी (रयिम्‌) प्रशंसनीय धनसंपत्तीची (वर्धय) वृद्धी करा ॥52॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे माता, पिता आणि आचार्य, तुम्ही आपल्या पुत्र-पुत्रींना धर्मानुकूल आचरण करणे आणि ब्रह्मचर्याद्वारे श्रेष्ठ विद्याध्ययन करण्यासाठी उपदेश करा. हे मुलामुलीनों, तुम्ही देखील सत्यविद्या आणि सदाचाराचे पालन करून आमची उचित सेवा करा आणि धनाद्वारे आम्हांस नित्य सुखी ठेवा ॥52॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O fire-like pure soul this is thine ordered birth, the giver of happiness and remover of misery, whence sprung to life, thou shinest forth. Knowing this do noble deeds, and cause our riches increase.

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    Meaning

    Agni, man of pure soul and brilliant character like light and fire, dear son, this is your place/home of birth where, born at the right auspicious time, you shine by your life and conduct. Know this, rise high and help us advance in wealth, prosperity, honour and happiness.

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    Translation

    O fire divine, this is the place of your seasonal birth. Born here, you shine ail over. Knowing that, rise high and make our riches grow. (1)

    Notes

    Same as Yaju. III 14.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ জন্যজনকানাং কর্ত্তব্যং কর্মাহ ॥
    এখন মাতা-পিতা এবং পুত্রাদিকে পরস্পর কী করা উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) অগ্নি সমান শুদ্ধ অন্তঃকরণ যুক্ত বিদ্বান্ পুরুষ ! যে (তে) আপনার (ঋত্বিয়) ঋতুকালে প্রাপ্ত (অয়ম্) এই প্রত্যক্ষ (য়োনিঃ) দুঃখনাশক এবং সুখদায়ক ব্যবহার (য়তঃ) যদ্দ্বারা (জাতঃ) জাত আপনি (অরোচয়া) প্রকাশিত হউন (তম্) উহাকে (জানন্) জানিয়া আপনি (আরোহ) শুভগুণের উপর আরূঢ় হউন (অথ) তদ্পশ্চাৎ (নঃ) আমাদিগের জন্য (রয়িম্) প্রশংসিত লক্ষ্মীকে (বর্ধয়) বৃদ্ধি করুন ॥ ৫২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মাতা-পিতা ও আচার্য্য ! তোমরা পুত্র ও কন্যাদিগকে ধর্মানুকূল সেবিত ব্রহ্মচর্য্য দ্বারা শ্রেষ্ঠবিদ্যাকে প্রসিদ্ধ করিয়া উপদেশ কর । তোমরা সত্য বিদ্যা ও সদাচার সহ আমাদিগকে সুষ্ঠু সেবা ও ধন দ্বারা নিরন্তর সুখযুক্ত কর ॥ ৫২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ং তে॒ য়োনি॑র্ঋ॒ত্বিয়ো॒ য়তো॑ জা॒তোऽঅরো॑চথাঃ ।
    তং জা॒নন্ন॑গ্ন॒ऽআ রো॒হাথা॑ নো বর্ধয়া র॒য়িম্ ॥ ৫২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়ং ত ইত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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