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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 102
ऋषिः - हिरण्यगर्भ ऋषिः
देवता - को देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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मा मा॑ हिꣳसीज्जनि॒ता यः पृ॑थि॒व्या यो वा॒ दिव॑ꣳ स॒त्यध॑र्मा॒ व्यान॑ट्। यश्चा॒पश्च॒न्द्राः प्र॑थ॒मो ज॒जान॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥१०२॥
स्वर सहित पद पाठमा। मा॒। हि॒ꣳसी॒त्। ज॒नि॒ता। यः। पृ॒थि॒व्याः। यः। वा॒। दिव॑म्। स॒त्यध॒र्मेति॑ स॒त्यऽध॑र्मा। वि। आन॑ट्। यः। च॒। अ॒पः। च॒न्द्राः। प्र॒थ॒मः। ज॒जान॑। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥१०२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा मा हिँसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवँ सत्यधर्मा व्यानट् । यश्चापश्चन्द्राः प्रथमो जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
मा। मा। हिꣳसीत्। जनिता। यः। पृथिव्याः। यः। वा। दिवम्। सत्यधर्मेति सत्यऽधर्मा। वि। आनट्। यः। च। अपः। चन्द्राः। प्रथमः। जजान। कस्मै। देवाय। हविषा। विधेम॥१०२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ किमर्थ ईश्वरः प्रार्थनीयः इत्याह॥
अन्वयः
यः सत्यधर्मा जगदीश्वरः पृथिव्या जनिता, यो वा दिवमपश्च व्यानट्, चन्द्राश्च जजान, यस्मै कस्मै देवाय हविषा वयं विधेम, स जगदीश्वरो मा मा हिंसीत्॥१०२॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (मा) माम् (हिंसीत्) रौगैर्हिंस्यात् (जनिता) उत्पादकः (यः) जगदीश्वरः (पृथिव्याः) भूमेः (यः) (वा) (दिवम्) सूर्यादिकं जगत् (सत्यधर्मा) सत्यो धर्मो यस्य सः (वि) (आनट्) व्याप्तोऽस्ति (यः) (च) अग्निं सूर्यम् (अपः) जलानि वायून् (चन्द्राः) चन्द्रादिलोकान्, अत्र शसः स्थाने जस् (प्रथमः) जन्मादेः पृथगादिमः (जजान) जनयति (कस्मै) सुखस्वरूपाय सुखकारकाय। क इति पदनामसु पठितम्॥ (निघं॰५.४) ‘वाच्छन्दसि सर्वे विधयः’ इति सर्वनामकार्य्यम् (देवाय) दिव्यसुखप्रदाय विज्ञानस्वरूपाय (हविषा) उपादेयेन भक्तियोगेन (विधेम) परिचरेम। [अयं मन्त्रः शत॰७.३.१.२ व्याख्यातः]॥१०२॥
भावार्थः
मनुष्यैः सत्यधर्मप्राप्तये ओषध्यादिविज्ञानाय च परमेश्वरः प्रार्थनीयः॥१०२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब किसलिये ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(यः) जो (सत्यधर्मा) सत्यधर्म वाला जगदीश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी का (जनिता) उत्पन्न करने वाला (वा) अथवा (यः) जो (दिवम्) सूर्य आदि जगत् को (च) और पृथिवी तथा (अपः) जल और वायु को (व्यानट्) उत्पन्न करके व्याप्त होता है और जो (चन्द्राः) चन्द्रमा आदि लोकों को (जजान) उत्पन्न करता है। जिस (कस्मै) सुखस्वरूप सुख करने हारे (देवाय) दिव्य सुखों के दाता विज्ञानस्वरूप ईश्वर का (हविषा) ग्रहण करने योग्य भक्तियोग से हम लोग (विधेम) सेवन करें, वह जगदीश्वर (मा) मुझको (मा) नहीं (हिंसीत्) कुसंग से ताडि़त होने देवे॥१०२॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि सत्यधर्म की प्राप्ति और ओषधि आदि के विज्ञान के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करें॥१०२॥
विषय
परमेश्वर और पक्षान्तर में राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( यः ) जो परमेश्वर ( पृथिव्या: जनिता ) पृथिवी का उत्पादक है और ( यः वा ) जो ( सत्य धर्मा ) सत्य धर्मवाला, सत्य के बल से जगत् को धारण करनेवाला होकर ( दिवं ) द्योलोक, आकाश और सूर्य को ( वि आनड् ) विविध प्रकार से व्याप्त है । और ( यः )जो ( प्रथम ) सबसे प्रथम विद्यमान होकर ( आपः ) जल को ( चन्द्राः ) ज्योति वाले सूर्यादि लोकों को ( जजान ) उत्पन्न करता है ( कस्मै ) उस सुखमय उपास्य देव को हम ( हविषा ) भक्ति और स्तुति से ( विधेम ) अर्चना करें। वह मा मा हिंसीत् ) मुझे कभी नाश न करे । राजा के पक्ष में-- जो पृथिवी का ( जनिता ) पिता के समान पालक सत्य नियमों वाला होकर ( यः दिवं व्यानट् ) जो सब व्यवहारों को चलाता है ( चन्द्रा आपः ) जो सबसे श्रेष्ठ होकर सब आह्लादकारी ग्रास प्रजाओं को ( जजान ) प्रकट करता है । उसके कर्त्तारूप प्रजापति को हम ( हविषा ) अन्न आदि उत्तम उपादेय पदार्थों से सेवा करें । वह राजा ( मा मा हिंसीत् ) सुरु राष्ट्र की प्रजा का नाश न करे । शत० ७ । ३ । १ । २० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यगर्भ ऋषिः । को देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
हविषा विधेम
पदार्थ
१. पिछले मन्त्रों में भूमि से उत्पन्न होनेवाली तथा वृष्टि के कारणभूत सूर्यादि से परिपक्व की गई ओषधियों का सविस्तर वर्णन हुआ है, परन्तु भूमि- सूर्य आदि इन सबका उत्पादक भी तो वह प्रभु है, अतः प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि उस ज्ञान-धन प्रभु की उपासना करता है। वे प्रभु 'हिरण्यगर्भ' हैं। यह उपासक भी 'हिरण्यगर्भ' कहलाने लगता है। यह प्रार्थना करता है कि - २. (यः पृथिव्याः जनिता) = जो पृथिवी का उत्पादक प्रभु है, वह (मा) = मुझे (मा हिंसीत्) = नष्ट न होने दे। वह इस पृथिवी में ऐसी गुणकारी ओषधियों को जन्म देता है, जिससे मेरे सब रोग दूर हो जाते हैं। ३. वह (सत्यधर्मा) = सत्य से इन लोक व लोकान्तरों का धारण करनेवाला- अपनी अटल व्यवस्था से सब लोकों को हिंसित होने से रक्षित करनेवाला प्रभु (यः) = जो (वा) = निश्चय से (दिवम्) = द्युलोक को (व्यानट्) = व्याप्त कर रहा है अथवा (असृजत्) उत्पन्न करता है, मुझे हिंसित न होने दे। ४. (क) च और वह प्रभु मुझे हिंसित न होने दे (यः) = जिसने (आपः) = जलों को तथा (चन्द्रा:) = ओषधियों में उत्तम रसों का सञ्चार करनेवाले चन्द्रलोकों को (प्रथमः) = सबसे प्रथम होते हुए [हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे] (जजान) = पैदा किया है। [ख] (यश्चापश्चन्द्राः) = का अर्थ ब्राह्मणग्रन्थों में 'मनुष्य' किया गया है 'मनुष्य एव हि यज्ञेनासुवन्ति चन्द्रलोकम्' मनुष्य ही तो यज्ञों से चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं, अतः जिसने मनुष्यों को जन्म दिया है, वह प्रभु उन्हें हिंसित करनेवाला न हो। वह प्रभु 'भूमि, द्युलोक, जल, चन्द्र' आदि उन सब लोकों का निर्माण करता है जो उत्तम ओषधियों के उत्पादन में भाग लेते हैं । ५. इस (कस्मै) = आनन्दस्वरूप (देवाय) = सब औषधों के देनेवाले प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करें। प्रभु तो उत्तमोत्तम ओषधियों से हमें नीरोग करने में लगे हैं। यदि हम दानवृत्ति को छोड़कर 'स्वोदरम्भरि' ही बन जाएँगे तो पेटू बनकर नीरोग कैसे हो सकेंगे! अतः प्रभु की पूजा इसी प्रकार होगी कि हम दानपूर्वक अदन करनेवाले बनकर रोगनिवारण में सहायक बनें।
भावार्थ
भावार्थ-वे प्रभु पृथिवी, द्युलोक, जल व चन्द्रादि के निर्माता हैं। ये सब लोक हमारे कल्याण के लिए हैं। कल्याण तभी होगा जब हम दानपूर्वक खानेवाले बनें। ऐसा बनने में ही सच्ची प्रभु-पूजा है।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी सत्यधर्मप्राप्तीसाठी व औषध इत्यादींच्या विशेष ज्ञानासाठी परमेश्वराची प्रार्थना करावी.
विषय
ईश्वराची प्रार्थना का करावी, पुढील मंत्रात याविषयी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (य:) जो परमेश्वर (सत्यधर्मा) सत्यधर्माचा पालक असून (पृथिव्या:) पृथ्वीचा (अमिता) उत्पादक आहे, (वा) अथवा (य:) जो (दिवम्) सूर्य आदी जगातील ग्रहनक्षत्रादींची (व) आणि (पृथिवी) पृथ्वी (अप:) जल आणि वायू, यांची उत्पत्ती करून सर्वत्र व्याप्त आहे, जो (चन्द्रा:) चंद्रमा आदी लोकलोकांतरांना (जजान) उत्पन्न करतो, त्या (कस्मै) सुखस्वरूप, सुखप्रदाता (देवाय) दिव्यसुखदाता विज्ञानरुप परमेश्वराची (हविषा) ग्रहणीय भक्तियोगाद्वारा आम्ही (विद्येम) प्रार्थना करावी. त्या जगदीश्वराने (मा) मला (उपासकाला) (मा) हिंसात्) काणता रोग वा कुसंग देऊ दंडित/ताडित करू नये (रोग व कुसंगतीपासून वाचवावे, अशी माझी इच्छा व प्रार्थना आहे) ॥102॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी सत्यधर्माच्या प्राप्तीसाठी आणि औषधी आदींच्या ज्ञान-विज्ञानाच्या शोध-प्रयोगासाठी परमेश्वराची प्रार्थना करावी ॥102॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O God, whose laws are immutable, creates the Earth. He pervades the sun, fire, waters and air. He, being Primordial, creates the lustrous moon. Let us worship with devotion, Him, Who is the Embodiment of happiness. May He not harm me.
Meaning
The Lord who is the creator of the earth, who is the lord of the universal law of truth, who is the first of all and creator of the air, waters and the moons, and who pervades the heavens, whom we worship with the best homage of fragrant oblations, that lord of life may never hurt us with disease and ill-health.
Translation
May He, who is the creator of the earth, and who, the initiator of true laws, pervades the heaven, and who, in the beginning, created pleasing waters, never injure me. To that God do we offer our oblations. (1)
Notes
An important verse, as it is suggested to be recited with many other verses also. Prthivyah janita, creator of Earth. Divam vyanat, created Heaven. Candrah, आह्लादिका:, joy-giving, pleasing. मनुष्या वा अपश्चंद्रा: (Satapatha, VII 3. 1. 20), men are called &paścandrāh; men.
बंगाली (1)
विषय
অথ কিমর্থ ঈশ্বরঃ প্রার্থনীয়ঃ ইত্যাহ ॥
এখন কী জন্য ঈশ্বরের প্রার্থনা করা উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (য়ঃ) যিনি (সত্যধর্মা) সত্যধর্মযুক্ত জগদীশ্বর (পৃথিব্যাঃ) পৃথিবীর (জনিতা) উৎপন্নকারী (বা) অথবা (য়ঃ) যিনি (দিবম্) সূর্য্যাদি জগৎকে (চ) এবং পৃথিবী তথা (অপঃ) জল ও বায়ুকে (ব্যানট্) উৎপন্ন করিয়া ব্যাপ্ত হয়েন (চন্দ্রাঃ) এবং যিনি চন্দ্রাদি লোককে (জজান)উৎপন্ন করেন । যে (কস্মৈ) সুখস্বরূপ সুখকারী (দেবায়) দিব্য সুখদাতা বিজ্ঞানস্বরূপ ঈশ্বরের (হবিষা) গ্রহণীয় ভক্তিযোগ দ্বারা আমরা (বিধেম) সেবন করি, সেই জগদীশ্বর (মা) আমাকে (মা) না (হিংসীৎ) কুসঙ্গ দ্বারা তাড়িত হইতে দিবেন ॥ ১০২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, সত্যধর্মের প্রাপ্তি এবং ওষধী ইত্যাদির বিজ্ঞান হেতু পরমেশ্বরের প্রার্থনা করিবে ॥ ১০২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
মা মা॑ হিꣳসীজ্জনি॒তা য়ঃ পৃ॑থি॒ব্যা য়ো বা॒ দিব॑ꣳ স॒ত্যধ॑র্মা॒ ব্যান॑ট্ ।
য়শ্চা॒পশ্চ॒ন্দ্রাঃ প্র॑থ॒মো জ॒জান॒ কস্মৈ॑ দে॒বায়॑ হ॒বিষা॑ বিধেম ॥ ১০২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মা মেত্যস্য হিরণ্যগর্ভ ঋষিঃ । কো দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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