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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 95
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - वैद्या देवताः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    मा वो॑ रिषत् खनि॒ता यस्मै॑ चा॒हं खना॑मि वः। द्वि॒पाच्चतु॑ष्पाद॒स्मा॒कꣳ सर्व॑मस्त्वनातु॒रम्॥९५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। वः॒। रि॒ष॒त्। ख॒नि॒ता। यस्मै॑। च॒। अ॒हम्। खना॑मि। वः॒। द्वि॒पादिति॑ द्वि॒ऽपात्। चतु॑ष्पात्। चतुः॑पा॒दिति॒ चतुः॑ऽपात्। अ॒स्माक॑म्। सर्व॑म्। अ॒स्तु॒। अ॒ना॒तु॒रम् ॥९५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा वो रिषत्खनिता यस्मै चाहङ्खनामि वः । द्विपाच्चतुष्पादस्माकँ सर्वमस्त्वनातुरम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। वः। रिषत्। खनिता। यस्मै। च। अहम्। खनामि। वः। द्विपादिति द्विऽपात्। चतुष्पात्। चतुःपादिति चतुःऽपात्। अस्माकम्। सर्वम्। अस्तु। अनातुरम्॥९५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 95
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    केनाप्योषधयो नैव ह्रासनीया इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! अहं यस्मै यामोषधीं खनामि सा खनिता सती वो युष्मान् मा रिषत्। यतो वोऽस्माकं च सर्वं द्विपाच्चतुष्पादनातुरमस्तु॥९५॥

    पदार्थः

    (मा) (वः) युष्मान् (रिषत्) हिंस्यात् (खनिता) (यस्मै) प्रयोजनाय (च) (अहम्) (खनामि) उत्पाटयामि (वः) युष्माकम् (द्विपात्) मनुष्यादि (चतुष्पात्) गवादि (अस्माकम्) (सर्वम्) (अस्तु) भवतु (अनातुरम्) रोगातुरतारहितम्॥९५॥

    भावार्थः

    य ओषधीः खनेत् स ता निर्बीजा न कुर्य्यात्। यावत् प्रयोजनं तावदादाय प्रत्यहं रोगान् निवारयेदोषधिसन्ततिं च वर्धयेत्, येन सर्वे प्राणिनो रोगकष्टमप्राप्य सुखिनः स्युः॥९५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कोई भी मनुष्य ओषधियों की हानि न करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! (अहम्) मैं (यस्मै) जिस प्रयोजन के लिये ओषधी को (खनामि) उपाड़ता वा खोदता हूं, वह (खनिता) खोदी हुई (वः) तुम को (मा)(रिषत्) दुःख देवे, जिससे (वः) तुम्हारे (च) और (अस्माकम्) हमारे (द्विपात्) दो पग वाले मनुष्य आदि तथा (चतुष्पात्) गौ आदि (सर्वम्) सब प्रजा उस ओषधि से (अनातुरम्) रोगों के दुःखों से रहित (अस्तु) होवें॥९५॥

    भावार्थ

    जो पुरुष जिन ओषधियों को खोदे, वह उनकी जड़ न मेटे। जितना प्रयोजन हो उतनी लेकर नित्य रोगों को हटाता रहे, ओषधियों की परम्परा को बढ़ाता रहे कि जिससे सब प्राणी रोगों के दुःखों से बच के सुखी होवें॥९५॥

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    भावार्थ

    हे ओषधियो ! (खनिता) तुमको खोदने वाला तुम्हें (मा रिषत् ) विनाश न करे । और ( यस्मै च ) जिसके लिये मैं ( वः ) तुमको ( खनामि ) खोदूं वह ( द्विपात् चतुष्पात् मनुष्य और पशु (सर्वम् )सब ( अस्माकम् ) हमारे ( अनातुरम् ) नीरोग, सुखी (अस्तु) हों । हे वीर पुरुषो ! तुम्हारा ( खनिता ) खनन करनेवाला, तुमको सामान्य प्रजा से अलग करनेवाला राजा ( मा रिषत् ) तुम्हें पीड़ित न करे और जिस राष्ट्र की रक्षा के लिये वह तुम्हें पृथक् करता है वे सब मनुष्य, पशु सुखी हों ।

    टिप्पणी

    'द्विपच्चतुष्पदस्मा ०' इति काण्व ०।

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    विषय

    ओषधि खनन

    पदार्थ

    १. हे ओषधियो ! [क] (वः) = आपका खनिता खोदनेवाला (मा रिषत्) = मत हिंसित हो, अर्थात् तुम्हारे खोदने में खोदनेवाले को इस प्रकार की चोट आदि न आए जो अन्ततः उसकी हिंसा का कारण सिद्ध हो। [ख] अथवा (खनिता) = खोदनेवाला (व:) = आपको (मा रिषत्) = हिंसित न करे। तुम्हें जड़ से ही न उखाड़ दे। 'ओषध्यास्ते मूलं मा हिंसिषम्' का यही अभिप्राय है। २. (च) = और वह रोग भी नष्ट हो (यस्मै) = जिसके लिए (अहम्) = मैं (वः) = तुम्हें (खनामि) = खोदता हूँ। जिस रोग के लिए मूल को भी खोदा जाता है, उससे रोगी पुरुष का रोग अवश्य दूर हो जाए। ३. हे ओषधियो ! तुम्हारी इस कृपा से (अस्माकम्) = हमारे (द्विपात् चतुष्पात्) = दोपाये मनुष्य व चौपाये गवादिक पशु (सर्वम्) = सब (अनातुरम्) = नीरोग (अस्तु) = हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ओषधियों के मूल को नष्ट न करें। हम सब नीरोग हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी वृक्षौषधी तोडून घेतल्यानंतर त्यांची मुळे नष्ट करू नयेत. जेवढे आवश्यक असेल तेवढेच घेऊन सदैव रोग नष्ट करावेत. औषधी सतत वाढवावी त्यामुळे सर्व प्राणी रोगरूपी दुःखांपासून बचाव करून सुखी होतील.

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    विषय

    कोणीही औषधी नष्ट वा विकृत करूं नये, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (वैद्यराज म्हणतात) हे मनुष्यांनो, (अहम्‌) मी एक वैद्य) (यस्मै) ज्या प्रयोजनासाठी (झुपुड, रोप वा गवतसारख्या वनस्पती) औषधी (खनामि:) उपटतो वा खोदून काढतो, (खनिता) खोदून काढलेली ती औषधी (व:) तुम्हाला (मा) (रिषत्‌) कोणत्या प्रकारे हानिकारक होऊ नये. तसेच द्यो औषधी (व:) तुमच्या (अस्माकम्‌) आमच्यासाठी आणि (द्विपात्‌) दोन पायांचे प्राणी मनुष्य आदीसाठी तसेच (चतुष्यात्‌) गौ आयी प्राण्यासाठी (सर्व) एवढेच नव्हे तर सर्वांसाठी (अनातुरम्‌) रोग निवारक व्हाव्यात, (अशी आमची शुभकामना आहे) ॥95॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जो कोणी चतुर कुशल माणूस औषधींचे रोप, झुडप आदी खोदेल (अथवा उपटावों, पानें तोड आदी रुपाने त्या औषधी प्राप्त करील, त्याने काळजी घ्यावी की) त्या रोप आदींच्या मुळांची हानी होऊ नये. औषधी वृक्ष, लता, रोप आदीपासून जेवढे घेणे आवश्‍यक असेल, तेवढेच घेऊन रोगनिवारणासाठी वापरावे. तसेच त्याचे त्या औषधींच्या पुढील वृद्धी व विकासासाठी यत्न करावे व की ज्यामुळे सर्व प्राणी रोगरूप दु:खापासून दूर राहून सुखी होऊन राहतील ॥95॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May not the herb I dig for some purpose, harm you, while being dug. May our and your bipeds and quadrupeds be free from disease by its use.

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    Meaning

    Whoever digs you (roots/minerals) out, may he/ she never injure/destroy you, nor should he/she come to any harm. Nor should the person for whom I (the physician) dig you out come to any harm. May all the bi-peds (humans) and all the quadrupeds (animals) of ours be free from suffering and disease.

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    Translation

    May he be far from harm, who digs you up as well as he for whose sake I dig. May all our bipeds and quadrupeds be free from every disease. (1)

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    बंगाली (1)

    विषय

    কেনাপ্যোষধয়ো নৈব হ্রাসনীয়া ইত্যাহ ॥
    কোনও মনুষ্য ওষধিগুলির ক্ষতি না করে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (অহম্) আমি (য়স্মৈ) যে প্রয়োজন হেতু ওষধিকে (খনামি) উৎপাটন করি বা খনন করি সেই (খনিতা) খনিত ওষধি (বঃ) তোমাকে (মা) না (রিষৎ) দুঃখ প্রদান করে যাহাতে (বঃ) তোমাদিগের (চ) এবং (অস্মাকম্) আমাদিগের (দ্বিপাৎ) দ্বিপদযুক্ত মনুষ্যাদি তথা (চতুষ্পাৎ) গাভী ইত্যাদি (সর্বম্) সকল প্রজা সেই ওষধি হইতে (অনাতুরম্) রোগের দুঃখ-রহিত (অস্তু) হউক ॥ ঌ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে পুরুষ যে সব ওষধীগুলিকে খনন করিবে সে উহার শিকড় ধ্বংস না করে । যতখানি প্রয়োজন ততখানি লইয়া নিত্য রোগকে নিবারণ করিতে থাকিবে, ওষধি সকলের পরম্পরা বৃদ্ধি করিতে থাকিবে যাহাতে সকলপ্রাণী রোগের দুঃখ হইতে মুক্ত হইয়া সুখী হইতে পারিবে ॥ ঌ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মা বো॑ রিষৎ খনি॒তা য়স্মৈ॑ চা॒হং খনা॑মি বঃ ।
    দ্বি॒পাচ্চতু॑ষ্পাদ॒স্মা॒কꣳ সর্ব॑মস্ত্বনাতু॒রম্ ॥ ঌ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মা ব ইত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । বৈদ্যা দেবতাঃ । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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