Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 12

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 11
    ऋषिः - ध्रुव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्ष्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    90

    आ त्वा॑हार्षम॒न्तर॑भूर्ध्रु॒वस्ति॒ष्ठावि॑चाचलिः। विश॑स्त्वा॒ सर्वा॑ वाञ्छन्तु॒ मा त्वद्रा॒ष्ट्रमधि॑भ्रशत्॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। त्वा॒। अ॒हा॒र्ष॒म्। अ॒न्तः। अ॒भूः॒। ध्रु॒वः। ति॒ष्ठ॒। अवि॑चाचलि॒रित्यवि॑ऽचाचलिः। विशः॑। त्वा॒। सर्वाः॑। वा॒ञ्छ॒न्तु॒। मा। त्वत्। रा॒ष्ट्रम्। अधि॑। भ्र॒श॒त् ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वाहार्षमन्तरभूर्ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः । विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधिभ्रशत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। त्वा। अहार्षम्। अन्तः। अभूः। ध्रुवः। तिष्ठ। अविचाचलिरित्यविऽचाचलिः। विशः। त्वा। सर्वाः। वाञ्छन्तु। मा। त्वत्। राष्ट्रम्। अधि। भ्रशत्॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाकर्म्माह॥

    अन्वयः

    हे शुभगुणलक्षण सभेश राजन्! त्वा राज्यपालनायाहमन्तराहार्षम्। त्वमन्तरभूः, अविचाचलिर्ध्रुव- स्तिष्ठ। सर्वा विशस्त्वा वाञ्छन्तु, तव सकाशाद् राष्ट्रं माऽधिभ्रशत्॥११॥

    पदार्थः

    (आ) (त्वा) त्वां राजानम् (अहार्षम्) हरेयम् (अन्तः) सभामध्ये (अभूः) भवेः (ध्रुवः) न्यायेन राज्यपालने निश्चितः (तिष्ठ) स्थिरो भव (अविचाचलिः) सर्वथा निश्चलः (विशः) प्रजाः (त्वा) त्वाम् (सर्वाः) अखिलाः (वाञ्छन्तु) अभिलषन्तु (मा)(त्वत्) (राष्ट्रम्) राज्यम् (अधि) (भ्रशत्) नष्टं स्यात्। [अयं मन्त्रः शत॰६.७.३.८ व्याख्यातः]॥११॥

    भावार्थः

    उत्तमाः प्रजाजनाः सर्वोत्तमं पुरुषं सभाध्यक्षं राजानं कृत्वाऽनूपदिशन्तु। त्वं जितेन्द्रियः सन् सर्वदा धर्मात्मा पुरुषार्थी भवेः। न तवानाचाराद् राष्ट्रं कदाचिन्नष्टं भवेद् यतः सर्वाः प्रजास्त्वदनुकूलाः स्युः॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा और प्रजा के कर्मों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे शुभ गुण और लक्षणों से युक्त सभापति राजन्! (त्वा) आपको राज्य की रक्षा के लिये मैं (अन्तः) सभा के बीच (आहार्षम्) अच्छे प्रकार ग्रहण करूं। आप सभा में (अभूः) विराजमान हूजिये (अविचाचलिः) सर्वथा निश्चल (ध्रुवः) न्याय से राज्यपालन में निश्चित बुद्धि होकर (तिष्ठ) स्थिर हूजिये (सर्वाः) सम्पूर्ण (विशः) प्रजा (त्वा) आपकी (वाञ्छन्तु) चाहना करें, (त्वत्) आपके पालने से (राष्ट्रम्) राज्य (माधिभ्रशत्) नष्ट-भ्रष्ट न होवे॥११॥

    भावार्थ

    उत्तम प्रजाजनों को चाहिये कि सब से उत्तम पुरुष को सभाध्यक्ष राजा मान के उसको उपदेश करें कि आप जितेन्द्रिय हुए सब काल में धार्मिक पुरुषार्थी हूजिये। आपके बुरे आचरणों से राज्य कभी नष्ट न होवे, जिससे सब प्रजापुरुष आप के अनुकूल वर्त्तें॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    जन-प्रिय राजा

    पदार्थ

    १. प्रजाओं का जीवन बहुत कुछ राजा के जीवन पर निर्भर है। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ राजा का जीवन जहाँ प्रजा के जीवन को प्रभावित करता है, वहाँ राष्ट्र में राजा से प्रणीत राज्य-व्यवस्था भी लोगों के जीवनोत्कर्ष की साधिका होती है, अतः प्रस्तुत मन्त्र राजा के चुनाव का प्रतिपादन करता है— २. पुरोहित चुने गये राजा को अभिषिक्त करता हुआ कहता है कि ( त्वा ) = तुझे ( अन्तः ) = प्रजा के बीच में से ही ( आहार्षम् ) = लाया हूँ। इससे स्पष्ट है कि राजा प्रजा में से ही चुना जाता है। ३. ( अन्तः अभूः ) = तू प्रजा के बीच में ही हो। राजा को यथासम्भव राष्ट्र में ही रहना चाहिए, वह देश-विदेशों की सैर ही न करता रहे। ४. तू ( ध्रुवः तिष्ठ ) = ध्रुव होकर ठहर। राजा को अपने कर्त्तव्य से न डिगनेवाला होना चाहिए। ध्रुव के समान राजा को अपने स्थान पर ध्रुवता से रहना है। स्पष्ट है कि राजा चुना जाता है और फिर यह ध्रुव होकर रहता है। वैदिक पद्धति में चुनाव बार-बार नहीं होता। ५. ( अविचाचलिः ) = तू अचञ्चल वृत्ति का हो। राजा झट क्रोधादि में आ जानेवाला न हो। ६. ( त्वा ) = तुझे ( सर्वाः विशः ) = सब प्रजाएँ ( वाञ्छन्तु ) = चाहें। सम्भवतः राजा के चुनाव में ऐकमत्य आवश्यक-सा प्रतीत होता है। अथवा राजा को राज्य-व्यवस्था ऐसी उत्तमता से करनी चाहिए कि वह सभी का प्रिय बना रहे। ७. पुरोहित राजा को चेतावनी देता हुआ कहता है कि ( त्वत् ) = तुझसे ( राष्टम् ) = राष्ट्र ( मा अधिभ्रशत् ) = नष्ट न हो जाए। तुझे राष्ट्र से पृथक् न करना पड़े। राजा यदि ऐसे कार्य करने लगे जो राष्ट्र के लिए अहितकर हों तो राजा को गद्दी से उतार दिया जाता है। आदर्श राजा ‘ध्रुव’ ही होता है, वह गद्दी से हिलाया नहीं जाता।

    भावार्थ

    भावार्थ — राजा चुना जाकर ध्रुवता से राज्य-कार्यों को करनेवाला हो। उसका कोई भी कार्य राज्य की अवनति का कारण न बने। उसके अहितकर कार्य ही उसे गद्दी से गिरानेवाले होंगे।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ध्रुव पद पर राजा का स्थापन ।

    भावार्थ

    मैं पुरोहित, हे राजन् ! (त्वा आहार्षम् ) तुझको स्थापित करता हूं । तू ( अन्तः ) प्रजा के भीतर (अभूः ) सामर्थ्यवान् हो । त् ( अविचाचलि: ) अचल, (ध्रुवः ) ध्रुव, स्थिर, दृढ़ होकर (तिष्ठ) बैठ । (स्वा) तुझको ( सर्वा: ) समस्त ( विश: ) प्रजाएं ( बाम्हन्तु ) चाहे । ( श्वत् ) तेरे हाथ से कहीं ( राष्ट्रम) राष्ट्र राज्य का वैभव ( मा अधिकाशत् ) न निकल जाय ॥ शत० ६ । ७ । ३ । ७ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भुवऋषिः । अग्निदेवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    उत्तम प्रजेने सर्वात उत्तम पुरुषाला राजा मानून त्याला असा उपदेश करावा की त्याने जितेन्द्रिय बनून सर्वकाळी धार्मिक व पुरुषार्थी बनावे. त्याच्या वाईट वर्तनाने राज्य कधीही नष्ट होता कामा नये. सर्व प्रजेने राजाच्या अनुकूल वर्तन करावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यानंतर राजा आणि प्रजा यांच्या कर्तव्यकर्मांविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - शुभगुणांनी आणि शुभलक्षणांनी संपन्न अशा हे सभापती राजा, (त्वा) आपणाला या राज्याच्या रक्षणासाठी मी (पुरोहित) (अन्त:) या सभेमध्ये (आहार्षम्‌) उत्तमप्रकारे ग्रहण करतो (सर्वांच्यासमक्ष आपणास राष्ट्राध्यक्ष म्हणून मान्यता देतो) आपण या सभेमध्ये (अभू:) स्थानापन्न व्हा आणि (अविचाचत्ति:) सर्वथास्थिर अविचल अशा ‘राज्यात (ध्रुव:) न्यायाप्रमाणे राज्यपालन करण्याचा निश्‍चय केलेल्या बुद्धीने (तिष्ठ) राज्य चालवा व या न्यायासनावर स्थिर रहा. (सर्वा:) समस्त (विश:) प्रजाजन (त्वा) आपल्यावर (वाञ्छन्षु) प्रेम करोत (आपण प्रजाप्रिय व्हावे, अशी मी कामना करतो) आणि (त्वत्‌) आपल्या पालन वा आश्रयाखाली असलेले हे (राष्ट्रम्‌) राज्य कधीही (माधिभ्रशत्‌) नष्ट-भ्रष्ट होऊ नये (ही शुभेच्छा) ॥11॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सज्जन प्रजाजनांनी सर्वोत्तम पुरुषालाच (राष्ट्राचा सभापती राजा (राष्ट्राध्यक्ष) म्हणून मान्यता द्यावी आणि त्यास उपदेश करावा की आपण जितेंद्रिय राहून सदैव धार्मिक आणि पुरुषार्थी असावे. ज्यामुळे हे राज्य नष्ट होईल, असे वाईट आचरण आपणांकडून कधीही घडूं नये. असे झाल्यास सर्व प्रजाजन आपणांशी अनुकूल राहून वर्तन करतील. ॥11॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O King, enter the Assembly, I declare thee as the ruler. Stand steadfast and immovable. Let all thy subjects long for thee. Let not thy Kingship fall away.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Agni/Ruler of the land, we accept you and conduct you to the council as the ruler. Grace the seat of your office, be firm and stay inviolable. All the people accept and honour you. Let the land and the nation, under your control, never fail and fall to ruin.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O king, I have brought you here, Now you have entered inside. May you remain here firm and unremovable. May all the subjects like you. May your kingship never fall. (1)

    Notes

    Aharsam, I have brought you. Antah abhüh, you have entered inside. Avicicalth, सर्वथा निश्चल:, unremovable. According to Dayünandz, a newly appointed king is addressed to here; according to the ritualists, the wkiva agni. Visah, प्रजा:. , people; अन्नं वा, food. May ali the foods be available to you,

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    পুনা রাজপ্রজাকর্ম্মাহ ॥
    রাজা ও প্রজার কর্মের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে শুভ গুণ এবং লক্ষণযুক্ত সভাপতি রাজন্ ! (ত্বা) আপনাকে রাজ্য রক্ষা হেতু আমি (অন্তঃ) সভামধ্যে (আহার্ষম্) সম্যক্ প্রকারে গ্রহণ করি । আপনি সভায় (অভূঃ) বিরাজ মান হউন, (অবিচাচলিঃ) সর্বথা নিশ্চল (ধ্রুবঃ) ন্যায়পূর্বক রাজ্যপালনে নিশ্চিত বুদ্ধি হইয়া (তিষ্ঠ) স্থির হউন, (সর্বাঃ) সম্পূর্ণ (বিশঃ) প্রজা (ত্বা) আপনাকে (বাঞ্ছন্তু) কামনা করিবে (ত্বৎ) আপনার পরিচালনায় (রষ্ট্রম্) রাজ্য (মাধিভ্রশৎ) নষ্টভ্রষ্ট না হউক ॥ ১১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- উত্তম প্রজাদের উচিত যে, সর্বাপেক্ষা উত্তম পুরুষকে সভাধ্যক্ষ রাজা স্বীকার করিয়া তাহাকে উপদেশ করিবে যে, আপনি জিতেন্দ্রিয় হইয়া সর্ব কালে ধার্মিক পুরুষকার সম্পন্ন হউন । আপনার অনাচারে রাজ্য কখনও নষ্ট না হউক, যাহাতে সব প্রজাপুরুষ আপনার অনুকূল আচরণ করিবে ॥ ১১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ ত্বা॑ऽহার্ষম॒ন্তর॑ভূর্ধ্রু॒বস্তি॒ষ্ঠাবি॑চাচলিঃ ।
    বিশ॑স্ত্বা॒ সর্বা॑ বাঞ্ছন্তু॒ মা ত্বদ্রা॒ষ্ট্রমধি॑ ভ্রশৎ ॥ ১১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আ ত্বেত্যস্য ধ্রুব ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষ্যনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top