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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 74
    ऋषिः - कुमारहारित ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
    101

    स॒जूरब्दो॒ऽअय॑वोभिः स॒जूरु॒षाऽअरु॑णीभिः। स॒जोष॑साव॒श्विना॒ दꣳसो॑भिः स॒जूः सूर॒ऽएत॑शेन स॒जूर्वै॑श्वान॒रऽइड॑या घृ॒तेन॒ स्वाहा॑॥७४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। अब्दः॑। अय॑वोभि॒रित्यय॑वःऽभिः। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। उ॒षाः। अरु॑णीभिः। स॒जोष॑सा॒विति॑ स॒जोष॑ऽसौ। अ॒श्विना॑। दꣳसो॑भि॒रिति॒ दꣳसः॑ऽभिः। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। सूरः॑। एत॑शेन। स॒जूरिति॑ स॒ऽजूः। वै॒श्वा॒न॒रः। इड॑या। घृ॒तेन॑। स्वाहा॑ ॥७४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सजूरब्दोऽअयवोभिः सजूरुषा अरुणीभिः सजोषसावश्विना दँसोभिः सजूः सूरऽएतशेन सजूर्वैश्वानरऽइडया घृतेन स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सजूरिति सऽजूः। अब्दः। अयवोभिरित्ययवःऽभिः। सजूरिति सऽजूः। उषाः। अरुणीभिः। सजोषसाविति सजोषऽसौ। अश्विना। दꣳसोभिरिति दꣳसःऽभिः। सजूरिति सऽजूः। सूरः। एतशेन। सजूरिति सऽजूः। वैश्वानरः। इडया। घृतेन। स्वाहा॥७४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 74
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैः कथं कृत्वा सुखयितव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! वयं सर्वे स्त्रीपुरुषा यथाऽयवोभिः सजूरब्दोऽरुणीभिः सजूरुषा दंसोभिः सजोषसावश्विनेव एतशेनेव सजूः सूर इ[या घृतेन स्वाहा सजूर्वैश्वानरश्च वर्तते, तथैव प्रीत्या वर्त्तेमहि॥७४॥

    पदार्थः

    (सजूः) संयुक्तः (अब्दः) संवत्सरः (अयवोभिः) मिश्रितामिश्रितैरन्नैः क्षणादिभिः कालावयवैः (सजूः) सह वर्त्तमानाः (उषाः) प्रभातः (अरुणीभिः) रक्तप्रभाभिः (सजोषसौ) समानसेवनौ (अश्विना) प्राणापानाविव दम्पती (दंसोभिः) कर्मभिः (सजूः) सहितः (सूरः) सूर्य्यः (एतशेन) अश्वेनेव व्याप्तिशीलेन वेगवता किरणनिमित्तेन वायुना। एतश इत्यश्वनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१४) (सजूः) संयुक्तः (वैश्वानरः) विद्युदग्निः (इ[या) अन्नादिनिमित्तरूपया पृथिव्या (घृतेन) जलेन (स्वाहा) सत्येन वागिन्द्रियेण। [अयं मन्त्रः शत॰७.२.३.८ व्याख्यातः]॥७४॥

    भावार्थः

    मनुष्येषु यावत् परस्परं सौहार्दं तावदेव सुखम्। यावद् दौहार्दं तावदेव दुःखं च जायते, तस्मात् सर्वैः स्त्रीपुरुषः परोपकारक्रियया सहैव सदा वर्त्तितव्यम्॥७४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को किस प्रकार परस्पर सुखी होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! हम सब लोग स्त्री-पुरुष जैसे (अयवोभिः) एकरस क्षणादि काल के अवयवों से (सजूः) संयुक्त (अब्दः) वर्ष (अरुणीभिः) लाल कान्तियों के (सजूः) साथ वर्त्तमान (उषाः) प्रभात समय (दंसोभिः) कर्मों से (सजोषसौ) एकसा वर्त्ताव वाले (अश्विना) प्राण और अपान के समान स्त्री-पुरुष वा (एतशेन) चलते घोड़े के समान व्याप्तिशील वेगवाले किरणनिमित्त पवन के (सजूः) साथ वर्त्तमान (सूरः) सूर्य (इ[या) अन्न आदि का निमित्तरूप पृथिवी वा (घृतेन) जल से (स्वाहा) सत्य वाणी के (सजूः) साथ (वैश्वानरः) बिजुलीरूप अग्नि वर्त्तमान है, वैसे ही प्रीति से वर्त्तें॥७४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों में जितनी परस्पर मित्रता हो उतना ही सुख और जितना विरोध उतना ही दुःख होता है। उस से सब लोग स्त्रीपुरुष परस्पर उपकार करने के साथ ही सदा वर्त्तें॥७४॥

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    विषय

    पति पत्नी आदि से प्रेम का उपदेश ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( अबूदः ) संवत्सर मिले जुले अन्नोसे और मास अर्ध मास आदि काल के अवयवों से ( सजूः ) युक्त है । और जिस प्रकार ( अरुणीभिः ) किरणों से ( उषाः ) प्रभात वेला ( सजूः ) संयुक्त रहती है, ( अश्विना ) स्त्री और पुरुष, पति पत्नी दोनों जैसे ( दंसोभिः ) गृहस्थ कार्यों से ( सजोषसौ ) परस्पर प्रेमयुक्त होकर रहते हैं और (सूरः ) सूर्य जिस प्रकार ( एतशेन ) अपने व्यापक प्रकाश से ( सजूः ) युक्त है और जिस प्रकार सर्व जीवों के भीतर विद्यमान ( इडया ) अन्न से और अग्नि जिस प्रकार ( घृतेन ) दीप्तिकारी प्रकाश या घृत से ( सजू: ) संगत होकर एक दूसरे को प्रकाशित करते हैं उसी प्रकार ( स्वाहा ) हम सब भी सत्य व्यवहार से युक्त होकर प्रेम से वर्ते ॥

    टिप्पणी

    ' सजोषसा अश्विना० ।' इति काण्व ० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लिंगोक्ता देवताः । आर्षी जगती । निषादः ॥

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    विषय

    अन्न व घृत

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (अब्द:) = वर्ष (अयवोभिः) = न विच्छिन्न होनेवाले काल-अवयवों से अथवा शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष से (सजू:) = संयुक्त हो। हमारे जीवन में यह काल विच्छिन्नावयव न हो जाए। हमारा आयुष्य अविच्छिन्नरूप से चलता चले। २. हमारे लिए प्रतिदिन (उषाः) = उषाकाल (अरुणीभिः) = अरुणवर्ण किरणों से (सजू:) = संयुक्त हो। हम अरुण किरणोंवाली उषा का प्रतिदिन दर्शन करें। ३. (अश्विना) = हमारे प्राणापान (दंसोभिः) = उत्तम कर्मों से (सजोषसौ) = प्रीतियुक्त हों। हम अपनी प्राणशक्ति से उत्तम कर्मों में आनन्द का अनुभव करें ४. (सूरः) = सूर्य (एतशेन) = अपने किरणरूप अश्वों से (सजूः) = युक्त हो। हम सदा सूर्य किरणों का सेवन करनेवाले बनें। सूर्यकिरणें हमारे लिए सदा स्वास्थ्य व गतिशीलता देनेवाली हों। ५. (वैश्वानरे) = हमारी जाठराग्नि (इडया) = अन्न से (सजू:) = युक्त हो इस (वैश्वानरे) = वैश्वानर अग्नि में (घृतेन स्वाहा) = घृत से उत्तम आहुति दी जाए, अर्थात् घृत के [ तौलस्य प्राशान] मपे-तुले प्रयोग से जाठराग्नि को दीप्त किया जाए। वैश्वानराग्नि [ जाठराग्नि] का भोजन अन्न व घृत ही हैं। इसमें मद्य-मांस की आहुति न पड़े।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे जीवन के वर्ष अविच्छिन्न कालावयवोंवाले हों। हम उषा के प्रकाश का प्रतिदिन दर्शन करें। हमारे प्राणापान प्रीतिपूर्वक कर्मों में लगे रहें। हम ज्ञानी बनकर क्रियाशील हों, हम खाने में अन्न व घृत का प्रयोग करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांमध्ये जितकी परस्पर मैत्री असेल तितके सुख मिळते व जितका विरोध असेल तितके दुःख होते. त्यासाठी सर्व स्त्री-पुरुषांनी परस्पर उपकार होईल असे वर्तन करावे.

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    विषय

    माणसांनी कशाप्रकारे (कोणत्या उपायाने) सुखी होता येईल, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो आपण सर्वजण एकमेकाशी अशाप्रकारे वागू की ज्याप्रकारे (अवयवोभि:) क्षण आदी आपल्या अवयवांनी वा अवयवां (सजू:) सह (अब्द:) एक वर्ष बनते (क्षणाक्षणाने दिवसरात्र व नंतर पक्ष-मास पूर्ण होऊन एक वर्ष बनते. क्षण व वर्ष परिणामी एक आहेत) ज्याप्रमाणे (अरुणीभि:) लालभांती (सजू:) सह (उषा:) प्रभात बनते (प्रभातकाळची लालिमा व प्रभात यात अंतर करणे अशक्य आहे.) ज्याप्रमाणे (दंसोभि:) कर्मांने (परिणाम व प्रभावाने) (सजोषसौ) एक समान परिणाम करणारे (अश्‍विना) प्राण आणि अपान आहेत. ज्याप्रमाणे (एतशेन) धावणाऱ्या घोड्यासारख्या वेगवती किरणे अथवा वायु लहरी (सजू:) सह (सूर:) सूर्य एक आहे. (दोन्हीत भेद नाही) तसेच ज्याप्रमाणे (इडया) अन्न आदी देणाऱ्या पृथ्वीचा संबंध (घृतेन) पाण्याशी आहे आणि (स्वाहा) सत्यवचनाचा (नियमांचा) (सजू:) संबंध (वैश्‍वानर:) विद्युतरुप अग्नीशी आहे, त्याप्रमाणे हे माणसांनो, आपणही एकमेकाशी असाच एकत्वाचा संबंध ठेवू. (मनुष्यांनी क्षण-वर्ष, बलिमा-प्रभातकाळ, कार्य-प्राणअपान, पवन-सूर्य, अन्न-पृथ्वी, सत्यनियम-अग्नी याप्रमाणे एकत्वाचे नाते ठेवावे) ॥74॥

    भावार्थ

    भावार्थ - माणसामाणसात जितका मैत्रीभाव असेल, तितकेच सुख आणि जर विरोधभाव असेल, तर दु:ख होणे अपरिहार्य आहे. याकरिता सर्व स्त्री-पुरुषांनी एकमेकाशी प्रेमाने व एकमेकाला सहकार्य देत जगावे ॥74॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We all should live together amicably, as the year lives with its parts, the dawn with its ruddy beams, the husband and wife with their wonderful achievements, the sun together with his dappled courser, the air, the earth with water, and the lightning with its exact thunder.

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    Meaning

    The year goes with the divisions of time, the dawn is one with the ruddy morning, the pranic energies express themselves in the actions of nature and of living beings, the sun shines and radiates light with its rays, the vital heat loves the earth, the libations of yajna and the voice of the Veda. (So should the people live together with one another. So should the husband and wife live a common shared life, complementing and supplementing each other in an integrated life. )

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    Translation

    The year is associated with months and half months. (1)The dawn is associated with reddish rays. (2) The twin healers are associated with their treatments. (3) The sun is associated with his fast courser. (4) The fire, beneficial to all men, is associated with verses of praise and melted butter. Svaha. (5)

    Notes

    Sajüh, जोषणं जुट् प्रीति: सह जुषा वर्तते समाना जुट् वा यस्य स सजू; jut means affection or attachment; attached to each other. Yavah and ayavah, half months and months. Damsobhih, कर्मभि: with actions (of treatments). Surah, सूर्य: the sun; also शूर: a warrior, or hero. Ida इडा शब्देन गौर्वाग्न्नं चोचयते, the word ida denotes the earth, speech and food.

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যৈঃ কথং কৃত্বা সুখয়িতব্যমিত্যাহ ॥
    মনুষ্যদিগকে কী ভাবে সুখী হওয়া উচিত এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! আমরা সকল স্ত্রী পুরুষ যেমন (অয়বোভিঃ) একরস ক্ষণাদি কালের অবয়বগুলি দ্বারা (সজূঃ) সংযুক্ত (অব্দঃ) বর্ষ (অরুণীভিঃ) রক্তপ্রভা সমূহের (সজূঃ) সহ বর্ত্তমান (উষাঃ) প্রভাত সময় (দংসোভিঃ) কর্মের দ্বারা (সজষসৌ) সমান সেবনকারী (অশ্বিনা) প্রাণ ও অপানের সমান স্ত্রী পুরুষ বা (এতশেন) চলন্ত অশ্বের সমান ব্যাপ্তিশীল বেগযুক্ত কিরণ নিমিত্ত পবন (সজূঃ) সহ বর্ত্তমান (সূরঃ) সূর্য্য (ইডয়া) অন্নাদির নিমিত্তরূপ পৃথিবী অথবা (ঘৃতেন) জল দ্বারা (স্বাহা) সত্য বাণীর (সজূঃ) সঙ্গে (বৈশ্বানরঃ) বিদ্যুৎরূপ অগ্নি বর্ত্তমান সেইরূপ প্রীতিপূর্বক ব্যবহার করিবে ॥ ৭৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের মধ্যে যত পারস্পরিক মিত্রতা হবে ততই সুখ এবং যত বিরোধ ততই দুঃখ হয় । তদ্দ্বারা সকলে পরস্পর উপকার করিবার মানসে সর্বদা ব্যবহার করিবে ॥ ৭৪

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒জূরব্দো॒ऽঅয়॑বোভিঃ স॒জূরু॒ষাऽঅর॑ুণীভিঃ । স॒জোষ॑সাব॒শ্বিনা॒ দꣳসো॑ভিঃ স॒জূঃ সূর॒ऽএত॑শেন স॒জূর্বৈ॑শ্বান॒রऽইড॑য়া ঘৃ॒তেন॒ স্বাহা॑ ॥ ৭৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সজূরব্দ ইত্যস্য কুমারহারিত ঋষিঃ । অশ্বিনৌ দেবতে । আর্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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