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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 31
ऋषिः - तापस ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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उदु॑ त्वा॒ विश्वे॑ दे॒वाऽअग्ने॒ भर॑न्तु॒ चित्ति॑भिः। स नो॑ भव शि॒वस्त्वꣳ सु॒प्रती॑को वि॒भाव॑सुः॥३१॥
स्वर सहित पद पाठउत्। ऊँ॒इत्यूँ॑। त्वा॒। विश्वे॑। दे॒वाः। अग्ने॑। भर॑न्तु। चित्ति॑भि॒रिति॒ चित्ति॑ऽभिः। सः। नः॒। भ॒व॒। शि॒वः। त्वम्। सु॒प्रती॑क॒ इति॑ सु॒ऽप्रती॑कः। वि॒भाव॑सु॒रिति॑ वि॒भाऽव॑सुः ॥३१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्वा विश्वे देवाऽअग्ने भरन्तु चित्तिभिः । स नो भव शिवस्त्वँ सुप्रतीको विभावसुः ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्। ऊँइत्यूँ। त्वा। विश्वे। देवाः। अग्ने। भरन्तु। चित्तिभिरिति चित्तिऽभिः। सः। नः। भव। शिवः। त्वम्। सुप्रतीक इति सुऽप्रतीकः। विभावसुरिति विभाऽवसुः॥३१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वान् स्वतुल्यानन्यान् विदुषः कुर्यात्॥
अन्वयः
हे अग्ने विद्वन्! यं त्वा विश्वे देवाश्चित्तिभिरुदुभरन्तु, स विभावसुः सुप्रतीकस्त्वं नः शिवो भव॥३१॥
पदार्थः
(उत्) (उ) (त्वा) (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (अग्ने) विद्वन् (भरन्तु) पुष्णन्तु (चित्तिभिः) सम्यग् विज्ञानैस्सह (सः) (नः) अस्मभ्यम् (भव) (शिवः) मङ्गलोपदेष्टा (त्वम्) (सुप्रतीकः) शोभनानि प्रतीकानि लक्षणानि यस्य सः (विभावसुः) येन विविधा भा विद्यादीप्तिर्वास्यते॥३१॥
भावार्थः
यो यथा विद्वद्भ्यो विद्यां सञ्चिनोति, तथैवान्यान् विद्यासञ्चितान् सम्पादयेत्॥३१॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वान् पुरुष को चाहिये कि अपने तुल्य अन्य मनुष्यों को विद्वान् करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन्! जिस (त्वा) आपको (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (चित्तिभिः) अच्छे विज्ञानों के साथ अग्नि के समान (उदुभरन्तु) पुष्ट करें (सः) जो (विभावसुः) जिससे विविध प्रकार की शोभा वा विद्या प्रकाशित हों, (सुप्रतीकः) सुन्दर लक्षणों से युक्त (त्वम्) आप (नः) हम लोगों के लिये (शिवः) मङ्गलमय वचनों के उपदेशक (भव) हूजिये॥३१॥
भावार्थ
जो मनुष्य जैसे विद्वानों से विद्या का सञ्चय करता है, वह वैसे दूसरों के लिये विद्या का प्रचार करे॥३१॥
विषय
ज्ञानी - प्रियदर्शन
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र की भावना के अनुसार मनुष्य अपने ज्ञान को निरन्तर बढ़ाए, नैर्मल्य की साधना करे, दान देकर यज्ञशेष को खाने की वृत्तिवाला बने।
२. इस वृत्तिवाला व्यक्ति ( उत् उ ) = निश्चय से विषय-वासनाओं से ऊपर उठता है [ उत् = out ]। यह विषय-वासना से ऊपर उठना ही वास्तविक तपस्या है, अतः मन्त्र का ऋषि ‘तापस’ नामवाला हो गया है।
३. ( अग्ने ) = हे आगे बढ़नेवाले! ( त्वा ) = तुझ तापस को ( विश्वे देवाः ) = सब देव ( चित्तिभिः ) = ज्ञानों से ( भरन्तु ) = भर दें। यह तापस ज्ञानियों के सम्पर्क में आता है। यह ज्ञानियों का सम्पर्क इसे अधिकाधिक ज्ञानी बनाता है। उनके सम्पर्क में इसकी बुद्धि विशिष्ट और विशिष्टतर होती चलती है।
५. ( सः ) = वह ( विभावसुः ) = ज्ञान-धनवाला ( सुप्रतीकः ) = शोभन मुखवाला या प्रियदर्शनवाला ( त्वम् ) = तू ( नः ) = हमारे लिए ( शिवः ) = कल्याण को प्राप्त करानेवाला ( भव ) = हो। यह तापस प्रजाओं में विचरता है। उन प्रजाओं के लिए अपने ज्ञान-धन को विकीर्ण करता है और इस ज्ञान का प्रसार यह अत्यन्त माधुर्य के साथ करता है—सबके लिए यह सुप्रतीक = प्रियदर्शन होता है। इसके मुख पर मानस शान्ति का प्रतिबिम्ब दृष्टिगोचर होता है।
भावार्थ
भावार्थ — एक परिव्राजक प्रचारक को तपस्वी, ज्ञानी व प्रियदर्शन होना चाहिए।
विषय
उसके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्ने ! विद्वान् ! राजन् ! (त्व) तुरुको ( विश्वे- देवाः ) समस्त विजयशील विद्वान् एवं दानशील पुरुष ( चित्तिभिः ) अपनी विद्यार्थी से और संचित शक्तियों से या बुद्धि पूर्वक किये कार्यों से ( उद् भरन्तु ) पूर्ण करें, उन्नत करें, तुझे बढ़ावें और ( सः ) वह तू ( नः ) हमारे लिये ( सुप्रतीकः ) सुरूप, शत्रु के प्रति उत्तमता से जाने में समर्थ, ( विभावसुः ) विशेष तेजस्वी, ऐश्वर्यवान्, अग्नि और सूर्य के समान दीप्तिमान्, ( शिव: ) कल्याणकारी ( भव ) हो ॥ शत० ६ । ८ । १ । ७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
तापस ऋषिः। अग्निर्देवता । विराडनुष्टुप् । गांधारः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जो माणूस विद्वानांकडून ज्या प्रकारची विद्या शिकतो तशा प्रकारची विद्या त्याने इतरांनाही शिकवावी.
विषय
विद्वान मनुष्याने आपल्याप्रमाणे अन्य मनुष्यांनाही विद्यावान करावे, याविषयी
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (गृहस्थजन म्हणतात) हे विद्वान, (त्वा) आपणाला (विश्वे) सर्व (देवा:) विद्वद्गण (चित्तिभि:) त्यांनी प्राप्त केलेले श्रेष्ठ ज्ञान देऊन (उदुभरन्तु) पुष्ट करोत (विद्वानांनी आपण मिळविलेले वा शोधलेले ज्ञान-विज्ञान एकमेकास द्यावे-घ्यावे) कशा प्रकारे? अग्नीप्रमाणे (जसे अग्नीमध्ये आहुती टाकतात व अग्नी तो सुंगध सर्वांना देतो) (स:) तो विद्वान आणि (विभावसु:) ज्यांमुळे विविध विषयांवरील ज्ञान व विद्या विकसित होते. आणि (सुप्रतिक:) सुलक्षणी असलेले (त्वम्) आपण (न:) आम्हा सामान्यजनांना (शिव:) मंगलमय उपदेश देणारे (भव) व्हा. ॥31॥
भावार्थ
भावार्थ - माणूस ज्याप्रकारे विद्वानांकडून विद्या प्राप्त करून ज्ञान-संचय करतो, त्याचप्रकारे त्याने इतरांकरितादेखील विद्या द्यावी (आणि समाजात ज्ञानाचा प्रचार-प्रसार करावा) ॥31॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, may all the sages nourish thee with their knowledge. Thou, rich in light of learning, and endowed with noble qualities, preach unto us elevating thoughts.
Meaning
Agni, of lovely forms of manifestation and lord of infinite light and wisdom, may all the noble and generous people of the world serve and celebrate you with the best of intention, devotion and acts of worship. May Agni, light of the universe, be good and kind to us all. (May the man of knowledge and wisdom be good and kind to us all as such persons are agni in human form. )
Translation
O fire divine, may all the enlightened ones uphold you with their sincere thoughts. O beautiful to look at, rich in brilliance, may you be gracious to us. (1)
बंगाली (1)
विषय
বিদ্বান্ স্বতুল্যানন্যান্ বিদুষঃ কুর্য়াৎ ॥
বিদ্বান্ পুরুষদের উচিত যে, স্বীয় সদ্শ অন্য মনুষ্যদিগকে বিদ্বান্ করিবে – এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্বান্ ! (ত্বা) আপনাকে (বিশ্বে) সব (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ (চিত্তিভিঃ) সম্যক্ বিজ্ঞান সহ অগ্নি সদৃশ (উদুভরন্তু) পুষ্টি করে (সঃ) সুতরাং (বিভাবসুঃ) যাহাতে বিবিধ প্রকারের শোভা অথবা বিদ্যা প্রকাশিত হয় (সুপ্রতীকঃ) সুন্দর লক্ষণ যুক্ত (ত্বম্) আপনি (নঃ) আমাদিগের জন্য (শিবঃ) মঙ্গলময় বচনের উপদেশক (ভব) হউন ॥ ৩১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য যেমন বিদ্বান্দিগের নিকট হইতে বিদ্যার সঞ্চয় করে সে সেইরূপ অপরের জন্য বিদ্যার প্রচার করিবে ॥ ৩১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উদু॑ ত্বা॒ বিশ্বে॑ দে॒বাऽঅগ্নে॒ ভর॑ন্তু॒ চিত্তি॑ভিঃ ।
স নো॑ ভব শি॒বস্ত্বꣳ সু॒প্রতী॑কো বি॒ভাব॑সুঃ ॥ ৩১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উদু ত্বেত্যস্য তাপস ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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