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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 44
    ऋषिः - सोमाहुतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    124

    पुन॑स्त्वादि॒त्या रु॒द्रा वस॑वः॒ समि॑न्धतां॒ पुन॑र्ब्र॒ह्माणो॑ वसुनीथ य॒ज्ञैः। घृ॒तेन॒ त्वं त॒न्वं वर्धयस्व स॒त्याः स॑न्तु॒ यज॑मानस्य॒ कामाः॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॒रिति॒ पुनः॑। त्वा॒। आ॒दि॒त्याः। रु॒द्राः। वस॑वः। सम्। इ॒न्ध॒ता॒म्। पुनः॑। ब्र॒ह्माणः॑। व॒सु॒नी॒थेति॑ वसुऽनीथ। य॒ज्ञैः। घृ॒तेन॑। त्वम्। त॒न्व᳖म्। व॒र्ध॒य॒स्व॒। स॒त्याः। स॒न्तु। यज॑मानस्य। कामाः॑ ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसवः समिन्धतान्पुनर्ब्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः । घृतेन त्वँतन्वँवर्धयस्व सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनरिति पुनः। त्वा। आदित्याः। रुद्राः। वसवः। सम्। इन्धताम्। पुनः। ब्रह्माणः। वसुनीथेति वसुऽनीथ। यज्ञैः। घृतेन। त्वम्। तन्वम्। वर्धयस्व। सत्याः। सन्तुः। यजमानस्य। कामाः॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 44
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    कीदृशा मनुष्याः सत्यसङ्कल्पा भवन्तीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे वसुनीथ त्वं यज्ञैर्घृतेन च तन्वं शरीरं नित्यं वर्धयस्व, पुनस्त्वा त्वामादित्या रुद्रा वसवो ब्रह्माणाः समिन्धताम्। एवमनुष्ठानाद् यजमानस्य कामाः सत्याः सन्तु॥४४॥

    पदार्थः

    (पुनः) अध्ययनाध्यापनाभ्यां पश्चात् (त्वा) त्वाम् (आदित्याः) पूर्णविद्याबलयुक्ताः (रुद्राः) मध्यस्थाः (वसवः) प्रथमे च विद्वांसः (सम्) (इन्धताम्) प्रकाशयन्तु (पुनः) (ब्रह्माणाः) चतुर्वेदाध्ययनेन ब्रह्मा इति संज्ञां प्राप्ताः (वसुनीथ) वेदादिशास्त्रबोधाख्यं सुवर्णादिधनं न च यो नयति तत्सम्बुद्धौ (यज्ञैः) अध्ययनाध्यापनादि-क्रियामयैः (घृतेन) सुसंस्कृतेनाज्यादिना जलेन वा (त्वम्) अध्यापकः श्रोता वा (तन्वम्) शरीरम् (वर्धयस्व) (सत्याः) सत्सु धर्मेषु साधवः (सन्तु) भवन्तु (यजमानस्य) यष्टुं सङ्गन्तुं विदुषः पूजितुं च शीलं यस्य तस्य (कामाः) अभिलाषाः। [अयं मन्त्रः शत॰६.६.४.१२ व्याख्यातः]॥४४॥

    भावार्थः

    ये प्रयत्नेन सर्वा विद्या अधीत्याध्याप्य च पुनः पुनः सत्सङ्गं कुर्वन्ति, कुपथ्यविषयत्यागेन शरीरात्मनोरारोग्यं वर्धयित्वा नित्यं पुरुषार्थमनुतिष्ठन्ति, तेषामेव संकल्पाः सत्याः भवन्ति, नेतरेषाम्॥४४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    कैसे मनुष्यों के संकल्प सिद्ध होते हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (वसुनीथ) वेदादि शास्त्रों के बोधरूप और सुवर्णादि धन प्राप्त कराने वाले (त्वम्) आप (यज्ञैः) पढ़ने-पढ़ाने आदि क्रियारूप यज्ञों और (घृतेन) अच्छे संस्कार किये हुए घी आदि वा जल से (तन्वम्) शरीर को नित्य (वर्धयस्व) बढ़ाइये। (पुनः) पढ़ने-पढ़ाने के पीछे (त्वा) आप को (आदित्याः) पूर्ण विद्या के बल से युक्त (रुद्राः) मध्यस्थ विद्वान् और (वसवः) प्रथम विद्वान् लोग (ब्रह्माणः) चार वेदों को पढ़ के ब्रह्मा की पदवी को प्राप्त हुए विद्वान् (समिन्धताम्) सम्यक् प्रकाशित करें। इस प्रकार के अनुष्ठान से (यजमानस्य) यज्ञ, सत्सङ्ग और विद्वानों का सत्कार करने वाले पुरुष की (कामाः) कामना (सत्याः) सत्य (सन्तु) होवें॥४४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य प्रयत्न के साथ सब विद्याओं को पढ़ के और पढ़ा के बारंबार सत्सङ्ग करते हैं, कुपथ्य और विषय के त्याग से शरीर तथा आत्मा के आरोग्य बढ़ा के नित्य पुरुषार्थ का अनुष्ठान करते हैं, उन्ही के संकल्प सत्य होते हैं, दूसरों के नहीं॥४४॥

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    विषय

    सत्य-कामना

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार ‘सोमाहुति’ ज्ञानी बना है। ज्ञान ही उसका धन है। इस ज्ञानरूप धन को वह प्रजा में बाँटता है, उसके ज्ञान का स्रोत सूखे नहीं, अतः वह सदा ज्ञानियों के सम्पर्क में रहता है। मन्त्र में कहते है कि ( त्वा ) = तुझे ( आदित्याः ) = ब्रह्मज्योति का आदान करनेवाले ( रुद्राः ) = ब्रह्म के नाम के जप व ध्यान से वासनाओं पर आक्रमण करनेवाले [ रोरूयमाणो द्रवति ] ( वसवः ) = नियमित जीवन से अपने निवास को उत्तम बनानेवाले ज्ञानी लोग ( पुनः समिन्धताम् ) = फिर-फिर ज्ञान से समिद्ध करनेवाले हों। इनके सम्पर्क में आने से तेरी ज्ञान-ज्योति सदा बढ़ती रहे। ( वसुनीथ ) = हे ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करानेवाले विद्वन्! ( ब्रह्माणः ) = ब्रह्मवेत्ता लोग ( यज्ञैः ) = यज्ञों से—अपने सम्पर्कों से तुझे समिद्ध व दीप्त बना डालें, अथवा यज्ञों के द्वारा तेरे जीवन को उज्ज्वल बना दें। ३. ( घृतेन ) = घृत के द्वारा ( त्वम् ) = तू ( तन्वम् ) = अपने शरीर को ( वर्धयस्व ) = बढ़ा। ‘घृ क्षरणदीप्त्योः’ नैर्मल्य व दीप्ति का यह घृत तेरे शरीर में लगेगा। ‘घृतमायुः’ इस वाक्य के अनुसार घृत का ठीक प्रयोग दीर्घजीवन का कारण है। ३. ( यजमानस्य ) = यज्ञ के स्वभाववाले तेरी ( कामाः ) = कामनाएँ ( सत्याः सन्तु ) = सत्य हों, अर्थात् तेरी इच्छाएँ असत्य न हों। तू सदा शुभ कामनाओं का करनेवाला हो। वस्तुतः यज्ञशील पुरुष की सब इच्छाएँ पूर्ण होती हैं, अतः ( सत्याः ) = तेरी इच्छाएँ सत्य हों, अर्थात् पूर्ण हों।

    भावार्थ

    भावार्थ — १. ज्ञानीपुरुष ज्ञानियों के सम्पर्क में आकर अपने ज्ञान को सदा बढ़ाये, २. घृत आदि सात्त्विक वस्तुओं के प्रयोग से अपने शरीर व जीवन की वृद्धि करनेवाला हो तथा ३. यह कभी असत्य कामनाओं को करनेवाला न हो।

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    विषय

    विद्वानों का पुनः शक्ति उत्तेजन ।

    भावार्थ

    ( आदित्याः ) आदित्य के समान विद्वान् ( रुद्राः ) रुद्र ब्रह्मचारी, वसव : ) वसु ब्रह्मचारी ( त्वाम् ) तुझको ( पुनः समिन्ध- ताम् ) वार २ प्रदीप्त करें। ( ब्रह्मण ), वेद के विद्वान् लोग ( यज्ञैः ) यज्ञों या सत्संगों द्वारा है ( वसुनीथ ) ऐश्वर्य के प्राप्त करानेहारे ! ( पुनः सम् इन्धताम् ) वार २ तुझे प्रदीप्त करें, पुनः ज्ञानवान करें । और ( त्वम् ) व् ( घृतेन ) घी से अग्नि के समान पुष्टिकारक पदार्थ से अपने ( तन्वं ) शरीर को ( वर्धयस्व ) पुष्ट कर। ( यजमानस्य ) दानशील या संगति करनेहारे पुरुष के ( कामाः ) समस्त संकरूप, समस्त आशाएं ( सत्याः सन्तु ) सत्य हों॥

    टिप्पणी

    'कामास्स्वाहा' इतिकाण्व० ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जी माणसे प्रयत्नपूर्वक सर्व विद्यांचे अध्ययन व अध्यापन करून वारंवार सत्संग करतात. कुपथ्य व विषय यांचा त्याग करून शरीर व आत्मा यांचे रोग दूर करून सदैव पुरुषार्थ करतात, त्यांचेच संकल्प खरे होतात, इतरांचे होत नाहीत.

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    विषय

    कोणत्या प्रकारच्या लोकांच्या मनातील संकल्प सिद्धीस जातात, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (वसुनीय) वेदादी शास्त्रांचे ज्ञान आणि सुवर्ण आदी धन प्राप्त करून देणारे आपण (यज्ञै:) अध्ययन, अध्यापन क्रिया, आचरण आदी यज्ञाने आणि (घृतेन) शुद्ध संस्कारित घृत आदी पौष्टिक पदार्थ आणि जल यांद्वारे (तन्वम्‌) आपल्या शरीराला (नित्य) वर्धस्व वाढवा (पुष्ट व नीरोग करा) (पुन:) अध्ययन - अध्यापन संपल्यानंतर (त्वा) आपणाला (आदित्या:) पूर्ण विद्या व शक्तीने संपन्न अशा (रुद्रा:) मध्यास्थ विद्वान (समाजातील मध्यम कोठीचे विद्वान) आणि (वसव:) प्रथम (वा उच्च कोटीचे अनुभवी) विद्वान तसेच (ब्रह्माण:) चार वेदांचे अध्ययन करून ब्रह्मा पदवी प्राप्त केलेले श्रेष्ठ विद्वान आपणाला (समिन्धताम्‌) सम्यकरीत्या प्रकाशित वा अधिक विद्यावान करोत (यज्ञ, पुष्ट शरीर गुरुकुलातील अध्ययन संपल्यानंतर समाजातील साधारण, मध्यम आणि उच्च कोटीच्या विद्वानांनी सत्संगाने तुम्ही अधिक अनुभवसंपन्न व मानी व्हावे) याप्रकारे अनुष्ठान करून (यजमानस्य) यज्ञ, सत्संग आणि विद्वानांचा सत्कार करणाऱ्या मनुष्याच्या (कामा:) कामना (सत्या:) सत्य (सन्तु) व्हाव्यात. (मी याज्ञिक पुरोहित यजमानाविषयी अशी कामना व्यक्त करतो) ॥44॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जी माणसें प्रयत्नपूर्वक सर्व विद्या अवगत करून आणि इतरांना देऊन वारंवार सज्जन-संगतीत राहतात, तसेच कुपथ्य आणि विषय-वासनांचा त्याग करून देह आणि आत्म्याचे रोग, दोष दूर करून नित्य पुरुषार्थ करतात, त्यांचेच संकल्प पूर्ण होतात (इतरांचे नव्हे) ॥44॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O imparter of vedic knowledge and wealth, in the company of the learned, may thou improve thy body with butter. After the completion of study, let the Adityas, Rudras, Vasus and Brahmas, make thee renowned. Let the sacrificers wishes be fulfilled.

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    Meaning

    Agni, creator and giver of wealth and honour, may the brahmacharis and scholars of the Vasu, Rudra and Aditya order light you up in the vedi again and again. May the devotees of the lord of existence and masters of the science of yajna promote your gifts with the performance of yajna. Agni, power of light and life, grow on in your operations with the oblations of ghee and fragrant materials so that the plans and ambitions of the yajamana be fulfilled.

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    Translation

    O fire divine, may the mature, adult and young sages rekindle you, and so also, O bestower of wealth, the priests at the sacrifices. May you swell your form with melted butter. May the wishes of the sacrificer come out true. (1)

    Notes

    Satyah santu yajamanasya kamah, may the sacrificer's desires, with which he is performing this sacrifice, be fulfilled.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কীদৃশা মনুষ্যাঃ সত্যসঙ্কল্পা ভবন্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
    কী করিয়া মনুষ্যদিগের সঙ্কল্প সিদ্ধ হয় এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (বসুনীথ) বেদাদি শাস্ত্রের বোধরূপ এবং সুবর্ণাদি ধন প্রাপ্ত করাইবার (ত্বম্) আপনি (য়জ্ঞৈঃ) পঠন-পাঠনাদি ক্রিয়ারূপ যজ্ঞ এবং সুসংস্কার কৃত ঘৃতাদি অথবা জল দ্বারা (তন্বম্) শরীরকে নিত্য (বর্ধয়স্ব) বৃদ্ধি প্রাপ্ত করান (পুনঃ) পঠন-পাঠনের পশ্চাতে (ত্বা) আপনাকে (আদিত্যাঃ) পূর্ণ বিদ্যার বল যুক্ত (রুদ্রাঃ) মধ্যস্থ বিদ্বান্ এবং (বসবঃ) প্রথম বিদ্বান্গণ (ব্রহ্মাণঃ) চারি বেদ পড়িয়া ব্রহ্মা পদবী প্রাপ্ত বিদ্বান্ (সমিন্ধতাম্) সম্যক্ প্রকাশিত করুন । এই প্রকার অনুষ্ঠান দ্বারা (য়জমানস্য) যজ্ঞ, সৎসঙ্গ ও বিদ্বান্দিগের সৎকারকারী পুরুষের (কামাঃ) কামনা (সত্যাঃ) সত্য (সন্তু) হউক ॥ ৪৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য প্রচেষ্টা সহ সকল বিদ্যা পঠন-পাঠন করিয়া বারংবার সৎসঙ্গ করে, কুপথ্য ও বিষয় ত্যাগপূর্বক শরীর তথা আত্মার রোগ দূরীভূত করিয়া নিত্য পুরুষার্থের অনুষ্ঠান করে তাহারই সংকল্প সত্য হয় অন্যের নহে ॥ ৪৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পুন॑স্ত্বাऽऽদি॒ত্যা রু॒দ্রা বস॑বঃ॒ সমি॑ন্ধতাং॒ পুন॑র্ব্র॒হ্মাণো॑ বসুনীথ য়॒জ্ঞৈঃ ।
    ঘৃ॒তেন॒ ত্বং ত॒ন্বং᳖ বর্ধয়স্ব স॒ত্যাঃ স॑ন্তু॒ য়জ॑মানস্য॒ কামাঃ॑ ॥ ৪৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পুনস্ত্বেত্যস্য সোমাহুতির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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