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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 75
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्यो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    107

    या ओष॑धीः॒ पूर्वा॑ जा॒ता दे॒वेभ्य॑स्त्रियु॒गं पु॒रा। मनै॒ नु ब॒भ्रूणा॑म॒हꣳ श॒तं धामा॑नि स॒प्त च॑॥७५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः। ओष॑धीः। पूर्वाः॑। जा॒ताः। दे॒वेभ्यः॑। त्रि॒यु॒गमिति॑ त्रिऽयु॒गम्। पु॒रा। मनै॑। नु। ब॒भ्रूणा॑म्। अ॒हम्। श॒तम्। धामा॑नि। स॒प्त। च॒ ॥७५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याऽओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रियुगम्पुरा । मनै नु बभ्रूणामहँ शतन्धामानि सप्त च॥


    स्वर रहित पद पाठ

    याः। ओषधीः। पूर्वाः। जाताः। देवेभ्यः। त्रियुगमिति त्रिऽयुगम्। पुरा। मनै। नु। बभ्रूणाम्। अहम्। शतम्। धामानि। सप्त। च॥७५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 75
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैरवश्यमौषधसेवनं कृत्वारोगैर्वर्तितव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    अहं या ओषधीर्देवेभ्यस्त्रियुगं पुरा पूर्वा जाता, या बभ्रूणां शतं सप्त च धामानि मर्माणि व्याप्नुवन्ति, ता नु मनै शीघ्रं जानीयाम्॥७५॥

    पदार्थः

    (याः) (ओषधीः) सोमाद्याः (पूर्वाः) (जाताः) प्रसिद्धाः (देवेभ्यः) पृथिव्यादिभ्यः (त्रियुगम्) वर्षत्रयम् (पुरा) (मनै) मन्यै, अत्र विकरणव्यत्ययेन शप् (नु) शीघ्रम् (बभ्रूणाम्) भरणानां धारकाणां रोगिणाम् (अहम्) (शतम्) अनेकानि (धामानि) मर्मस्थानानि (सप्त) (च)॥७५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्याः पृथिव्यामप्सु चौषधयो जायन्ते, गतत्रिवर्षा भवेयुस्ताः सङ्गृह्य यथावैद्यकाशास्त्रविधि संसेव्याः, ता भुक्ताः सत्यः सर्वाणि मर्माण्यभिव्याप्य रोगान्निवार्य शरीरसुखानि सद्यो जनयन्ति॥७५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्यों को अवश्य ओषधि सेवन कर रोगों से बचना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    (अहम्) मैं (याः) जो (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधी (देवेभ्यः) पृथिवी आदि से (त्रियुगम्) तीन वर्ष (पुरा) पहिले (पूर्वाः) पूर्ण सुख दान में उत्तम (जाताः) प्रसिद्ध हुई, जो (बभ्रूणाम्) धारण करने हारे रोगियों के (शतम्) सौ (च) और (सप्त) सात (धामानि) जन्म वा नाडि़यों के मर्मों में व्याप्त होती हैं, उन को (नु) शीघ्र (मनै) जानूं॥७५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि जो पृथिवी और जल में ओषधी उत्पन्न होती हैं, उन तीन वर्ष के पीछे ठीक-ठीक पकी हुई को ग्रहण कर वैद्यकशास्त्र के अनुकूल विधान से सेवन करें। सेवन की हुई वे ओषधी शरीर के सब अंशों में व्याप्त हो के शरीर के रोगों को छुड़ा सुखों को शीघ्र करती हैं॥७५॥

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    विषय

    ओषधियों के १०७ धाम । पक्षान्तर में ममों का ज्ञान ।

    भावार्थ

    ओषधि विज्ञान ( याः ) जो ( औषधीः) ओषधियें ( देवेभ्यः ) दिव्यगुण के पदार्थ पृथिवी जल आदि से, या ऋतुओं के अनुसार ( पुरा ) पहले ( त्रियुगम् ) तीन वर्ष पहले तक को या वर्षा, ग्रीष्म, शरद तीनों कालों में ( पूर्वाः जाताः ) पहले से उत्पन्न होती हैं उन (बभ्रणाम् ) परिपाक होजाने से बभ्रु भूरे रंग की, पीली हुई हुई उन ओषधियों के (शतं) सौ और ( सप्त च ) सात अर्थात् १०७ प्रकार के ( धामानि ) धारण सामर्थ्यो से पालन पोषण के बलों को ( नु ) मैं ( मने ) मनन करूं, जानूं । अथवा - ( बभ्रणां ) पुष्टिकारक उन औषधियों के १०७ वीर्यों को जानूं । अथवा - ( शतं सप्त च धामानि बभ्रूणां ओषधीनां मनै ) १०७ शरीर के मर्मस्थानों को पुष्ट करनेवाली औषधियों का ज्ञान करूं । अथवा ( बभ्रूणां ) भरण पोषण योग्य रोगियों के १०७ मर्म स्थानों में प्रभावजनक व्याप्त ओषधियों का ज्ञान करूं ॥ शत ७ । २ । ४ । २६ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आथर्वणो भिषगृषिः । ओषधिस्तुतिः । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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    विषय

    शतं सप्त च त्रियुगं पुरा

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्रों में कृषि का उल्लेख था। अब उस कृषि में उत्पन्न की जानेवाली ओषधियों का उल्लेख करते हैं। (या:) = जो (पूर्वा:) = [ पृ पालनपूरणयोः] पालन व पूरण करनेवाली (ओषधी:) = ओषधियाँ (जाता:) = उत्पन्न हुई हैं, ये ओषधियाँ (देवेभ्यः) = उस-उस ऋतु में प्रयोग करने के लिए हैं [ऋतवो वै देवाः- श० ७।२।४।२६ ] । भिन्न-भिन्न ऋतुओं में इनका भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रयोग होता है। २. (त्रियुगे) = [ त्रयाणां युगानां समाहारः त्रियुगम् ] ये ओषधियाँ तीन युगों में, तीन कालों में 'वसन्त, वर्षा व शरद्' में प्रयोज्य हैं। ३. परन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि (पुरा) = उस ऋतु के प्रारम्भ से कुछ पहले ही इनका प्रयोग किया जाए। वसन्त में कफ़ का प्रकोप होता है, अतः वसन्त से कुछ पहले कफ़नाशक ओषधियों का प्रयोग करना चाहिए। वर्षा में वातविकारों की आशंका है, अतः वातविनाशक ओषधियाँ प्रयोग में लानी चाहिएँ और शरद् पित्त-विकार का समय है, अतः पित्तशमन की ओषधियाँ लेनी आवश्यक हैं। उस ऋतु से कुछ पूर्व (पुरा) उस ओषधि के लेने पर हम सब विकारों से बचे रहेंगे। ४. इस ठीक प्रयोग के लिए (अहम्) = में (बभ्रूणाम्) = लोकपालन की क्षमता रखनेवाली इन ओषधियों का (मनै नु) = निश्चय से मनन करता हूँ। इनका विचार करके ही तो इनका ठीक प्रयोग कर पाऊँगा । ५. (शतं धामानि) = मैं इनके सौ धामों का मनन करता हूँ। यहाँ आयु का एक-एक वर्ष ओषधि का एक-एक स्थान है। अभिप्राय यह है कि मैं आयु का विचार करके औषध देता हूँ। बालक, युवक व वृद्ध को औषध मात्रा अलग-अलग ही दी जाएगी। (सप्त च) = मैं इनके सात धामों का भी विचार करता हूँ। [य एवेमे सप्त शीर्षन् प्राणास्तानेतदाह-श० ७।२।४।२६] इस शतपथ वाक्य से दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँख व एक मुख-ये ही सात धाम हैं । औषध प्रयोग में यह भी ध्यान करना आवश्यक है कि औषध कान में डाली जा रही है या आँख में, जितनी कान में डाली जा सकती है उतनी आँख में नहीं। '

    भावार्थ

    भावार्थ-ओषधियाँ हमारी कमियों का फिर से पूरण करनेवाली हैं। ये वसन्त,वर्षा व शरद् से कुछ पहले प्रयोग में लानी चाहिएँ। उम्र व अङ्ग का ध्यान करके ही इनका प्रयोग करना लाभकर है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    पृथ्वीवर व जलामध्ये जी औषधी तयार होते ती तीन वर्षांपूर्वीची परिपक्व झालेली असावी. माणसांनी वैद्यक शास्राप्रमाणे ती सेवन करावी. अशी औषधी सर्व अंगांगात भिनून तत्काळ रोग नाहीसे करून सुखी करते.

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    विषय

    मनुष्यांनी रोगी झाल्यास वा रोगापासून वाचण्यासाठी औषधीचे सेवन अवश्‍य करावे, पुढील मंत्रात याविषयी प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (वैद्यराज म्हणत आहेत) (या:) ज्या (औषधी:) सोमलता आदी औषधी (देवभ्य:) पृथ्वी (वृक्ष, वनस्पती, लता, आदी) पासून त्रियुगम्‌) तीन वर्ष (पुरा) (पूर्वी:) पूर्ण सुख वा लाभ देण्यात उत्तम (अशा (जाता:) (प्रसिद्ध आहेत. अशा औषधी (बभ्रूणाम्‌) घेणाऱ्या रोग्यांच्या (शतम्‌) शंभर (च) आणि (सप्त) सात (धर्मान) म्हणजे शरीरातील 107 मर्मस्थानांपर्यंत जातात (आणि रोग्याला बरे करतात) (अहम्‌) मी वैद्य अशा गुणकारी औषधींना (नु) शीघ्र (मनै) जाणावे (अशा औषधांचा त्वरित शोध लावून सर्व मनुष्यांना रोगरहित करावे) ॥75॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांकरिता उचित आहे की त्यांनी प्रथम पृथ्वी आणि जल यामध्ये उत्पन्न होणाऱ्या औषधीनां प्राप्त करावे. नंतर त्या औषधीनां तीन वर्षापर्यंत योग्य प्रमाणात पक्व होऊ द्यावे आणि वैद्यकशास्त्रात सांगितल्याप्रमाणे त्यांचे सेवन करावे. अशा योग्य नियम-विद्यानादीप्रमाणे सेवन केलेल्या औषधी शरीरातील सर्व भागात व्याप्त होतात आणि शरीरातील रोग नष्ट करून मनुष्याला सुखी करतात ॥75॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May I know the herbs that were born three years ago in the earth, that pervade all the 107 vital parts of the body of the patients.

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    Meaning

    Earlier, three years before in the three seasons, whatever herbs such as soma etc. grew out of the earth with other natural powers such as water, air and sunlight, I should know: the hundred and seven varieties of these brown ones for the treatment of hundred and seven ailments which affect hundred and seven vital spots in the body.

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    Translation

    I know one hundred and seven habitats of the herbs, which have sprung up three ages earlier than the enligntened men and which can sustain the people of the world. (1)

    Notes

    According to the ritualists, the sacrificer pours fifteen jars of water in the held around the altar and sows the seeds of various plants and herbs. Triyugam pura, three ages earlier, three periods earlier. Or previously; in all the three ages, i. e. past, present and future; in all the times. Or, three periods of Vasanta, Varsa and Sarad, the sowing seasons. Manai, मन्ये जानामि, I know. Babhrinam, भरणसमर्थानां, of those that are capable of supporting or sustaining. Also, वभ्रुवर्णानां, of brown-coloured (due to ripening). Osadhih, annual plants in general and medicinal plants in particular. Satain dhàmüni sapta ca, hundred and seven places, which may mean so many habitats of herbs. This particular number may not have any significance, and just denote numerous habitats. But Uvata and Mahidhara have interpreted it as hundred years of Ше of a man plus mouth, two nostrils, two eyes and two ears. According to Dayiinanda, there are one hundred and seven im- portant points in а human body, which can be influenced by these medicinal plants.

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    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যৈরবশ্যমৌষধসেবনং কৃত্বারোগৈর্বর্তিতব্যমিত্যাহ ॥
    মনুষ্যদিগের অবশ্য ওষধি সেবন করিয়া রোগ হইতে মুক্ত থাকা দরকার । এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ (অহম্) আমি (য়াঃ) যে (ওষধীঃ) সোমলতাদি ওষধি (দেবেভ্যঃ) পৃথিবী আদি হইতে (ত্রিয়ুগম্) তিন বৎসর (পুরা) প্রথমে (পূর্বাঃ) পূর্ণ সুখ দানে উত্তম (জাতাঃ) উৎপন্ন হইয়াছিল যাহা (বভ্রূনাম্) ধারণকারী রোগীদের (শতম্) শত (চ) এবং (সপ্ত) সাত (ধামানি) জন্ম বা নাড়িগুলির মর্মে ব্যাপ্ত হয় উহাদেরকে (নু) শীঘ্র (মনৈ) জানিব ॥ ৭৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, পৃথিবী ও জলে যে ওষধী উৎপন্ন হয়, উহা তিন বর্ষ পশ্চাৎ ঠিক ঠিক পক্ব গ্রহণ করিয়া বৈদ্যক শাস্ত্রানুকূল সেবন করিবে । সেবনীকৃত ওষধি শরীরের সকল অংশে ব্যাপ্ত হইয়া শরীরকে রোগমুক্ত করিয়া সদ্য সুখ প্রাপ্ত করায় ॥ ৭৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়া ওষ॑ধীঃ॒ পূর্বা॑ জা॒তা দে॒বেভ্য॑স্ত্রিয়ু॒গং পু॒রা ।
    মনৈ॒ নু ব॒ভ্রূণা॑ম॒হꣳ শ॒তং ধামা॑নি স॒প্ত চ॑ ॥ ৭৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়া ওষধীরিত্যস্য ভিষগৃষিঃ । বৈদ্যো দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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