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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 109
ऋषिः - पाकाग्निर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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इ॒र॒ज्यन्न॑ग्ने प्रथयस्व ज॒न्तुभि॑र॒स्मे रायो॑ऽअमर्त्य। स द॑र्श॒तस्य॒ वपु॑षो॒ वि रा॑जसि पृ॒णक्षि॑ सान॒सिं क्रतु॑म्॥१०९॥
स्वर सहित पद पाठइ॒र॒ज्यन्। अ॒ग्ने॒। प्र॒थ॒य॒स्व॒। ज॒न्तुभि॒रिति॑ ज॒न्तुऽभिः॑। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। रायः॑। अ॒म॒र्त्य॒। सः। द॒र्श॒तस्य॑। वपु॑षः। वि। रा॒ज॒सि॒। पृ॒णक्षि॑। सा॒न॒सिम्। क्रतु॑म् ॥१०९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इरज्यन्नग्ने प्रथयस्व जन्तुभिरस्मे रायोऽअमर्त्य । स दर्शतस्य वपुषो वि राजसि पृणक्षि सानसिङ्क्रतुम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
इरज्यन्। अग्ने। प्रथयस्व। जन्तुभिरिति जन्तुऽभिः। अस्मेऽइत्यस्मे। रायः। अमर्त्य। सः। दर्शतस्य। वपुषः। वि। राजसि। पृणक्षि। सानसिम्। क्रतुम्॥१०९॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यः कीदृशो भवेदित्याह॥
अन्वयः
हे अमर्त्याग्ने! य इरज्यंस्त्वं दर्शतस्य वपुषः सानसिं क्रतुं पृणक्षि, तत्रैव विराजसि, सोऽस्मे जन्तुभी रायः प्रथयस्व॥१०९॥
पदार्थः
(इरज्यन्) ऐश्वर्य्यं कुर्वन्, इरज्यतीति ऐश्वर्य्यकर्मसु पठितम्॥ (निघं॰२.२१) (अग्ने) अग्निवत् प्राप्तपुरुषार्थ (प्रथयस्व) विस्तारय (जन्तुभिः) मनुष्यादिभिः (अस्मे) अस्मभ्यम् (रायः) श्रियः (अमर्त्य) नाशप्राकृतमनुष्यस्वभावरहित (सः) (दर्शतस्य) द्रष्टुं योग्यस्य (वपुषः) रूपस्य, वपुरिति रूपनामसु पठितम्॥ (निघं॰३.७) (वि) (राजसि) (पृणक्षि) सम्बध्नासि (सानसिम्) सनातनीम् (क्रतुम्) प्रज्ञाम्। [अयं मन्त्रः शत॰७.३.१.३२ व्याख्यातः]॥१०९॥
भावार्थः
यो मनुष्येभ्यः सनातनीं वेदविद्यां ददाति, सुरूपाचारे विराजते, स एवैश्वर्य्यं लब्ध्वाऽन्येभ्यः प्रापयितुं शक्नोति॥१०९॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्य कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अमर्त्य) नाश और संसारी मनुष्यों के स्वभाव से रहित (अग्ने) अग्नि के समान पुरुषार्थी! जो (इरज्यन्) ऐश्वर्य्य का सञ्चय करते हुए आप (दर्शतस्य) देखने योग्य (वपुषः) रूप का (सानसिम्) सनातन (क्रतुम्) बुद्धि का (पृणक्षि) सम्बन्ध करते हो और उसी बुद्धि में विशेष करके (विराजसि) शोभित होते हो, (सः) सो आप (अस्मे) हम लोगों के लिये (जन्तुभिः) मनुष्यादि प्राणियों से (रायः) धनों का (प्रथयस्व) विस्तार कीजिये॥१०९॥
भावार्थ
जो पुरुष मनुष्यों के लिये सनातन वेदविद्या को देता और सुन्दर आचार में विराजमान होता है, वही ऐश्वर्य्य को प्राप्त हो के दूसरों के लिये प्राप्त करा सकता है॥१०९॥
विषय
प्रजा की पशु सम्पदा से वृद्धि ।
भावार्थ
हे राजन् ! ( सः ) वह तू ( दर्शतस्य वपुषः ) दर्शनीय शरीर से ( विराजति ) विशेष दीप्ति से चमकता है ( सानसिम् ) सना- तन से चली आई, चिरकाल से प्राप्त (क्रतुम् ) प्रज्ञा और शक्ति को ( पृणक्षि ) पूर्ण किये रहता है। और हे ( अग्ने ) अग्ने, प्रतापवन् ! विद्वन् ! तू ( इरज्यत् ) ऐश्वर्यवान् होता हुआ हे ( अमर्त्य ) नाशवान् साधारण मनुष्यों से भिन्न विशेष पुरुष ! तू ( जन्तुभिः ) आदि जन्तुओं से ( अस्मै ) हमारे उपकार के लिये (रायः ) धन ऐवों को ( प्रथयस्व ) बढ़ा || शत० ७ । ३ । १ । ३२ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋष्यादि पूर्ववत् ॥
विषय
सानसि ऋतु
पदार्थ
१. प्रभु 'पावकाग्नि' से कहते हैं कि [क] (इरज्यन्) = [ इरज्यति ऐश्वर्यकर्मा-नि० २।२१] ऐश्वर्यवाला होता हुआ, अर्थात् सब इन्द्रियों, मन व बुद्धि का ईश्वर बनता हुआ, इनकी दासता से ऊपर उठता हुआ, अतएव [ख] (अमर्त्य) = विषयों के पीछे न मरनेवाले और [ग] अग्ने प्रगतिशील जीव ! तू (अस्मे रायः) = हमारे इन धनों को (जन्तुभिः) = गौ इत्यादि पशुओं से (प्रथयस्व) = विस्तृत करनेवाला हो। गौ इत्यादि के पालन से मनुष्य अपने ऐश्वर्य की वृद्धि कर पाता है। गोशालास्थापन ' डेरीफार्म' स्वयं एक उत्तम व्यापार है। इन प्राप्त धनों को तू (जन्तुभिः) = प्राणियों के हेतु से (प्रथयस्व) = विस्तृत कर, अर्थात् प्राणियों के हित के लिए तू इनका विनियोग कर। यह अर्जित धन विषय-भोग जुटाने का साधन न हो जाए। २. यदि तू ऐसा कर पाता है तो (सः) = वह तू (दर्शतस्य वपुषः विराजसि) = दर्शनीय शरीर का राजा बनता है - तू बड़े उत्तम शरीरवाला होता है और ३. उस शरीर में तू (सानसिम्) = [षण सम्भक्तौ] सम्भजन - उपासन से युक्त (क्रतुम्) = प्रज्ञान व कर्म को (पृणक्षि) = [ पूरयसि ] पूरित करता है, अर्थात् अपने सुन्दर शरीर से तू उपासना करनेवाला होता है- तेरी यह उपासना प्रज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों से होती है। वस्तुतः सौन्दर्य इसी बात पर तो निर्भर है कि वहाँ 'उपासना, प्रज्ञान व कर्म' तीनों का समन्वय हो पाया है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने ईश्वर हों। प्राणिहित के उद्देश्य से धनों का विनियोग करें। हमारे शरीर सुन्दर हों। उनमें 'उपासना, प्रज्ञान व कर्म' का समुच्चय हो।
मराठी (2)
भावार्थ
जो पुरुष मानवांसाठी सनातन वेदविद्या देतो व उत्तम आचरणयुक्त असतो तोच ऐश्वर्य प्राप्त करून दुसऱ्यांनाही ऐश्वर्य प्राप्त करून देऊ शकतो.
विषय
माणूस कसा असावा, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (सामाजिकजन ऐश्वर्यशाली परोपकारी श्रींमत व्यक्तीला संबोधून म्हणत आहेत) हे (अमर्त्य) संसारी मनुष्यांप्रमाणे तुम्ही नाश आणि हानीपासून विलग आहात (अग्ने) अग्नीप्रमाणे पुरुषार्थी आहात. (इरज्यन्) ऐश्वर्याचा संचय करीत करीत आपण (दर्शतस्य) प्रेक्षणीय (वपुष:) शरीर व रुप धारण करीत आहात. (सानसिम्) सनातन (क्रतुम्) ज्ञानाशीही (पृणक्षि) आपला संबंध आहे. (ऐश्वर्य, सौंदर्य आणि ज्ञान, या तीनही गुणांनी आपण समृद्ध आहात) आणि याच परोपकारवृत्तीमुळे तुम्ही विशेषत्वाने (विराजसि) सुशोभित आहात. असे गुणवान (स:) ते आपण (अस्मे) आम्हासाठी (जन्तुभि:) सर्व मनुष्यासाठी (राय:) धन-समृद्धीचा (प्रथमच) विस्तार विकास करा (पुरुषार्थाने धनसंपत्ती वाढवा आणि लोकोपकारासाठी त्याचा व्यय करा) ॥109॥
भावार्थ
भावार्थ- जो माणूस सर्व माणसांना सनातन वेदविद्या देतो आणि स्वत: श्रेष्ठ आचारवान असून कीर्तिमंत असतो, तोच ऐश्वर्यप्राप्ती करून इतरांनादेखील समृद्ध करतो ॥109॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O man, active like fire, possessing unusual strength unlike mortals, gaining power, possessing beautiful appearance, and preserving ancient wisdom, thou acquirest splendour thereby. Increase our wealth with the cooperation of other persons.
Meaning
Immortal Agni/man of action, invoked/inspired and rising in glory, rejoicing with people, create and expand the wealth of life for us all. Shining in the beauty and grace of your form in life, protect, promote and perfect the yajna of life which brings happiness, prosperity and all the blessings of existence.
Translation
O blazing immortal fire divine, may you, who shine with a pleasing form, flourish ruling over creatures. Bestow riches on us and thus make our victorious actions fruitful. (1)
Notes
Irajyan, दीप्यमान: blazing, shining. Sanasim, चिरंतनं, long lasting, permanent, eternal. Also, conquering, Victorious. Kratum, संकल्पं, resolve or determination. Action, deed. Dargatasya, दर्शनीयस्य, of beautiful, दर्शतस्य वपुषो is to be understood as दर्शनीयेन वपुषा |
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যঃ কীদৃশো ভবেদিত্যাহ ॥
মনুষ্য কেমন হয় এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অমর্ত্য) নাশ ও সংসারী মনুষ্যদিগের স্বভাব হইতে রহিত (অগ্নে) অগ্নি সম পুরুষার্থী ! যে (ইরজ্যন্) ঐশ্বর্য্যের সঞ্চয় করিয়া আপনি (দর্শতস্য) দেখিবার যোগ্য (বপুষঃ) রূপের (সোনসিম) সনাতন (ক্রতুম্) বুদ্ধির (পৃণক্ষি) সম্বন্ধ করেন এবং সেই বুদ্ধিতে বিশেষ করিয়া (বিরাজসি) শোভিত হন (সঃ) সুতরাং আপনি (অস্মে) আমাদিগের জন্য (জন্তুভিঃ) মনুষ্যাদি প্রাণীগুলির দ্বারা (রায়ঃ) ধনের (প্রথয়স্ব) বিস্তার করুন ॥ ১০ঌ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে সব পুরুষগণ মনুষ্যদিগের জন্য সনাতন বেদবিদ্যা প্রদান করে তাহারাই ঐশ্বর্য্য প্রাপ্ত হইয়া অন্যের জন্য প্রাপ্ত করাইতে পারে ॥ ১০ঌ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ই॒র॒জ্যন্ন॑গ্নে প্রথয়স্ব জ॒ন্তুভি॑র॒স্মে রায়ো॑ऽঅমর্ত্য ।
স দ॑র্শ॒তস্য॒ বপু॑ষো॒ বি রা॑জসি পৃ॒ণক্ষি॑ সান॒সিং ক্রতু॑ম্ ॥ ১০ঌ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইরজ্যন্নিত্যস্য পাকাগ্নির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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