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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 13
    ऋषिः - त्रित ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    199

    अग्रे॑ बृ॒हन्नु॒षसा॑मू॒र्ध्वोऽअ॑स्थान्निर्जग॒न्वान् तम॑सो॒ ज्योति॒षागा॑त्। अ॒ग्निर्भा॒नुना॒ रुश॑ता॒ स्वङ्ग॒ऽआ जा॒तो विश्वा॒ सद्मा॑न्यप्राः॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्रे॑। बृ॒हन्। उ॒षसा॑म्। ऊ॒र्ध्वः। अ॒स्था॒त्। नि॒र्ज॒ग॒न्वानिति॑ निःऽजग॒न्वान्। तम॑सः। ज्योति॑षा। आ। अ॒गा॒त्। अ॒ग्निः। भा॒नुना॑। रुश॑ता। स्वङ्ग॒ इति॑ सु॒ऽअङ्गः॑। आ। जा॒तः। विश्वा॑। सद्मा॑नि। अ॒प्राः॒ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्रे बृहन्नुषसामूर्ध्वाऽअस्थान्निर्जगन्वान्तमसो ज्योतिषागात् । अग्निर्भानुना रुशता स्वङ्गऽआ जातो विश्वा सद्मान्यप्राः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्रे। बृहन्। उषसाम्। ऊर्ध्वः। अस्थात्। निर्जगन्वानिति निःऽजगन्वान्। तमसः। ज्योतिषा। आ। अगात्। अग्निः। भानुना। रुशता। स्वङ्ग इति सुऽअङ्गः। आ। जातः। विश्वा। सद्मानि। अप्राः॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे राजन्! यस्त्वमग्रे यथा सूर्य्यः स्वङ्ग आजातो बृहन्नुषसामूर्ध्वोऽस्थाद् रुशता भानुना ज्योतिषा तमसो निर्जगन्वान् सन्नागाद् विश्वा सद्मान्यप्रास्तद्वत् प्रजायां भव॥१३॥

    पदार्थः

    (अग्रे) प्रथमतः (बृहन्) महत् (उषसाम्) प्रभातानाम् (ऊर्ध्वः) उपर्य्याकाशस्थः (अस्थात्) तिष्ठति (निर्जगन्वान्) निर्गतः सन् (तमसः) अन्धकारात् (ज्योतिषा) प्रकाशेन (आ) (अगात्) प्राप्नोति (अग्निः) पावकः (भानुना) दीप्त्या (रुशता) सुरूपेण (स्वङ्गः) शोभनान्यङ्गानि यस्य सः (आ) (जातः) निष्पन्नः (विश्वा) (सद्मानि) साकाराणि स्थानानि (अप्राः) व्याप्नोति॥१३॥

    भावार्थः

    यः सूर्य्यवत् सद्गुणैर्महान् सत्पुरुषाणां शिक्षयोत्कृष्टो दुर्व्यसनेभ्यः पृथग्वर्त्तमानः सत्यन्यायप्रकाशितः सुन्दराङ्गः प्रसिद्धः सर्वैः सत्कर्त्तुं योग्यो विदितवेदितव्यो दूतैः सर्वजनहृदयाशयविच्छुभन्यायेन प्रजा व्याप्नोति, स एव राजा भवितुं योग्यः॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजन्! जो आप (अग्रे) पहिले से जैसे सूर्य्य (स्वङ्गः) सुन्दर अवयवों से युक्त (आजातः) प्रकट हुआ (बृहन्) बæड़ा (उषसाम्) प्रभातों के (ऊर्ध्वः) ऊपर आकाश में (अस्थात्) स्थिर होता और (रुशता) सुन्दर (भानुना) दीप्ति तथा (ज्योतिषा) प्रकाश से (तमसः) अन्धकार को (निर्जगन्वान्) निरन्तर पृथक् करता हुआ (आगात्) सब लोक-लोकान्तरों को प्राप्त होता है, (विश्वा) सब (सद्मानि) स्थूल स्थानों को (अप्राः) प्राप्त होता है, उसके समान प्रजा के बीच आप हूजिये॥१३॥

    भावार्थ

    जो सूर्य्य के समान श्रेष्ठ गुणों से प्रकाशित, सत्पुरुषों की शिक्षा से उत्कृष्ट, बुरे व्यसनों से अलग, सत्य-न्याय से प्रकाशित, सुन्दर अवयव वाला, सर्वत्र प्रसिद्ध, सबके सत्कार और जानने योग्य व्यवहारों का ज्ञाता, और दूतों के द्वारा सब मनुष्यों के आशय को जानने वाला, शुद्ध, न्याय से प्रजाओं में प्रवेश करता है, वही पुरुष राजा होने के योग्य होता है॥१३॥

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    विषय

    त्रित का जीवन

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र के अनुसार तीनों बन्धनों को तैरकर अब यह ‘त्रित’ [ त्रीन् तरति ] बना है। इसका जीवन ऐसा है—[ २ ] यह ( उषसां बृहत् अग्रे ) = उषाकाल के बहुत पहले ही ( ऊर्ध्वः अस्थात् ऊर्ध्वः अस्थात् ) = उठ खड़ा होता है। नींद को छोड़कर, बिस्तरे को त्यागकर यह अपने कार्यक्रम में प्रवृत्त होने लगता है। ३. ( निर्जगन्वान् ) = यह घर से बाहर भ्रमण के लिए निकल जाता है। आवश्यक कृत्यों से निपटकर यह ४. ( तमसः ) = अन्धकार से ऊपर उठकर ( ज्योतिषा अगात् ) = ज्योति के साथ सङ्गत होता है। स्वाध्याय करता हुआ अपने जीवन को प्रकाशमय बनाता है। ५. ( अग्निः ) = यह प्रगतिशील होता है। ६. ( रुशता भानुना ) = चमकती हुई दीप्ति से [ सूर्यसम आभा से ] युक्त होता है। ७. ( स्वङ्गः ) = इसका एक-एक अङ्ग सुन्दर होता है। ८. ( आजातः ) = यह सब दिशाओं में विकासवाला होता हैं— शरीर, मन व बुद्धि सभी की उन्नति करनेवाला होता है। ९. अपने व्यावहारिक जीवन में यह ( विश्वानि सद्मानि ) = सब घरों को ( आ अप्राः ) = पूरित करनेवाला होता है, अर्थात् यह त्रित केवल अपने जीवन को सुखी बनाकर सन्तुष्ट नहीं हो जाता, अपितु सभी के कष्टों को दूर करता है। सभी के घरों में जाता है, उनके कष्ट में सहायक होता है, उनके दुःख को दूर करने में ही इसे शान्ति अनुभव होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ — ‘प्रातः उठना, घूमने जाना, स्वाध्याय, उन्नति, देदीप्यमान ज्ञान, सुन्दर अङ्ग, सर्वतोमुखी विकास, औरों के घरों को भी अपना घर समझना’ यह त्रित के जीवन की मुख्य बातें हैं।

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    विषय

    सूर्य के समान राजा का अभ्युदय ।

    भावार्थ

    (अग्ने) सब से प्रथम (बृहत् ) महान् सूर्य जिस प्रकार (उषसाम्, ऊर्ध्वः ) उषा कालों, प्रभात बेलाओं के भी ऊपर ( अस्थात् ) प्रखर तेज से विराजता है और ( ज्योतिषा ) अपनी दीप्ति से ( तमसः ) अन्धकार को ( नि: जगन्वान् ) दूर हटाता हुआ ( अगास् ) उदित होता है ( अग्निः ) दीप्तिमान् सूर्य ( रुशता ) कान्तिमान् ( भानुना ) अपने तेज से ( स्वङ्गः ) सुन्दर शोभा वाला होकर ( विश्वा सद्मानि ) सब घरों को भी ( अग्नाः ) प्रकाश से पूर्ण करता है, उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( वृहत् ) महान शक्ति सम्पन्न, ( उषसाम् ऊर्ध्वः) शत्रुदाहक सेनाओं के ऊपर उनका नायक होकर ( ज्योतिपा ) अपने पराक्रम रूप तेजसे ( तमसः ) आवरण- कारी शत्रुरूप अन्धकार को दूर हटाता हुआ उदित हो । ऐसा तेजस्वी होकर ( रुशता भानुना ) शत्रु के नाश करने वाले तेज से ( आजातः ) सब प्रकार से समृद्ध होकर ( स्वङ्गः ) उत्तम राज्य के अंगों से बलवान्, स्वयं भी सुदृढ अंग होकर (विश्वा सद्मानि ) सब स्थानों को, सब के वरों को, समस्त विभागों को ( अप्रा: ) पूर्ण कर, समृद्ध कर । शत० ६ । ७।३।१० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः । अग्निर्देवतारिगार्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो सूर्यासारखा श्रेष्ठ गुणांनी प्रकाशमान व सत्पुरुषांच्या संगतीने व शिक्षणाने उत्कृष्ट बनलेला असेल, वाईट व्यसनांपासून दूर असून सत्य न्यायाने प्रसिद्ध असेल व ज्याचे अवयव सुंदर असतील व जो प्रसिद्ध असून सर्वांनी सत्कार करण्यायोग्य असेल, व्यवहाराचा ज्ञाता व दूतांकडून सर्व माहिती मिळविण्यात चतुर असून प्रजेला योग्य प्रकारे न्याय देणारा असेल तर असा पुरुषच राजा होण्यायोग्य असतो.

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    विषय

    पुढील मंत्रात पुन्हा त्याचविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे राजा, जसा सूर्य (अग्रे) सर्वांआधी (स्वड्न:) आपल्या सदर प्रिय अवयवांनी (किरणांनी) (अप्रात:) प्रकट होतो आणि (बृहन्‌) विस्तृत अशा (उषसाम्‌) प्रभात काळाच्या (ऊर्ध्व:) वर आकाशात (अस्थात्‌) स्थिर होतो तसेच (सशता) सुंदर (भानुमा) दीप्तीद्वारे आणि (ज्योतिषा) प्रकाशाद्वारे (तमस:) अंधकाराला (निर्जगन्वान्‌) निरंतर दूर करीत (आगात्‌) सर्व लोकलोकांतरापर्यंत जातो. (प्रकाशाच्या रुपाने तिथे पोहचतो) तसेच (विश्‍वा) सर्व (सद्यामि) स्थूल स्थानांपर्यंतही (अप्रा:) जातो, हे राजा, त्याप्रमाणे आपणही प्रजाजनांमध्ये प्रकाशित व्हा (प्रजेच्या दु:ख, समस्या रुप अंधकाराचा नाश करा.) ॥13॥

    भावार्थ

    भावार्थ - कोणता वा कशा गुणांनी युक्त पुरुष राज्याचा राजा होण्यास पात्र आहे? जो सूर्याप्रमाणे श्रेष्ठ गुणांमुळे कीर्तिमंत आहे, जो सद्पुरुषांचा उपदेश शिरोधार्य मानून दुर्व्यसनापासून अलग आणि सत्यता न्यायी राजा याप्रमाणे प्रसिद्ध आहे, प्रामाणिक आणि न्यायी या रूपाने ज्याचे यश प्रसृत आहे, जो नीरोग व आकर्षक शरीरधारी आहे, सर्व प्रसिद्ध असून योग्यजनांचा आदर-सत्कार करणारा आहे, तशी रीत जाणतो, आणि जो आपल्या दूत वा हेरांकरवी प्रजेच्या मनातील भावभावना जाणून घेतो आणि न्यायाप्रमाणे सर्वांशी समानतेने व्यवहार करतो. असा सभापती राजा (राष्ट्राध्यक्ष राज्याचा असा सभापती (राष्ट्राध्यक्ष) असायला पाहिजे ॥13॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O king, just as the brilliant sun rising early, resides beautifully in the sky before the dawns, removes darkness with its light and lustre, reaches the universe, and fills with splendour all material objects, so shouldst thou live amongst thy subjects.

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    Meaning

    Agni, the sun, great, first and foremost, positioned over and above the dawn, comes forth from the dark and rises with all its glory. Resplendent with its wonderful beams which adorn it like brilliant limbs of its personality, it expands over the regions of the world, dispels the darkness and illuminates them all over with its light. (So should the ruler, first and great among the brilliant people of the land, come forth with the greatness of his personality, illuminate the land and glorify all the people. )

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    Translation

    Earlier, the great Lord stands above dawns, coming out of darkness along with the brilliant light. The fire divine of the handsome form, dispelling darkness with his rays, fills all the quarters with light as soon as he is born. (1)

    Notes

    In praise of Agni, whose soul is the sun. Dayünanda interprets it as an instruction to the king. Agre, before; earlier; in the beginning. Svaügah, शोभनानि अंगानि यस्य स:, whose parts of the body are fine; having a handsome form. А aprah, आपूरितवन्, has filled. Viéva sadmini, सर्वाणि स्थानानि सर्वान् लोकान्, all the places; all the worlds. इमे वै विश्वा: लोका: सद्मानि (Satapatha, VI. 7. 3. 17).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজন্ ! আপনি (অগ্রে) প্রথম হইতে যেমন সূর্য্য (স্বঙ্গ) সুন্দর অবয়ব যুক্ত (আজাতঃ) প্রকট হইয়া (বৃহন্) বৃহৎ (উষসাম্) প্রভাতের (ঊর্ধ্বঃ) ঊর্ধে্ব আকাশে (অস্থাৎ) স্থির হন এবং (রুশতা) সুন্দর (ভানুনা) দীপ্তি তথা (জ্যোতিষা) প্রকাশ দ্বারা (তমসঃ) অন্ধকারকে (নির্জগন্বান্) নিরন্তর পৃথক করিয়া (আগাৎ) সব লোক-লোকান্তরকে প্রাপ্ত হন (বিশ্বা) সব (সদ্মানি) স্থূল স্থানগুলিকে (অপ্রাঃ) প্রাপ্ত হন তাহার সমান প্রজা মধ্যে আপনি হউন ॥ ১৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে সূর্য্যের ন্যায় শ্রেষ্ঠ গুণসকল দ্বারা শোভিত সৎপুরুষদিগের শিক্ষা হইতে উৎকৃষ্ট, কুব্যসন হইতে পৃথক সত্য ন্যায় দ্বারা প্রকাশিত, সুন্দর অবয়ব যুক্ত, সর্বত্র বিখ্যাত সকলের সৎকার ও জানিবার যোগ্য, ব্যবহারের জ্ঞাতা এবং দূতদিগের দ্বারা সকল মনুষ্যের আশয়জ্ঞাতা, শুদ্ধ ন্যায়পূর্বক প্রজামধ্যে প্রবেশ করেন সেই পুরুষ রাজা হইবার যোগ্য ॥ ১৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্রে॑ বৃ॒হন্নু॒ষসা॑মূ॒র্ধ্বোऽঅ॑স্থান্নির্জগ॒ন্বান্ তম॑সো॒ জ্যোতি॒ষাऽऽগা॑ৎ ।
    অ॒গ্নির্ভা॒নুনা॒ রুশ॑তা॒ স্বঙ্গ॒ऽআ জা॒তো বিশ্বা॒ সদ্মা॑ন্যপ্রাঃ ॥ ১৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্রে বৃহন্নিত্যস্য ত্রিত ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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