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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    125

    विश्व॑स्य के॒तुर्भुव॑नस्य॒ गर्भ॒ऽआ रोद॑सीऽअपृणा॒ज्जाय॑मानः। वी॒डुं चि॒दद्रि॑मभिनत् परा॒यञ्जना॒ यद॒ग्निमय॑जन्त॒ पञ्च॑॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑स्य। के॒तुः। भुव॑नस्य। गर्भः॑। आ। रोद॑सीऽइति॒ रोद॑सी। अ॒पृ॒णा॒त्। जाय॑मानः। वी॒डुम्। चि॒त्। अद्रि॑म्। अ॒भि॒न॒त्। प॒रा॒यन्निति॑ परा॒ऽयन्। जनाः॑। यत्। अ॒ग्निम्। अय॑जन्त। पञ्च॑ ॥२३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वस्य केतुर्भुवनस्य गर्भऽआ रोदसी अपृणाज्जायमानः । वीडुञ्चिदद्रिमभिनत्परायञ्जना यदग्निमयजन्त पञ्च ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वस्य। केतुः। भुवनस्य। गर्भः। आ। रोदसीऽइति रोदसी। अपृणात्। जायमानः। वीडुम्। चित्। अद्रिम्। अभिनत्। परायन्निति पराऽयन्। जनाः। यत्। अग्निम्। अयजन्त। पञ्च॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यद्यो विद्वान् विश्वस्य भुवनस्य केतुर्गर्भो जायमानः परायन् रोदसी आपृणाद् वीडुमद्रिमभिनत्, पञ्च जना अग्निमयजन्त चिदिव विद्यादिशुभगुणान् प्रकाशयेत्, तं न्यायाधीशं मन्यध्वम्॥२३॥

    पदार्थः

    (विश्वस्य) (केतुः) (भुवनस्य) भवन्ति भूतानि यस्मिंस्तस्य लोकमात्रस्य (गर्भः) अन्तःस्थः (आ) (रोदसी) प्रकाशभूमी (अपृणात्) प्रपूर्यात् (जायमानः) उत्पद्यमानः (वीडुम्) दृढबलम् (चित्) इव (अद्रिम्) मेघम् (अभिनत्) भिन्द्यात् (परायन्) परेतः सन् (जनाः) (यत्) यः (अग्निम्) विद्युतम् (अयजन्त) सङ्गमयन्ति (पञ्च) प्राणाः॥२३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा भुवनस्य मध्ये सूर्य आकर्षणेन सर्वस्य धर्त्ता मेघस्य भेत्ता प्राणेभ्यो जात इव विद्वान् सर्वविद्याप्रज्ञापको राज्यधर्त्ता शत्रूच्छेदकः सुखानां जनयिता गर्भस्य मातेव प्रजापालको विद्वान् भवेत्, तं राज्याधिकारिणं कुर्यात्॥२३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग (यत्) जो विद्वान् (विश्वस्य) सब (भुवनस्य) लोकों का (केतुः) पिता के समान रक्षक प्रकाशनेहारा (गर्भः) उन के मध्य में रहने (जायमानः) उत्पन्न होने वाला (परायन्) शत्रुओं को प्राप्त होता हुआ (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी को (आपृणात्) पूरण कर्त्ता हो, (वीडुम्) अत्यन्त बलवान् (अद्रिम्) मेघ को (अभिनत्) छिन्न-भिन्न करे, (पञ्च) पांच (जनाः) प्राण (अग्निम्) बिजुली को (अयजन्त) संयुक्त करते हैं, (चित्) इसी प्रकार जो विद्या आदि शुभ गुणों का प्रकाश करे, उसको न्यायाधीश राजा मानो॥२३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ब्रह्माण्ड के बीच सूर्यलोक अपनी आकर्षण शक्ति से सब को धारण करता और मेघ को काटने वाला तथा प्राणों से प्रसिद्ध हुए के समान सब विद्याओं को जताने और जैसे माता गर्भ की रक्षा करे, वैसे प्रजा का पालनेहारा विद्वान् पुरुष हो, उसको राज्याधिकार देना चाहिये॥२३॥

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    विषय

    विश्वस्य केतुः

    पदार्थ

    १. यह ( वत्सप्रीः ) = प्रभु को अपने कर्मों से प्रीणित करनेवाला व्यक्ति ( विश्वस्य ) = सबका ( केतुः ) = [ कित निवासे रोगापनयने च ] निवास देनेवाला तथा रोगों को दूर करनेवाला—ज्ञान के प्रकाश से सबको नीरोगता का मार्ग दिखानेवाला होता है। २. ( भुवनस्य गर्भः ) = भुवन का गर्भ बनता है, अर्थात् सारी वसुधा को अपना परिवार समझता है। ३. ( जायमानः ) = अपना विकास करता हुआ यह रोदसी—द्युलोक व पृथिवीलोक को, अर्थात् सभी को ( अपृणात् ) = पालित व पूरित करता है [ पॄ पालनपूरणयोः ] अथवा [ पृण to delight ] सभी के जीवन को आनन्दयुक्त करने का प्रयत्न करता है। ४. ( परायन् ) = इस संसार से दूर जाने के हेतु से [ हेतु में शतृ प्रत्यय है ], अर्थात् परमात्मा को प्राप्त करने के हेतु से ( वीडुम् अद्रिम् चित् ) = दृढ़ पर्वत को भी ( अभिनत् ) = विदीर्ण कर देता है, अर्थात् लोकहित के कार्यों में लगे होने पर मार्ग में आये बड़े-से-बड़े विघ्न को भी दूर कर देता है। सब विघ्नों को दूर करता हुआ यह आगे बढ़ता चलता है और अन्त में वह समय आता है कि ५. ( यत् ) = जब ( पञ्च जनाः ) = ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद सभी लोग ( अग्निम् ) = इस अग्रेणी नेता को ( अयजन्त ) = पूजते हैं, आदर की दृष्टि से देखते हैं। सामान्यतः संसार में महापुरुषों का जीवनकाल में उतना आदर नहीं होता, परन्तु अन्त में वे लोगों के आदर-पात्र बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम अपने जीवन को प्रकाशमय बनाकर संसार को प्रकाश देनेवाले बनें और सभी को उत्तम निवासवाला व नीरोग बनाने का प्रयत्न करें।

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    विषय

    सूर्य के समान, दाता, पालक, बलवान्, लेजरची रात्री का वर्णन ।

    भावार्थ

    सूर्य जिस प्रकार ( विश्वस्य ) अपने प्रकाश से समस्त संसार का ( केतुः ) ज्ञान कराने वाला है और ( भुवनस्य ) समस्त लोक को ( गर्भः ) अपने वश में करने वाला, एवं उसमें नियामक शक्ति के रूप में व्यापक है और ( जायमानः ) प्रकट होता हुआ ( रोदसी ) और पृथिवी दोनों को ( आ अपृणात् ) सर्वत्र व्याप लेता है उसी प्रकार जो विद्वान् पुरुष ( विश्वस्य केतुः ) सबको अपने ज्ञान से ज्ञान कराने वाला, और ( जायमानः ) उदित होकर ( रोदसी ) राजवर्ग और प्रजावर्ग दोनों को (आ अपृणात् ) पूर्ण और पालन करने में समर्थ है और वायु जिस प्रकार ( अद्रिम् अभिनत् ) मेघ को या विद्युत् पर्वत को काट देता है उसी प्रकार ( वीडुम् अद्रिम् ) बलवान् अभेद्य शत्रुगण को.. ( परायन् ) उनपर आक्रमण करता हुआ ( अभिनत् ) तोड़ डालता है और ( यत् ) जिस ( अग्निम् ) अग्रणी नामक, ज्ञानवान् पुरुष को (पञ्च ) पांचों जन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद (अयजन्त ) आदर करते हैं वह राजा सूर्य के समान प्रकाशित होता है ।

    टिप्पणी

    'वीळु' ० इति काण्व ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । आर्ची त्रिष्टुप । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे ब्रह्मांडात प्राणमय सूर्य आपल्या आकर्षणशक्तीने सर्वांना धारण करणारा, मेघांना छिन्नभिन्न करणारा, प्राणशक्ती तसेच गर्भाचे रक्षण करणाऱ्या मातेप्रमाणे प्रजेचे पालन करणारा व सर्व विद्या जाणणारा विद्वान पुरुष असेल तर त्याला राज्याधिकार द्यावा.

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    विषय

    पुनश्‍च, तोच विषय आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे प्रजाजनहो, (यत्‌) जो मनुष्य विद्वान असून (विश्‍वस्य) सर्व (भुवनस्य) लोकांचा (क्षेत्र व प्रदेशांचा) (केतु:) पित्याप्रमाणे रक्षक (जायमान:) (प्रसंग उत्पन्न झाल्यास) तसेच रुप धारण करणारा (परुयन्‌) शत्रूंना पिळवून लावणारा आणि आपल्या यशाने वा कर्तृत्वाने (रोदसी) आकाश व पृथ्वीला (आपृणात्‌) भरून टाकणारा (अपरिमित कीर्तीचा) असेल, (त्यालाच तुम्ही न्यायाधीश राजा माना) तसेच जो (विडम्‌) अत्यंत बलवान असून (अद्रिम्‌) मेघाला (अभिनत्‌) छिन्न-भिन्न करणारा (यज्ञाद्वारे वृष्टी करविणारा) असून जसे (पंच) पाच (जना:) प्राण (अग्निम्‌) विद्युतेला (अयुजन्त) संयुक्त करतात^(चित्‌) याप्रमाणे जो विद्या आदी शुभ गुणांचा विकास-विस्तार करील, त्यासच तुम्ही न्यायाधीश राजा माना (याविरुद्ध असेल, तर त्यास राज्यपदावरून उपदस्य करा) ॥23॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे सूर्य आपल्या आकर्षणशक्तीद्वारा ब्रह्मांडामध्ये सर्व लोकांना धारण करतो, तशा प्रकारे प्रजेचा धारणकर्ता असून जो ढगाला छिन्न-भिन्न करणाऱ्या (सूर्याप्रमाणे शत्रूंना ध्वस्त करतो) तसेच प्राण आदी वायूंना वश करीत सर्व विद्यांचे दान करणारा आहे, याशिवाय आई जसे आपल्या गर्भाची पालना करते, त्याप्रमाणे जो प्रजेचा पालक आहे, अशा विद्वान मनुष्याला तुम्ही राज्याधिकार द्या. (अन्यास नको) ॥23॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Elect him as a ruler, who is the protector of the whole world, springs to life in its midst ; fills the Earth and Heaven opposing the foes, cuts to pieces the powerful enemy, just as the sun cuts asunder the dense cloud, is full of knowledge, and respected by five classes of persons.

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    Meaning

    Light of the world, going everywhere, seed of life, rising as the sun, illuminating the earth and heaven, breaker of the darkest cloud, hallowed and consecrated by the people and the energies of nature, such is Agni. (Such should be the ruler in his domain. )

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    Translation

    The fire divine, whom the five categories of men worship, is the ensign of all; he is the germ of the universe; he fills the heaven and earth as soon as he is born; and passing over, tears off even the hard rocks. (1)

    Notes

    Paficajanah, five sorts of men, 1. е. Brahmana (intellectuals), Kshatriya (warrior-administrators), Vai$yas (wealth- producers, industrialists, farmers and traders), Stidras (labourers) and Nisádas. Four priests and the sacrificer (Mahidhara). पंच प्राणा:, five vital breaths (Dayi. ). Viduin cit, dI Wet वीडु शब्दो दृढार्थ:, hard or firm. चित् अप्यर्थ:, cir means also or even. Adrim, аар еру that which cannot be cleft; rock, mountatn; also cloud. AruSam, irritating, unpleasant; red, Also, causing no trouble to eyes. Ut iyarti, उद्गिरति, throws up, sends up. Martyesu amrto nidhiiyi, this immortal one has been set within the mortals. Inaksan, व्याप्नुवन्, fills, or covers (the sky).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা (য়ৎ) যে বিদ্বান্ (বিশ্বস্য) সব (ভূবনস্য) ভুবনের (কেতুঃ) পিতৃসদৃশ রক্ষক, প্রকাশক (গর্ভঃ) তাহাদের মধ্যে নিবাসী (জায়মানঃ) উৎপদ্যমান (পরায়ন্) শত্রুদের প্রাপক, (রোদসী) প্রকাশ ও পৃথিবীর (আপৃণাৎ) পূরণ কর্ত্তা (বীভুম্) অত্যন্ত বলবান্ (অদ্রিম্) মেঘকে (অভিনৎ) ছিন্নভিন্ন করে (পঞ্চ) পাঁচ (জনাঃ) প্রাণ (অগ্নিম্) বিদ্যুৎকে (অয়জন্ত) সংযুক্ত করে (চিৎ) এই প্রকার যে বিদ্যাদি শুভ গুণের প্রকাশ করে তাহাকে ন্যায়াধীশ রাজা মানিবে ॥ ২৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যেমন ব্রহ্মাণ্ডের মধ্যে সূর্য্যলোক স্বীয় আকর্ষণ শক্তি দ্বারা সকলকে ধারণ করে এবং মেঘকে কর্ত্তনকারী তথা প্রাণ হইতে উৎপন্ন, সর্ব বিদ্যাজ্ঞাপক এবং যেমন মাতা গর্ভের রক্ষা করে সেইরূপ প্রজার পালক বিদ্বান্ পুরুষকে রাজ্যাধিকার দেওয়া উচিত ॥ ২৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বিশ্ব॑স্য কে॒তুর্ভুব॑নস্য॒ গর্ভ॒ऽআ রোদ॑সীऽঅপৃণা॒জ্জায়॑মানঃ ।
    বী॒ডুং চি॒দদ্রি॑মভিনৎ পরা॒য়ঞ্জনা॒ য়দ॒গ্নিময়॑জন্ত॒ পঞ্চ॑ ॥ ২৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বিশ্বস্যেত্যস্য বৎসপ্রীর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্ আর্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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