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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 22
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    85

    श्री॒णामु॑दा॒रो ध॒रुणो॑ रयी॒णां म॑नी॒षाणां॒ प्रार्प॑णः॒ सोम॑गोपाः। वसुः॑ सू॒नुः सह॑सोऽअ॒प्सु राजा॒ विभा॒त्यग्र॑ऽउ॒षसा॑मिधा॒नः॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्री॒णाम्। उ॒दा॒र इत्यु॑त्ऽआ॒रः। ध॒रुणः॑। र॒यी॒णाम्। म॒नी॒षाणा॑म्। प्रार्प॑ण॒ इति॑ प्र॒ऽअर्प॑णः। सोम॑गोपा॒ इति॒ सोम॑ऽगोपाः। वसुः॑। सु॒नुः। सह॑सः। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। राजा॑। वि। भा॒ति॒। अग्रे॑। उ॒षसा॑म्। इ॒धा॒नः ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रीणामुदारो धरुणो रयीणाम्मनीषाणाम्प्रार्पणः सोमगोपाः । वसुः सूनुः सहसो अप्सु राजा विभात्यग्रऽउषसामिधानः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    श्रीणाम्। उदार इत्युत्ऽआरः। धरुणः। रयीणाम्। मनीषाणाम्। प्रार्पण इति प्रऽअर्पणः। सोमगोपा इति सोमऽगोपाः। वसुः। सुनुः। सहसः। अप्स्वित्यप्ऽसु। राजा। वि। भाति। अग्रे। उषसाम्। इधानः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 22
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र राजकर्मणि कीदृग्जनोऽभिषेचनीय इत्याह॥

    अन्वयः

    हे मनुष्याः! यूयं यो जन उषसामग्र इधानः सूर्य इव श्रीणामुदारो रयीणां धरुणो मनीषाणां प्रार्पणः सोमगोपाः सहसः सूनुर्वसुः सन्नप्सु राजा विभाति, तं सर्वाध्यक्षं कुरुत॥२२॥

    पदार्थः

    (श्रीणाम्) लक्ष्मीणां मध्ये (उदारः) य उत्कृष्टं परीक्ष्य ऋच्छति ददाति (धरुणः) धर्त्ताऽऽधारभूतः (रयीणाम्) धनानाम् (मनीषाणाम्) प्रज्ञानाम्। याभिर्मन्यते जानन्ति ता मनीषाः प्रज्ञास्तासाम् (प्रार्पणः) प्रापकः (सोमगोपाः) सोमानामोषधीनामैश्वर्य्याणां वा रक्षकः (वसुः) कृतब्रह्मचर्य्यः (सूनुः) सुतः (सहसः) बलवतः पितुः (अप्सु) प्राणेषु (राजा) प्रकाशमानः (वि) (भाति) प्रदीप्यते (अग्रे) सम्मुखे (उषसाम्) प्रभातानाम् (इधानः) प्रदीप्यमानः॥२२॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः सुपात्रेभ्यो दाता धनस्य व्यर्थव्ययस्याकर्त्ता, सर्वेषां विद्याबुद्धिप्रदः, कृतब्रह्मचर्यस्य जितेन्द्रियस्य तनयो योगाङ्गानुष्ठानेन प्रकाशमानः, सूर्यवत् शुभगुणकर्मस्वभावानां मध्ये देदीप्यमानो, पितृवत् प्रजापालको जनोऽस्ति, स राज्यकरणायाभिषेचनीयः॥२२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इन राजकार्यो में कैसे पुरुष को राजा बनावें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोगों को चाहिये कि जो पुरुष (उषसाम्) प्रभात समय के (अग्रे) आरम्भ में (इधानः) प्रदीप्यमान सूर्य के समान (श्रीणाम्) सब उत्तम लक्ष्मियों के मध्य (उदारः) परीक्षित पदार्थों का देने (रयीणाम्) धनों का (धरुणः) धारण करने (मनीषाणाम्) बुद्धियों का (प्रार्पणः) प्राप्त कराने और (सोमगोपाः) ओषधियों वा ऐश्वर्यों की रक्षा करने (सहसः) ब्रह्मचर्य किये जितेन्द्रिय बलवान् पिता का (सूनुः) पुत्र (वसुः) ब्रह्मचर्याश्रम करता हुआ, (अप्सु) प्राणों में (राजा) प्रकाशयुक्त होकर (विभाति) शुभ गुणों का प्रकाश करता हो, उसको सब का अध्यक्ष करो॥२२॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को उचित है कि जो सुपात्रों को दान देने, धन का व्यर्थ खर्च न करने, सब को विद्या-बुद्धि देने, जिसने ब्रह्मचर्याश्रम सेवन किया हो, अपने इन्द्रिय जिसके वश में हों, उसका पुत्र योग के यम आदि आठ अङ्गों के सेवन से प्रकाशमान, सूर्य के समान अच्छे गुण-कर्म्म और स्वभावों से सुशोभित, और पिता के समान अच्छे प्रकार प्रजाओं का पालन करनेहारा पुरुष हो, उसको राज्य करने के लिये स्थापित करें॥२२॥

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    विषय

    प्रभु-प्रिय [ वत्सप्री ] का जीवन

    पदार्थ

    गत मन्त्र के अनुसार प्रभु की वाणी को सुननेवाला अपने जीवन को निम्न प्रकार का बनाता है—१. ( श्रीणाम् ) = सेवनीय गौ-अश्वादि सम्पदाओं का ( उदारः ) = [ दाता ] खूब देनेवाला होता है [ उत्कृष्टं परीक्ष्य ऋच्छति ददाति ]। यह विचार कर सत्पात्र में देता है। २. ( रयीणाम् ) = सम्पत्तियों का यह अपने को ( धरुणाः ) = धारण करनेवाला [ trustee ] समझता है। ३. ( मनीषाणाम् ) = बुद्धियों का ( प्रार्पणः ) = यह प्राप्त करानेवाला होता है। स्वयं ज्ञानी बनकर औरों को ज्ञान देता है। ४. ( सोमगोपाः ) = यह अपने सोम [ वीर्य ] की रक्षा करनेवाला होता है। वस्तुतः इस सोम-रक्षा के परिणामस्वरूप ही तो इसमें अन्य सब गुणों का विकास होता है। ५. सोम-रक्षा से नीरोग बनकर ( वसुः ) = यह उत्तम निवासवाला होता है। ( सहसः सूनुः ) = बल का यह पुत्र होता है, अर्थात् खूब बलवान्—शक्ति का पुञ्ज बनकर यह शरीर के सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को सुन्दर बना पाता है। ६. ( अप्सु ) = यह कर्मों के विषय में ( राजा ) = बड़े व्यवस्थित [ regulated ] जीवनवाला होता है। सूर्य और चन्द्रमा की भाँति इसके कर्म समय पर सम्पन्न किये जाते हैं। ७. नियमित जीवनवाला यह ( विभाति ) = विशेषरूप से दीप्त होता है, क्योंकि इस नियमितता से इसे शारीरिक और मानस स्वास्थ्य प्राप्त होता है। संक्षेप में यह स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मनवाला होता है। ८. ( उषसाम् अग्रे ) = बडे़ सवेरे-सवेरे—उषःकाल के पहले ( इधानाः ) = यह प्रभु को अपने हृदय में समिद्ध करने का प्रयत्न करता है, अर्थात् प्रभु का ध्यान करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — वत्सप्री के जीवन का गुणाष्टक यह है— दान, ट्रस्टीशिप की भावना, ज्ञान, वीर्यरक्षा, शक्ति व उत्तम निवास, नियमितता, दीप्ति तथा प्रभु-स्मरण।

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    विषय

    सूर्य के समान, दाता, पालक, बलवान्, लेजरची रात्री का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( श्रीणाम् ) लक्ष्मी, ऐश्वर्यों का ( उदारः ) सत्पात्रों में दान करने द्वारा ( रयीणाम् ) ऐश्वर्यो का आश्रय स्थान, उनका धारण करनेवाला (मनीषाणाम् ) नाना ज्ञान करानेवाली मतियों के ( प्रार्पणः ) प्राप्त करानेवाला, ( सोमगोपाः ) सोम, ऐश्वर्यमय राष्ट्र का या विद्वानों का रक्षक, ( वसुः ) प्रजाओं का बसाने वाला, ( सहस: ) शत्रु के पराजय करनेवाले बलका ( सूनुः ) प्रेरक, सञ्चालक, सेना- नायक ( राजा ) राजा ( उपसाम् अग्रे ) दिनों के प्रारम्भ में उदय होनेवाले सूर्य के समान ( इधानः ) स्वयं अपने प्रताप से दीप्त होनेवाला ( अप्सु ) जलों या समुद्र के तल पर उठते सूर्य के समान प्रजाओं के बीच (विभाति) विविध प्रकार से शोभा देता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी सुपात्रांना दान देणारा,धनाचा अपव्यय न करणारा, विद्या प्राप्त करणारा, ब्रह्मचर्याचे पालन करणारा, इंद्रियांना ताब्यात ठेवणारा, योगाच्या यम इत्यादी आठ अंगांचे पालन करणारा, सूर्याप्रमाणे तेजस्वी, चांगले गुण, कर्म, स्वभाव यांनी सुशोभित होणारा व पित्याप्रमाणे प्रजेचे पालन करणारा असेल तर अशा पुरुषास राजा निवडावे.

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    विषय

    आता राज्यकार्यासाठी कशा प्रकारच्या मनुष्यास राजा म्हणून नेमावे वा निवडावे, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (परमेश्‍वराचा आदेश) हे मनुष्यांनो, जो पुरुष (उपसाम्‌) प्रभातेच्या (अग्रे) आरंभीच्या काळातील (इधान:) सूर्याप्रमाणे तेजस्वी आहे (सकाळचा सूर्य दाहक नसतो त्याचे तेज सुग्रहच व दर्शनीय असते) जो (श्रीणाम्‌) उत्तम संपदा अर्जित करून (उदार:) पदार्थ दान करणारा आहे, जो (रयीणाम्‌) धनाचे (धरूण:) धारण करणारा (संपत्तीशाली) आणि (मनीषाणाय्‌) बुद्धीची (प्रार्मण:) प्राप्ती करून देणारा (विद्येची वृद्धीविस्तार करणारा) आहे, तसेच जो (सोमगोपा:) औषधीचा आणि ऐश्‍वर्याचा रक्षक आहे, जो (सहस:) ब्रह्मचर्य धारण करणारा जितेंद्रिय आणि बलवान पित्याचा (सूनु:) पुत्र आहे व जो (वसु:) ब्रह्मचर्याश्रमात राहिल्यामुळे (अप्सु) प्राणांमध्ये (राजा) प्रकाशमान होऊन (विभाति) शुभ गुणांचा प्रकाश प्रसारित करतो, त्या पुरुषाला तुम्ही सर्वांच्या अध्यक्षस्थानी नेमा (त्याला सभापती व राष्ट्राध्यक्ष करा) ॥22॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांकरिता हेच उचित आहे की त्यांनी अशा मनुष्याला राज्ञपदी नेमावे वा निवडावे की जो सुपात्रीं दान देणारा, धनाचा अपव्यय न करणारा आणि सर्वांना विद्या-बुद्धी देणारा आहे. तसेच ज्याने ब्रह्मचर्याश्रम सेवन केले आहे, जो जितेंद्रिय आहे, ज्याने योगाच्या यम आदी आठ अंगांचे पालन-साधन केले आहे, जो प्रकाशमान सूर्याप्रमाणे उत्तम गुण, कर्म व स्वभावाने सुशोभित आहे, जो आपल्या पित्याप्रमाणेच प्रजापालक आहे, अशा मनुष्यास तुम्ही प्रजाजनांनी राज्यकर्ता सभापतीपदी बसवावे ॥22॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Elect him as a ruler who is lustrous like the sun in fore-front of the dawns, the giver of wealth, the master of riches, the bestower of wisdom, the protector of prosperity, the observer of the vow of celibacy, the son of a strong father, and the controller of his senses.

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    Meaning

    Generous lord of the light and glory of life, spirit of the graces of nature, sustainer of wealth and beauty, source of desire and fulfilment, guardian of the sweetness, joy and greenery of the earth, haven and mainstay of the world, child of the very force and victory of life, brilliant in the dynamics of existence, He blazes in splendour before the dawns. Such is Agni. (Such should be the ruler. )

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    Translation

    Bestower of wealth, holder of riches, fulfiller of wishes, protector of bliss, richness incarnate, son of strength, glowing in waters, he shines enkindled before dawns. (1)

    Notes

    Udarah, अत्यर्थं दाता, liberal in giving. Dharunah, धारयिता, holder. Prarpanah, प्रापयिता अर्पयिता, bestower. Idhanah, from इंधी दीप्तै दीप्यमान:, radiant, shining.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অত্র রাজকর্মণি কীদৃগ্জনোऽভিষেচনীয় ইত্যাহ ॥
    এই সব রাজকার্য্যে কীদৃশ পুরুষকে রাজা করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমাদিগের উচিত যে, যে পুরুষ (উষসাম্) প্রভাত সময়ের (অগ্রে) আরম্ভে (ইধানঃ) প্রদীপ্যমান সূর্য্যসদৃশ (শ্রীণাম) সব উত্তম লক্ষ্মীদিগের মধ্যে (উদারঃ) উৎকৃষ্ট ভাবে পরীক্ষা করতঃ প্রদান করিয়া, (রয়ীণাম্) ধনের (ধরুণঃ) ধারণ করিয়া, (মনীষাণাম্) বুদ্ধি সকলের (প্রার্পণঃ) প্রাপ্ত করিয়া এবং (সোমগোপাঃ) ওষধি অথবা ঐশ্বর্য্য রক্ষা করিয়া (সহসঃ) ব্রহ্মচর্য্য কৃত জিতেন্দ্রিয় বলবান্ পিতার (সুনুঃ) পুত্র (বসুঃ) ব্রহ্মচর্য্যাশ্রমে থাকিয়া (অপ্সু) প্রাণে (রাজা) প্রকাশযুক্ত হইয়া (বিভাতি) শুভ গুণের প্রকাশ করে তাহাকেই সকলের অধ্যক্ষ কর ॥ ২২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- সব মনুষ্যদিগের উচিত যে, সুপাত্রে দান দিয়া, ধন ব্যর্থ ব্যয় না করিয়া, সকলকে বিদ্যা-বুদ্ধি প্রদান করিয়া যে ব্রহ্মচর্য্যাশ্রম সেবন করিয়াছে, স্বীয় ইন্দ্রিয় যাহার বশে আছে, তাহার পুত্র যোগের যমাদি অষ্টাঙ্গ সেবন দ্বারা প্রকাশমান সূর্য্য সমান শুভ গুণ-কর্ম-স্বভাব দ্বারা সুশোভিত এবং পিতৃসদৃশ সম্যক্ প্রকারে প্রজাদের পালক পুরুষ তাহাকে রাজ্য করিবার জন্য স্থাপিত করিবে ॥ ২২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    শ্রী॒ণামু॑দা॒রো ধ॒রুণো॑ রয়ী॒ণাং ম॑নী॒ষাণাং॒ প্রার্প॑ণঃ॒ সোম॑গোপাঃ ।
    বসুঃ॑ সূ॒নুঃ সহ॑সোऽঅ॒প্সু রাজা॒ বি ভা॒ত্যগ্র॑ऽউ॒ষসা॑মিধা॒নঃ ॥ ২২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    শ্রীণামিত্যস্য বৎসপ্রীর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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