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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 65
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - यजमानो देवता छन्दः - आर्षी जगती स्वरः - निषादः
    86

    यं ते॑ दे॒वी निर्ऋ॑तिराब॒बन्ध॒ पाशं॑ ग्री॒वास्व॑विचृ॒त्यम्। तं ते॒ विष्या॒म्यायु॑षो॒ न मध्या॒दथै॒तं पि॒तुम॑द्धि॒ प्रसू॑तः। नमो॒ भूत्यै॒ येदं च॒कार॑॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम्। ते॒। दे॒वी। निर्ऋ॑ति॒रिति॒ निःऽऋ॑तिः। आ॒ब॒बन्धेत्या॑ऽब॒बन्ध॑। पाश॑म्। ग्री॒वासु॑। अ॒वि॒चृ॒त्यमित्य॑विऽचृ॒त्यम्। तम्। ते॒। वि। स्या॒मि॒। आयु॑षः। न। मध्या॑त्। अथ॑। ए॒तम्। पि॒तुम्। अ॒द्धि॒। प्रसू॑त॒ इति॒ प्रऽसू॑तः। नमः॑। भूत्यै॑। या। इ॒दम्। च॒कार॑ ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यन्ते देवी निरृतिराबबन्ध पाशम्ग्रीवास्वविचृत्यम् । तन्ते वि ष्याम्यायुषो न मध्यादथैतम्पितुमद्धि प्रसूतः । नमो भूत्यै येदं चकार ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यम्। ते। देवी। निर्ऋतिरिति निःऽऋतिः। आबबन्धेत्याऽबबन्ध। पाशम्। ग्रीवासु। अविचृत्यमित्यविऽचृत्यम्। तम्। ते। वि। स्यामि। आयुषः। न। मध्यात्। अथ। एतम्। पितुम्। अद्धि। प्रसूत इति प्रऽसूतः। नमः। भूत्यै। या। इदम्। चकार॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 65
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    विवाहसमये कीदृशीः प्रतिज्ञाः कुर्य्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे पते! निर्ऋतिरिवाहं ते तव यं ग्रीवास्वविचृत्यं पाशमाबबन्ध, तं ते तवाप्यहं विष्यामि। आयुषोऽन्नस्य न विष्यामि। अथावयोर्मध्यात् कश्चिदपि नियमात् पृथङ् न गच्छेत्। यथाऽहमेतं पितुमद्मि, तथा प्रसूतः सँस्त्वमेनमद्धि। हे स्त्रि! या देवी त्वमिदं पतिव्रताधर्मेण सुसंस्कृतं चकार, तस्यै भूत्यै नमोऽहं करोमि॥६५॥

    पदार्थः

    (यम्) (ते) तव (देवी) दिव्या स्त्री (निर्ऋतिः) पृथिवीव (आबबन्ध) समन्ताद् बध्नामि (पाशम्) धर्म्यं बन्धनम् (ग्रीवासु) कण्ठेषु (अविचृत्यम्) अमोचनीयम् (तम्) (ते) तव (वि) (स्यामि) प्रविशामि (आयुषः) जीवनस्य (न) इव (मध्यात्) (अथ) आनन्तर्ये (एतम्) (पितुम्) अन्नादिकम् (अद्धि) भुङ्क्ष्व (प्रसूतः) उत्पन्नः सन् (नमः) सत्कारे (भूत्यै) ऐश्वर्यकारिकायै (या) (इदम्) प्रत्यक्षं नियमनम् (चकार) कुर्यात्। [अयं मन्त्रः शत॰ ७.२.१.१५ व्याख्यातः]॥६५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। विवाहसमये यानव्यभिचाराख्यादीन् नियमान् कुर्य्युस्तेभ्योऽन्यथा कदाचिन्नाचरेयुः। कुतः? यदा पाणिं गृह्णन्ति तदा पुरुषस्य यावत्स्वं तावत्सर्वं स्त्रियाः, यावत् स्त्रियास्तावदखिलं पुरुषस्यैव भवति। यदि पुरुषो विवाहितां विहायाऽन्यस्त्रीगो भवेत्, स्त्री च परपुरुषगामिनी स्यात् तावुभौ स्तेनवत् पापात्मानौ स्याताम्। अतः स्त्रिया अनुमतिमन्तरा पुरुषः पुरुषाज्ञया च विना स्त्री किञ्चिदपि कर्म न कुर्यात्, इदमेव स्त्रीपुरुषयोः प्रीतिकरं कर्म यदव्यभिचरणमिति॥६५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    विवाह समय में कैसी कैसी प्रतिज्ञा करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    स्त्री कहे कि हे पते! (निर्ऋतिः) पृथिवी के समान मैं (ते) तेरे (ग्रीवासु) कण्ठों में (अविचृत्यम्) न छोड़ने योग्य (यम्) जिस (पाशम्) धर्मयुक्त बन्धन को (आबबन्ध) अच्छे प्रकार बांधती हूं, (तम्) उसको (ते) तेरे लिये भी प्रवेश करती हूं (आयुषः) अवस्था के साधन अन्न के (न) समान (वि, स्यामि) प्रविष्ट होती हूं। (अथ) इसके पश्चात् (मध्यात्) मैं तू दोनों में से कोई भी नियम से विरूद्ध न चले। जैसे मैं (एतम्) इस (पितुम्) अन्नादि पदार्थ को भोगती हूं, वैसे (प्रसूतः) उत्पन्न हुआ तू इस अन्नादि को (अद्धि) भोग। हे स्त्री! (या) जो (देवी) दिव्य गुण वाली तू (इदम्) इस पतिव्रतरूप धर्म से संस्कार किये हुए प्रत्यक्ष नियम को (चकार) करे, उस (भूत्यै) ऐश्वर्य्य करने हारी तेरे लिये (नमः) अन्नादि पदार्थ को देता हूं॥६५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विवाह समय में जिन व्यभिचार के त्याग आदि नियमों को [स्वीकार] करें, उनसे विरुद्ध कभी न चलें, क्योंकि पुरुष जब विवाहसमय में स्त्री का हाथ ग्रहण करता है, तभी पुरुष का जितना पदार्थ है, वह सब स्त्री का और जितना स्त्री का है, वह सब पुरुष का समझा जाता है। जो पुरुष अपनी विवाहित स्त्री को छोड़ अन्य स्त्री के निकट जावे वा स्त्री दूसरे पुरुष की इच्छा करे, तो वे दोनों चोर के समान पापी होते हैं, इसलिये स्त्री की सम्मति के विना पुरुष और पुरुष की आज्ञा के विना स्त्री कुछ भी काम न करे, यही स्त्री-पुरुषों में परस्पर प्रीति बढ़ाने वाला काम है कि जो व्यभिचार को सब समय में त्याग दें॥६५॥

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    भावार्थ

    ( देवी निर्ऋतिः ) राजा की दमनकारिणी व्यवस्था हे पुरुष ! ( यम् ) जिस ( अविचृत्यम् ) प्रखण्ड कभी न टूटनेवाले,दृढ. ( पाशम् ) पाश को (आबबन्ध ) बांधती है मैं ( ते ) तेरे ( तं ) उस पाश को ( आयुष मध्याद् न ) नियम के बीच में ही ( विष्यामि ) काटता हूं, उस पाश का अन्त करूं । ( अथ ) और हे राजन् ! ( एवं पितुम् ) उस अन्न या पवित्र भोग्य पदार्थ को ( प्रसूतः ) उत्कृष्ट रूप में उत्पन्न होकर तू ( अद्धि ) खा, भोग कर । ( या ) जो ( देवी ) देवी ( इदम् ) इस जीवोत्पादन के व्यवस्था और पालन पवित्र कार्य को ( चकार ) करता है उस ( भूत्यै ) सर्वोत्पादक, ऐश्वर्यमयी देवी का ( नमः ) हम आदर करें। इसी प्रकार अपराधी के अपराध समाप्त होजाने पर दमनकारिणी व्यवस्था द्वारा जो बन्धन अपराधी जनों को गर्दनों में डाले जायें उनको न्यायकारी उनके जीवन के रहते २ काटे । और ( प्रसूतः) मुक्त होकर वह पुरुष अन्न का भोग करे । जो देवी, विद्वत् समिति या पृथ्वी इस प्रकार जीवों को बन्धनमुक्त करके अमृत का भोग प्रदान करती है उसको हमारा नमस्कार है । अध्यात्म में - ( निर्ऋतिः ) अविद्या जिस पाश को जीवों के ऊपर बांधती है उसको मैं, आचार्य ज्ञानोपदेश से ( आयुषः मध्यात् न ) जीवन के बीच में ही काट दूं । ( प्रसूतः ) उत्कृष्ट स्थिति में जाकर मेरा जीव ( पितुम् )अमृत का भोग करे । उस सर्वोत्यादिका ( भूत्यै ) भूति नाम ईश्वरीय शक्ति को नमस्कार है जो ( इदं चकार ) इस विश्व को उत्पन्न करती है और जीवों को उत्पन्न कर अन्न देती है और कर्मबंधनों से मुक्त कर मोक्षामृत लाभ कराती है

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    विषय

    निर्ऋति का पाश, निर्ऋति व भूति

    पदार्थ

    १. (निर्ऋति) = कृच्छ्रापत्ति-कष्ट की प्राप्ति भी 'देवी' है, क्योंकि यह मनुष्य को बुराइयों से हटाकर अच्छाइयों में प्रवृत्त करती है। प्रभु कहते हैं कि हे जीव ! यह देवी (निर्ऋतिः) = दिव्य गुणों को प्राप्त करानेवाली कृच्छ्रापत्ति ते (ग्रीवासु) = तेरी गर्दन में (यम्) = जिस (अविनृत्यम्) = अच्छेद्य (पाशम्) = बन्धन को (आबबन्ध) = बाँधती है, (ते) = तेरे (तम्) = उस बन्धन को (विष्यामि) = मैं समाप्त करता हूँ, जिससे (आयुषो न मध्यात्) = जीवन के मध्य से ही तू चला न जाए। असह्य कष्ट से कहीं मनुष्य अपने को समाप्त ही न कर ले, अतः प्रभु कहते हैं कि मैं तुझे कष्ट में तो डालता हूँ, परन्तु इतना भी अच्छेद्य कष्ट नहीं दे देता कि कहीं तू जीवन को भार समझने लगे और उसे समाप्त ही कर डाले। निरन्तर कष्टों से आयुष्य भी तो क्षीण हो जाता है। २. (अथ) = अब, एक बार कष्ट का अनुभव ले-लेने के बाद तो (प्रसूतः) = वेदवाणी द्वारा प्रेरणा दिया हुआ तू (पितुम्) = अन्न को (अद्धि) = खा, क्योंकि इस अन्न से ही मन बनेगा । सात्त्विक अन्न से मन भी सात्त्विक बनेगा। ('आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः') । ३. सात्त्विक अन्त:करणवाला बनकर यह 'मधुच्छन्दाः' कह उठता है कि (भूत्यै) = परमेश्वर के उस ऐश्वर्य व महिमा के लिए (नमः) = हम नतमस्तक होते हैं या जो प्रभु का ऐश्वर्य (इदम्) = इस अद्भुत संसारक्रम को चकार बनाता है। जीवन का सामान्य क्रम यही होता है कि [क] मनुष्य विषयों की ओर झुकता है। [ख] कष्ट भोगता है। [ग] वास्तविकता को जानकर फिर विषयों से ऊपर उठ जाता है और सात्त्विक अन्न का प्रयोग करते हुए चित्तवृत्ति को सात्त्विक बना लेता है । बन्धन समाप्त हो जाते हैं। निर्ऋति का बन्धन तो विषयों से ऊपर उठाने के लिए ही है। एवं, प्रभु का दिया दण्ड भी हमारी अमरता के लिए ही है। ('मृत्युः अमृतम्') मृत्यु भी अमृत है, निर्ऋति भी भूति [कल्याण] हो जाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ- कष्टों का पाश सुगतमा से नहीं टूटता। यह तो विषय-पाश के छिन्न होने से ही छिन्न होगा। विषय निवृत्ति कष्ट निवृत्ति का कारण है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विवाहाच्या वेळी व्यभिचाराचा त्याग करण्याचा नियम असून त्याविरुद्ध कधीही वर्तन करू नये. कारण पुरुष जेव्हा विवाहाच्या वेळी स्त्रीचे पाणिग्रहण करतो तेव्हा पुरुषाच्या सर्व पदार्थांवर स्त्रीचा हक्क असतो व स्त्रीच्या सर्व पदार्थांवर पुरुषाचा हक्क असतो. त्यामुळे जो पुरुष विवाहित स्त्रीला सोडून दुसऱ्या स्त्रीकडे जातो किंवा स्त्री दुसऱ्या पुरुषाची इच्छा करते ते दोघेही चोराप्रमाणे पापी असतात. त्यासाठी स्त्रीच्या संमतीशिवाय पुरुष व पुरुषाच्या आज्ञेशिवाय स्त्रीने कोणतेही काम करू नये. हेच स्त्री-पुरुषांच्या प्रीती वाढविण्याचे काम होय. त्यासाठी व्यभिचाराचा सर्वकाळी त्याग करावा.

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    विषय

    विवाहाच्यावेळी (वर-वधूंनी) कोणती प्रतिज्ञा करावी, पुढील मंत्रात याविषयी प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पत्नी पतीस म्हणते) हे पति, (निर्ऋति:) श्री पृथ्वीप्रमाणे (प्रतिज्ञेत) दृढ असून (ते) तुमच्या (ग्रीवासु) गळयात मी (अविचृत्यम्‌) कधीही न सुटणारे असे (यम्‌) (पाशम्‌) धर्ममय बंधन (आबबन्ध) विवाहसमी बांधत आहे (तम्‌) त्याप्रकारचे बंधन (ते) तुमच्यासाठी देखील आवश्‍यक करीत आहे. (आयुषा) जीवनाचे जे साधन म्हणजे अन्न, त्या (न) अन्नासह मी तुमच्या (गृहस्थ) जीवनात (विस्मामि) प्रवेश करीत आहे. (अथ) यानंतर (मध्यात्‌) जीवनामध्ये मी आणि तुम्ही कोणीही (विवाहप्रसंगी केलेल्या प्रतिज्ञेपासून) विचलित होणार नाही. ज्याप्रमाणे मी (एतम्‌) (पितुम्‌) या अन्न आदी पदार्थांचे सेवन करते, त्याप्रमाणे (प्रसूत:) (यागृहस्थाश्रमात माझ्यासाठी) जन्म घेतलेले तुम्ही या अन्नादींचे सेवन करा. (पती म्हणतो) हे पत्नी, (या) जी तू (देवी) दिव्य गुणवती आहेस, तू देखील (इदम्‌) या पतिव्रतधर्माचा धर्म म्हणून स्वीकार केल्यानंतर त्या नियमांचे सदैव (चकार) पालन कर. (भूत्यै) तू माझ्याकरिता ऐश्‍वर्य प्रदान करणार आहेस. मी तुझ्याकरिता आवश्‍यक त्या (नम:) अन्नादी पदार्थांची व्यवस्था करीन ॥65॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. विवाहसमयीं पति-पत्नी व्यभिचारापासून दूर राहण्याच्या ज्या प्रतिज्ञा करतात, दोघांनी पुढे कधीही त्या नियमाचा भंग होऊ देऊ नये. कारण की विवाहप्रसंगी पुरुष जेंव्हा स्त्रीचा हात आपल्या हातात घेतो, त्याचक्षणीं पुरुषाचे सर्व पदार्थ स्त्रीचे होतात आणि जे जे पदार्थ स्त्रीचे आहेत, ते त्या पुरुषाचे (पतीचे) होतात. असा प्रघात आहे. जर कोणी पुरुष आपल्या विवाहित स्त्रीला सोडून परस्त्रीचा संग करील अथवा कोणी स्त्री परपुरुषाची कामना करील, तर दोघेही चोराप्रमाणे पापी आहेत, असे समजावे. यामुळे आपल्या पत्नीच्या संमती व सहमतीशिवाय पुरुषाने आणि आपल्या पतीच्या आज्ञेशिवाय पत्नीने कोणतेही कार्य करू नये. असे वागणे हेच स्त्री-पुरुषांमध्ये प्रीती निर्माण करणारे ठरते. यासाठी पति-पत्नींनी सदा सर्वदा व्यभिचाराचा त्याग करावा ॥65॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O husband, calm like the earth, I fasten on thy neck, the unbreakable binding noose of pure married life. The same do I fasten unto me for thee. I enter this life for longevity. Let none of us disobey the law of domestic life. Eat thou young man this food, which I eat. O wife, the embodiment of virtue, follow strictly the duties of married life. I give thee foodstuffs for thy prosperity.

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    Meaning

    Yajamana, the inexorable chain which the spirit of adversity, in full justice, had tied round your throat for want of yajna, I undo from the centre of your life right away. Regenerated through yajna, eat of this holy food. The spirit of generosity has done this miracle. Salutations to the spirit of generosity.

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    Translation

    The unbreakable noose, which the distress divine had put around your neck, I hereby cut off as if from the middle of your life-span. Now being permitted, you may eat this food. Our obeisance to that grace, which accomplishes this. (1)

    Notes

    Visyami, मुंचामि, unloose, cut off. Avicrtyam, that cannot loosened or cut off; unbreakable, Ayuso na madhyat, as if from the middle of your life span. Uvata, quoting from Satapatha, has interpreted it as ‘from the middle of the fire. अग्निर्वा आयुस्तस्यै तन्मध्यं तच्चितो गार्हपत्यो भवत्यचित आहवनीय:’ agni is verily ayuh; this is the middle of it: when in the built up hearth, it is garhapatya agni, when in unbuilt hearth, it is a/ravaniya. Pitum, अन्नं ‚ food, This verse appears to be addressed to a person convalescing from a very serious disease. Prasütah, अनुज्ञात:, being permitted.

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    बंगाली (1)

    विषय

    বিবাহসময়ে কীদৃশীঃ প্রতিজ্ঞাঃ কুর্য়্যুরিত্যাহ ॥
    বিবাহ সময়ে কেমন প্রতিজ্ঞা করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- স্ত্রী বলিবে যে, হে পতে ! (নিঋৃতি) পৃথিবীর সমান আমি (তে) তোমার (গ্রীবাসু) কন্ঠে (অবিচৃত্যম্) না ত্যজ্য (য়ম্) যে (পাশম্) ধর্মযুক্ত বন্ধনকে (আববন্ধ) সম্যক্ প্রকার বন্ধন করি । (তম্) উহাকে (তে) তোমার জন্যও প্রবেশ করি (আয়ুষঃ) অবস্থার সাধন অন্নের (ন) সমান (বি, স্যামি) প্রবিষ্ট হই (অথ) ইহার পশ্চাৎ (মধ্যাৎ) আমি তুমি উভয়ের মধ্যে কেহই নিয়মের বিরুদ্ধে না যাই যেমন আমি (এতম্) এই (পিতুম্) অন্নাদি পদার্থ ভোগ করি সেইরূপ (প্রসূতঃ) উৎপন্ন তুমি এই অন্নাদিকে (অদ্ধি) ভোগ কর । হে স্ত্রী । (য়া) যে (দেবী) দিব্যগুণযুক্ত তুমি (ইদম্) এই পতিব্রতরূপ ধর্ম দ্বারা সংস্কার কৃত প্রত্যক্ষ নিয়মকে (চকার) করিবে সেই (ভূত্যৈ) ঐশ্বর্য্যকারক তোমার জন্য (নমঃ) অন্নাদি পদার্থকে প্রদান করিতেছি ॥ ৬৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । বিবাহ সময়ে যে সব ব্যভিচারের ত্যাগাদি নিয়মকে করিবে তাহার বিরুদ্ধে কখনই চলিবে না কেননা পুরুষ যখন বিবাহ সময়ে স্ত্রীর হাত গ্রহণ করে তখনই পুরুষের যত পদার্থ আছে তাহা সমস্ত স্ত্রীর এবং যাহা স্ত্রীর আছে তাহা সমস্ত পুরুষের মনে করা হয় । যে পুরুষ তাহার বিবাহিত স্ত্রী পরিত্যাগ করিয়া অন্য স্ত্রীর নিকট গমন করে অথবা স্ত্রী অন্য পুরুষের ইচ্ছা করে, তাহা হইলে তাহারা দুই জন চোর সদৃশ পাপী হইয়া থাকে এইজন্য স্ত্রীর সম্মতি ব্যতীত পুরুষ এবং পুরুষের আজ্ঞা ব্যতীত স্ত্রী কিছুই কর্ম করিবে না । ইহাই স্ত্রী-পুরুষদের মধ্যে প্রীতি বৃদ্ধিকারী কর্ম, ব্যভিচারকে সর্ব সময়ে ত্যাগ করিবে ॥ ৬৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়ং তে॑ দে॒বী নির্ঋ॑তিরাব॒বন্ধ॒ পাশং॑ গ্রী॒বাস্ব॑বিচৃ॒ত্যম্ ।
    তং তে॒ বি ষ্যা॒ম্যায়ু॑ষো॒ ন মধ্যা॒দথৈ॒তং পি॒তুম॑দ্ধি॒ প্রসূ॑তঃ ।
    নমো॒ ভূত্যৈ॒ য়েদং চ॒কার॑ ॥ ৬৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়ং তে দেবীত্যস্য মধুচ্ছন্দা ঋষিঃ । য়জমানো দেবতা । আর্ষী জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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