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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 111
ऋषिः - पावकाग्निर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
123
ऋ॒तावा॑नं महि॒षं वि॒श्वद॑र्शतम॒ग्निꣳ सु॒म्नाय॑ दधिरे पु॒रो जनाः॑। श्रुत्क॑र्णꣳ स॒प्रथ॑स्तमं त्वा गि॒रा दैव्यं॒ मानु॑षा यु॒गा॥१११॥
स्वर सहित पद पाठऋ॒तावा॑नम्। ऋ॒तवा॑नमित्यृ॒तऽवा॑नम्। म॒हि॒षम्। वि॒श्वद॑र्शत॒मिति॑ वि॒श्वऽद॑र्शतम्। अ॒ग्निम्। सु॒म्नाय॑। द॒धि॒रे॒। पु॒रः। जनाः॑। श्रुत्क॑र्ण॒मिति॒ श्रुत्ऽक॑र्णम्। स॒प्रथ॑स्तम॒मिति॑ स॒प्रथः॑ऽतमम्। त्वा॒। गि॒रा। दैव्य॑म्। मानु॑षा। यु॒गा ॥१११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतावानम्महिषँविश्वदर्शतमग्निँ सुम्नाय दधिरे पुरो जनाः । श्रुत्कर्णँ सप्रथस्तमन्त्वा गिरा दैव्यम्मानुषा युगा ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतावानम्। ऋतवानमित्यृतऽवानम्। महिषम्। विश्वदर्शतमिति विश्वऽदर्शतम्। अग्निम्। सुम्नाय। दधिरे। पुरः। जनाः। श्रुत्कर्णमिति श्रुत्ऽकर्णम्। सप्रथस्तममिति सप्रथःऽतमम्। त्वा। गिरा। दैव्यम्। मानुषा। युगा॥१११॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैः केषामनुकरणं कार्यमित्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्य! यथा जना गिरा सुम्नाय दैव्यं श्रुत्कर्णं विश्वदर्शतं सप्रथस्तममृतावानं महिषमग्निं विद्वांसं मानुषा युगा च पुरो दधिरे, तथैवंभूतं विद्वांसमेतानि च त्वं धेहीति त्वा शिक्षयामि॥१११॥
पदार्थः
(ऋतावानम्) ऋतं बहु सत्यं विद्यते यस्मिँस्तम्, अत्र छन्दसीवनिपौ [अष्टा॰वा॰५.२.१०९] इति वार्तिकेन वनिप् (महिषम्) महान्तम् (विश्वदर्शतम्) सर्वविद्याबोधस्य द्रष्टारम् (अग्निम्) विद्वांसम् (सुम्नाय) सुखाय (दधिरे) हितवन्तः (पुरः) पुरस्तात् (जनाः) विद्याविज्ञानेन प्रादुर्भूता मनुष्याः (श्रुत्कर्णम्) श्रुतौ श्रवणसाधकौ कर्णौ यस्य बहुश्रुतस्य तम् (सप्रथस्तमम्) प्रथसा विस्तरेण सह वर्त्तमानः सप्रथास्तमतिशयितम् (त्वा) त्वाम् (गिरा) वाचा (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु कुशलम् (मानुषा) मनुष्याणामिमानि (युगा) युगानि वर्षाणि। [अयं मन्त्रः शत॰७.३.१.३४ व्याख्यातः]॥१११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सत्पुरुषा अतीतास्तेषामेवानुकरणं मनुष्याः कुर्युर्नेतरेषाम-धार्मिकाणाम्॥१११॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को किनका अनुकरण करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्य! जैसे (जनाः) विद्या और विज्ञान से प्रसिद्ध मनुष्य (गिरा) वाणी से (सुम्नाय) सुख के लिये (दैव्यम्) विद्वानों में कुशल (श्रुत्कर्णम्) बहुश्रुत (विश्वदर्शतम्) सब देखने हारे (सप्रथस्तमम्) अत्यन्तविद्या के विस्तार के साथ वर्त्तमान (ऋतावानम्) बहुत सत्याचरण से युक्त (महिषम्) बड़े (अग्निम्) विद्वान् को (मानुषा) मनुष्यों के (युगा) वर्ष वा सत्ययुग आदि (पुरः) प्रथम (दधिरे) धारण करते हैं, वैसे विद्वान् को और इन वर्षों का तू भी धारण कर, यह (त्वा) तुझे सिखाता हूं॥१११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सत्पुरुष हो चुके हों, उन्हीं का अनुकरण मनुष्य लोग करें, अन्य अधर्मियों का नहीं॥१११॥
विषय
राजा के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में विद्वान् और गृहपति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( ऋतावानम् ) सत्य ज्ञानवान् सत्य कर्मवान् (महिषं) महान् ( विश्वदर्शतम् ) सब विधाओं के द्रष्टा एवं सर्व प्रकार से दर्शनीय, ( अग्निम्) अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञानवान्, श्रवण किये हुए (श्रुत् कर्णम्) गुरु के उपदेश को अपने कानों में सदा धारण करनेवाले अथवा गुरु के उपदेशानुसार आचरण करनेवाले, ( दैव्यम् ) देव, विद्वानों में कुशल ( त्वा ) तुझ विद्वान् ( अग्निम् ) ज्ञानी, तेजस्वी पुरुष, राजा को ( सुम्नाय ) अपने सुख के लिये ( पुरः ) पालन करने में चतुर या पालन योग्य ( जनाः ) लोग ( सुम्नाय ) अपने सुख के लिये ही ( दधिरे ) स्थापित करते हैं । और सप्रथस्तमम् । विस्तृत यश के पात्र तुझको ( मानुषा युगा ) मनुष्यों के युग, जोड़े अर्थात् सभी नर नारी ( गिरा ) वाणी से भी ( दधिरे ) प्रतिष्ठित करते हैं । शत० ७ । ३ । १ । ३४ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋष्यादि पूर्ववत् ॥
विषय
प्रभु-प्राप्ति का साधन
पदार्थ
१. पावकाग्नि प्रभु का आराधन करते हुए कहता है कि (जनाः) = अपना विकास करनेवाले लोग (सुम्नाय) = सुख प्राप्ति के लिए (त्वा) = आपको (पुर:) = अपने सामने (दधिरे) = स्थापित करते हैं, अर्थात् वे सदा आपका स्मरण करते हैं। आपके स्मरणपूर्वक ही सब काम करने के कारण उनके कार्य अपवित्र नहीं होते और उनका जीवन सुखी होता है। २. उन आपको वे धारण करते हैं, जो आप [क] (ऋतावानम्) = ऋतवाले हैं। प्रभु से होनेवाले सब कार्य ठीक समय पर व ठीक स्थान पर हो रहे हैं। वस्तुतः प्रभु के तीव्र तप से ही तो 'ऋत और सत्य' की उत्पत्ति हुई है। [ख] (महिषम्) = वे प्रभु महनीय, पूजनीय हैं, महान् हैं। । [ग] (विश्वदर्शतम्) = सबके दर्शनीय हैं अथवा सब विज्ञानों के द्रष्टा हैं। [घ] (अग्निम्) = वे अग्रेणी हैं-सबको आगे और आगे ले चलनेवाले हैं। [ङ] (श्रुत्कर्णम्) = [शृणोत्याह्वानम्] प्रार्थना को सुननेवाले हैं। [च] सप्रथस्तमम्- अतिशयेन विस्तारवाले हैं। वे प्रभु सर्वव्यापक हैं- कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ वे न हों। [छ] (दैव्यम्) = [ देव एव दैव्य:- स्वार्थे यः] वे प्रभु देव हैं अथवा देवों का हित करनेवाले हैं। ३. इस प्रभु को (मानुषा युगा) = मनुष्यों के युग्म अर्थात् दम्पती - पति-पत्नी (गिरा) = इस वेदवाणी के द्वारा, ज्ञान की वाणियों के द्वारा धारण करते हैं। घर में पति-पत्नी प्रभु के दिये हुए ज्ञान-वेद के स्वाध्याय द्वारा प्रभु को पानेवाले बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु को आँख से ओझल न होने देनेवाले लोग पवित्र व सुखी जीवनवाले होते हैं। वेद के अध्ययन द्वारा पति-पत्नी प्रभु को पाते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सत्पुरुष पूर्वी होऊन गेलेले आहेत त्यांचेच अनुकरण माणसांनी करावे. इतर अधार्मिक लोकांचे अनुकरण करू नये.
विषय
मनुष्यांनी कोणाचे अनुकरण करावे, याविषयी पुढील मंत्रात प्रतिपादन केले आहे-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्या, (पूर्वी जसे) (जवा:) विद्या-विज्ञानवान प्रसिद्ध माणसें (होऊन गेली की ज्यांनी (गिरा) आपल्या प्रिय वाणीद्वारे (सुम्नाय) सुखप्राप्तीकरिता (दैव्यम्) विद्वानांत कुशल, (श्रुतकर्णम्) आणि बहुश्रुत तसेच (विश्वदर्शतम्) सर्वद्रष्टा आणि (सप्रथस्तमम्) विद्येचा भरपूर विस्तार करणाऱ्या लोकांचे अनुकरण केले आणि (ऋतावानम्) सत्याचरण करणाऱ्या (महिषम्) महान (अग्निम्) विद्वानाला धारण केले होते (त्याचे अनुकरण केले होते) (तशा विद्वान गुणवान, द्रष्टा पुरुषाचे तुम्हीही अनुकरण करा) तसेच (युमा) या वर्षात अथवा सतयुगआदी (पुर:) पुर्वीच्या काळात मनुष्यांनी ज्याप्रमाणे विद्वानांचे अनुकरण केले आणि तसा उत्तम काळ पाहिला, तसाच काळ तूही पहा. त्यासाठी विद्वानांचे अनुकरण कर) मी (त्वाम्) तुला हे उचित उपदेश सांगत आहे. ॥111॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. माणसांनी पूर्वी जे सत्पुरुष होऊन गेले आहेत, त्यांचेच अनुकरण करावे. त्याहून इतर अधर्मीजनांचे अनुकरण मुळीच करू नये ॥111॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O man, just as learned persons accept with praise songs for their happiness, the auspicious amongst the wise, the well-read, the expounder of all sciences, the master of vast learning, the embodiment of truth, and the leader of scholars, so shouldst thou do. They revere the past generations of men. Thus do I instruct thee.
Meaning
For the sake of peace, prosperity and joy, the people of former times have honoured and followed the human traditions of ages and you, Agni, lord of light and life, man of vision and excellence dedicated to Truth and Dharma, great, possessed of universal knowledge and experience, discreet listener and practical achiever and master of divine qualities of character.
Translation
With speech of praises, О fire divine, men since ages for their welfare have been invoking you, the initiator of law, grand, viewer of all, responsive to prayers, the most extensive, and the divinity incarnate. (1)
Notes
Rtavanam, ऋतं is the eternal law; initiator of eternal law. Also, upholder of truth. Mahisam, महांतं, great, grand. Viévadargatam, seer of all learning and knowledge (Daya. ). All beautiful. Exposer of all things. Sumnaya, सुखाय, for their weal. यज्ञाय़, for sacrifice. Srutkarnam, शृणोति आह्वानं श्रुत्वा चानुतिष्ठति, one who listens to prayers and acts thereupon; responsive to prayers. Yuga, for ages; in all the ages.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈঃ কেষামনুকরণং কার্য়মিত্যাহ ॥
মনুষ্য কাহাদের অনুকরণ করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্য ! যেমন (জনাঃ) বিদ্যাও বিজ্ঞান দ্বারা প্রসিদ্ধ মনুষ্য (গিরা) বাণী দ্বারা (সুম্নায়) সুখের জন্য (দৈব্যম্) বিদ্বান্দের মধ্যে কুশল (শ্রুৎকর্ণম্) বহু শ্রুত (বিশ্বদর্শতম্) সর্বদ্রষ্টা (সপ্রথস্তমম্) অত্যন্ত বিদ্যার বিস্তার সহ বর্ত্তমান (ঋতাবানম্) বহু সত্যাচরণ দ্বারা যুক্ত (মহিষম্) মহা (অগ্নিম্) বিদ্বান্কে (মানুষা) মনুষ্যদিগের (য়ুগা) বর্ষ বা সত্যযুগাদি (পুরঃ) প্রথম (দধিরে) ধারণ করে সেইরূপ বিদ্বান্কে এবং এই সব বর্ষকে তুমিও ধারণ কর এই (ত্বা) তোমাকে শেখাই ॥ ১১১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সৎপুরুষ হইয়াছে তারই অনুকরণ মনুষ্যগণ করিবে, অন্য অধর্মীদের নয় ॥ ১১১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ঋ॒তাবা॑নং মহি॒ষং বি॒শ্বদ॑র্শতম॒গ্নিꣳ সু॒ম্নায়॑ দধিরে পু॒রো জনাঃ॑ ।
শ্রুৎক॑র্ণꣳ স॒প্রথ॑স্তমং ত্বা গি॒রা দৈব্যং॒ মানু॑ষা য়ু॒গা ॥ ১১১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ঋতাবানমিত্যস্য পাবকাগ্নির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাডার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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