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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 27
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    71

    आ तं भ॑ज सौश्रव॒सेष्व॑ग्नऽउ॒क्थऽउ॑क्थ॒ऽआभ॑ज श॒स्यमा॑ने। प्रि॒यः सूर्ये॑ प्रि॒योऽअ॒ग्ना भ॑वा॒त्युज्जा॒तेन॑ भि॒नद॒दुज्जनि॑त्वैः॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। तम्। भ॒ज॒। सौ॒श्र॒व॒सेषु॑। अ॒ग्ने॒। उ॒क्थउ॑क्थ॒ इत्यु॒क्थेऽउ॑क्थे। आ। भ॒ज॒। श॒स्यमा॑ने। प्रि॒यः। सूर्ये॑। प्रि॒यः। अ॒ग्ना। भ॒वा॒ति॒। उत्। जा॒तेन॑। भि॒नद॑त्। उत्। जनि॑त्वै॒रिति॒ जनि॑ऽत्वैः ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तम्भज सौश्रवसेष्वग्नऽउक्थौक्थऽआभज शस्यमाने । प्रियः सूर्ये प्रियोऽअग्ना भवात्युज्जातेन भिनददुज्जनित्वैः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। तम्। भज। सौश्रवसेषु। अग्ने। उक्थउक्थ इत्युक्थेऽउक्थे। आ। भज। शस्यमाने। प्रियः। सूर्ये। प्रियः। अग्ना। भवाति। उत्। जातेन। भिनदत्। उत्। जनित्वैरिति जनिऽत्वैः॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन्! त्वं यः सौश्रवसेषु वर्त्तमानस्तमाभज, यः शस्यमान उक्थऽउक्थे प्रियः सूर्येऽअग्ना च प्रियो, जातेन जनित्वैः सहोद्भवात्युद्भिनदत्, तं त्वमाभज॥२७॥

    पदार्थः

    (आ) (तम्) (भज) सेवस्व (सौश्रवसेषु) शोभनानि च श्रवांसि च तानि सुश्रवांसि तेषु सुश्रवस्सु भवास्तेषु (अग्ने) विद्वन् (उक्थऽउक्थे) वक्तुं योग्ये योग्ये व्यवहारे (आ) (भज) (शस्यमाने) स्तूयमाने (प्रियः) कान्तः (सूर्य्ये) सूरिषु स्तोतृषु भवे (प्रियः) सेवनीयः (अग्ना) अग्नौ (भवाति) भवेत् (उत्) (जातेन) (भिनदत्) भिन्द्यात् (उत्) (जनित्वैः) जनिष्यमाणैः॥२७॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः पाककरणे साधुः, सर्वस्य प्रियोऽन्नव्यञ्जनानां भेदकः पाचको भवेत्, स स्वीकर्त्तव्यः॥२७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् पुरुष! आप जो (सौश्रवसेषु) सुन्दर धन वालों में वर्त्तमान हो, (तम्) उसको (आभज) सेवन कीजिये, जो (शस्यमाने) स्तुति के योग्य (उक्थऽउक्थे) अत्यन्त कहने योग्य व्यवहार में (प्रियः) प्रीति रक्खे (सूर्य्ये) स्तुतिकारक पुरुषों में हुए व्यवहार (अग्ना) और अग्निविद्या में (प्रियः) सेवने योग्य (जातेन) उत्पन्न हुए और (जनित्वैः) उत्पन्न होने वालों के साथ (उद्भवाति) उत्पन्न होवे और शत्रुओं को (उद्भिनदत्) उच्छिन्न-भिन्न करे, (तम्) उसको आप (आभज) सेवन कीजिये॥२७॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो पाक करने में साधु, सब का हितकारी, अन्न और व्यञ्जनों को अच्छे प्रकार बनावे, उसको अवश्य ग्रहण करें॥२७॥

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    विषय

    ज्ञान + स्वास्थ्य व उज्ज्वल वंश

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र की ही भावना को प्रकारान्तर से कहते हैं १. ( अग्ने ) = हे प्रगतिशील! तू ( तम् ) = उस ज्ञान देनेवाले आचार्य को ( सौश्रवसेषु ) = उत्तम यशोमय कर्मों में ( आभज ) = सेवित करनेवाला हो, अर्थात् आचार्य से शिक्षित होकर तू संसार में इस प्रकार उत्तम कर्म करनेवाला बन कि तेरे कर्मों से तेरे आचार्य का नाम उज्ज्वल हो। २. तू इस अपनी जीवन-यात्रा में ( उक्थे उक्थे शस्यमाने ) = जहाँ-जहाँ प्रभु-स्तवन हो रहा हो उस-उस स्थान पर ( आभज ) = प्रभु की उपासना करनेवाला बन, अर्थात् उन्हीं सत्सङ्गों में तू उपस्थित हो जहाँ प्रभु-स्तवन हो रहा हो। ३. इस प्रकार उत्तम कर्मों से आचार्य के नाम को उज्ज्वल करनेवाला तथा प्रभु- स्तवन में सम्मिलित होनेवाला व्यक्ति ( सूर्ये प्रियः भवति ) = सूर्य के समीप प्रिय होता है, अर्थात् इसके मस्तिष्करूप द्युलोक में सदा ज्ञान का सूर्य उदित रहता है। यह ( अग्नौ प्रियः भवति ) = अग्नि के समीप प्रिय होता है, अर्थात् इसके भौतिक शरीर में प्राणशक्ति की अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है। इसके मस्तिष्क में ज्ञान का सूर्य उदित रहता है तो इसके पार्थिव शरीर की वेदि पर प्राणाङ्गिन सदा प्रज्वलित रहती है। ज्ञान चमकता हुआ होता है तो शरीर शक्ति की उष्णतावाला होता है। ४. अपने बाद भी यह ( जातेन ) = उत्पन्न पुत्र से ( उद्भिदत् ) = उदय व वृद्धि को प्राप्त होता है तथा ( जनित्वै ) = जनिष्यमाण [ आगे पैदा होनेवाले ] पौत्र आदि से भी यह अधिकाधिक उदय को प्राप्त होगा, अर्थात् इसका वंश और अधिक चमकनेवाला होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — गुरु का आदर व प्रभु-भक्तिवाले पुरुष के जीवन में १. ज्ञान का सूर्य चमकता है २. इसकी जीवनी-शक्ति बनी रहती है तथा ३. इसका वंश उज्ज्वल होता है।

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    विषय

    शत्रु-उच्छेद के लिये सेनापति का स्थापण ।

    भावार्थ

    जो (सूर्य) सूर्य के समान तेजस्वी, राजा के पद पर ( प्रियः ) सबको प्रिय, हितकारी और ( अग्नौ ) अग्नि, शत्रुतापक, अग्रणी सेना नायक के पद पर भी ( प्रियः ) सर्वप्रिय ( भवाति ) हो और ( जातेन ) अपने किये हुए कार्य से और ( जनित्वैः ) आगे होनेवाले कार्यों से भी ( उत् अभिनत् ) शत्रुओं को उखाड़ता और प्रजा के उपकार के कार्यों को उत्पन्न करता है (तम् ) उसको, हे राजन् ! ( सौश्रवसेषु ) उत्तम कीर्ति के पदों और अवसरों पर ( आ भज ) नियुक्त कर और ( उक्थे उक्थे शस्यमाने ) प्रत्येक प्रशंसा योग्य यज्ञादि कार्य के वन करने के अवसर पर भी ( तं आ भज) उसकी शुश्रूषा कर, उसको मान- पद प्राप्त करा ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता विराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी हितकारक अन्न व वेगवेगळे खाद्यपदार्थ चांगल्या प्रकारे बनविणाऱ्या व उत्तम स्वयंपाक करणाऱ्यांचा स्वीकार करावा.

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    विषय

    पुढील मंत्रातही त्याचविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान गृहस्थ, तुम्ही जो (आचारी) सौश्रवसेषु) व उत्तम धनवान गृहस्थांत असतो (त्याच्याकडे सैंपाक करतो) (तम्‌) त्या (आभज) सैंपाकीला त्या कार्यासाठी ठेवा. तसेच जो (शस्त्रमाने) प्रशंसनीय लोकांमध्ये (उक्थे उक्थे) सांगितल्या जाणाऱ्या आवश्‍यक कार्यामध्ये (प्रिय:) कुशल वा आवड असणारा आहे, जो (सूर्य्ये) प्रशंसित चांगल्या गृहांमध्ये होणाऱ्या आचरण वा पद्धती (जाणतो) (अम्ना) जो अग्निविद्या (पाककला) मध्ये (प्रिय:) चतुर आणि नेमण्यास योग्य आहे, जो (जातेन) उत्पन्न झालेल्या (घरात असलेल्या) आणि जनित्यै:) पुढे वा वेळोवेळी (जन्मणाऱ्या बालकादींसह (उद्भवाति) योग्य प्रकारे वागतो आणि जो (अद्भिनदत्‌) शत्रूंना (म्हणजे घरात येणाऱ्या अनिष्टकारी जनांना) ओळखून दूर करूं शकेल (तम्‌) त्या मनुष्याला तुम्ही सैंपाकी म्हणून (आभज) ठेवा ॥27॥

    भावार्थ

    भावार्थ : मनुष्यांनी (गृहस्थजनांनी) पाक-कलेत निपुण, सर्वांसाठी हितकारी असे अन्न आणि भोज्य व्यंजन चांगल्याप्रकारे करू शकणाऱ्या मनुष्यास पाचक म्हणून ठेवावे ॥27॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, appoint him as thy cook, who has worked with the rich, who feels pleased with praise and acts upon the instructions given, is dear to respectable persons, and knows the use of fire, lives peacefully with your sons and grandsons, and tears asunder the foes.

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    Meaning

    Men of knowledge, wisdom and expertise, celebrate agni and promote it among the famous and the prosperous. Sing of it in verses of praise on the auspicious and admirable occasions of yajna. It is dear to the men of heat and light and the sun. Promote it with the hopes and actions of your children. Promote it with the hopes and aspirations of those who are yet to be born.

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    Translation

    O adorable Lord, at every sacrifice bless the sacrificer with a share of your grace. Favour him at every song of praise. By the sun and by the fire, may he be blessed with children and grandchildren. (1)

    Notes

    Ukthe, literally at the praise-song, but meaning at the sacrifice, where praise-songs are recited. Priyah sürye priyo agnau, यजमान: प्रिय: सूर्यस्य भवति प्रियाश्चाग्नेर्भवति , the sacrificer is dear to the sun as well as dear to the fire, Jatena, with him that has been born, i. e. the son. Janitvaih, with those that are yet to be born in future, i. e. grandsons etc.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনরায় সেই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্বান্ পুরুষ ! আপনি (সৌশ্রবসেষু) সুষ্ঠু ধনবানদিগের মধ্যে বর্ত্তমান (তম্) উহাকে (আভজ) সেবন করুন, (শস্যমানে) স্তুতিযোগ্য (উক্থে উক্থে) অত্যন্ত বলিবার যোগ্য ব্যবহারের প্রতি (প্রিয়ঃ) প্রীতি রাখুন, (সূর্য়্যে) স্তুতিকারক পুরুষদিগের মধ্যে ব্যবহার (অগ্না) এবং অগ্নিবিদ্যায় (প্রিয়ঃ) সেবনীয় (জাতেন) উৎপন্ন এবং (জনিত্বৈঃ) জায়মান ব্যক্তিদিগের সহিত (উদ্ভবাতি) উৎপন্ন হইবে এবং শত্রুদিগকে (উদভিন্দৎ) উচ্ছিন্ন ভিন্ন করিয়া দিবে (তম্) উহাকে আপনি (আভজ) সেবন করুন ॥ ২৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, যে রন্ধন বিদ্যায় সাধু, সকলের হিতকারী অন্ন এবং ব্যঞ্জন সম্যক্ প্রকার তৈরী করে উহা অবশ্য গ্রহণ করিবে ॥ ২৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ তং ভ॑জ সৌশ্রব॒সেষ্ব॑গ্নऽউ॒ক্থऽউ॑ক্থ॒ऽআ ভ॑জ শ॒স্যমা॑নে ।
    প্রি॒য়ঃ সূর্য়ে॑ প্রি॒য়োऽঅ॒গ্না ভ॑বা॒ত্যুজ্জা॒তেন॑ ভি॒নদ॒দুজ্জনি॑ত্বৈঃ ॥ ২৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আ তমিত্যস্য বৎসপ্রীর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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