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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 117
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
    97

    अ॒ग्निः प्रि॒येषु॒ धाम॑सु॒ कामो॑ भू॒तस्य॒ भव्य॑स्य। स॒म्राडेको॒ विरा॑जति॥११७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः। प्रि॒येषु॑। धाम॒स्विति॒ धाम॑ऽसु। कामः॑। भू॒तस्य॑। भव्य॑स्य। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। एकः॑। वि। रा॒ज॒ति॒ ॥११७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निः प्रियेषु धामसु कामो भूतस्य भव्यस्य । सम्राडेको वि राजति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। प्रियेषु। धामस्विति धामऽसु। कामः। भूतस्य। भव्यस्य। सम्राडिति सम्ऽराट्। एकः। वि। राजति॥११७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 117
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कीदृशा भूत्वा किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    यो मनुष्यः सम्राडेकः कामोऽग्निः सभेशः परमेश्वर इव भूतस्य भव्यस्य प्रियेषु धामसु विराजति, स एव राजाभिषेचनीयः॥११७॥

    पदार्थः

    (अग्निः) पावक इव वर्त्तमानः (प्रियेषु) इष्टेषु (धामसु) जन्मस्थाननामसु (कामः) यः काम्यते सः (भूतस्य) अतीतस्य (भव्यस्य) आगामिसमयस्य (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशकः (एकः) अद्वितीयः परमेश्वरः (वि) (राजति)। [अयं मन्त्रः शत॰७.३.२.८ व्याख्यातः]॥११७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः परमात्मनो गुणकर्मस्वभावानुकूलान् स्वगुणकर्मस्वभावान् कुर्वन्ति, त एव साम्राज्यं भोक्तुमर्हन्तीति॥११७॥ अत्र स्त्रीपुरुषराजप्रजाकृष्यध्ययनाध्यापनादिकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वाऽध्यायार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य लोग कैसे होकर क्या क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो मनुष्य (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशक (एकः) एक ही असहाय परमेश्वर के सदृश (कामः) स्वीकार के योग्य (अग्निः) अग्नि के समान वर्त्तमान सभापति (भूतस्य) हो चुके और (भव्यस्य) आने वाले समय के (प्रियेषु) इष्ट (धामसु) जन्म, स्थान और नामों में (विराजति) प्रकाशित होवे, वही राज्य का अधिकारी होने योग्य है॥११७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभावों के अनुकूल अपने गुण, कर्म और स्वभाव करते हैं, वे ही चक्रवर्ती राज्य भोगने के योग्य होते हैं॥११७॥

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य । पक्षान्तर में विद्वान् और गृहपति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी, अग्रणी जो ( भूतस्य ) उत्पन्न प्रजाओं और ( भव्यस्य ) आगामी काल में आनेवाले प्रजाजनों यह सभासदों को ( प्रियेषु ) प्रिय लगनेवाले ( धामसु ) स्थानों पर भी ( काम: ) सबसे कामना करने योग्य, सब के मनोरथों का पात्र, कान्तिमान् हो । वह ( एकः ) एक मात्र ( सन्नाड् ) सम्राड् होकर ( विराजति ) राज्यसिंहासन पर विशेष रूप से शोभा प्राप्त करता है । शत० ७ । ३ । २ । ९ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिऋषिः । अग्निर्देवता । गायत्री । षड्जः ॥

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    विषय

    प्रजापतिः

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र का 'विरूप' आराधक प्रभु को सारे संसार के रक्षक के रूप में देखता है, अत: वह 'प्रजापति' हो जाता है। प्रजापति के रूप में यह प्रभु को देख रहा है। २. यह कहता है कि वह प्रभु ही ('अग्निः') = अग्रेणी हैं, सारे संसार को आगे और आगे ले चल रहे हैं। ३. (प्रियेषु धामसु) = प्रिय - प्रसन्न करनेवाले तेजों के लिए (काम:) = [काम्यते] वे चाहने योग्य हैं, अर्थात् प्रभु का आराधन करके हमें वह तेजस्विता प्राप्त होती है जो प्रिय-ही-प्रिय होती है। रक्षा के कार्यों में विनियुक्त होकर वह हमें संसार में यशस्वी बनानेवाली होती है। 'बाहुभ्यां यशोबलम्' यह प्रार्थना प्रभु के आराधन से ही पूर्ण होती है। ४. (भूतस्य भव्यस्य सम्राट्) = वे प्रभु भूत व भव्य के सम्राट् हैं, जो कुछ हो चुका है या होना है उसके शासक वे प्रभु ही हैं । ५. (एकः) = वे अद्वितीय हैं। वे अपने निर्माण, धारण, प्रलय व कर्मानुसार फल-व्यवस्थात्मक कार्यों में किसी की सहायता की अपेक्षा नहीं करते। ६. विराजति वे विशिष्टरूप से देदीप्यमान हैं और विशिष्ट रूप में ही सारे ब्रह्माण्ड - यन्त्र को नियमित गति दे रहे हैं [direct, regulate] उपनिषद् के शब्दों में सब नदियाँ उन्हीं के अनुशासन में बह रही हैं। सूर्य-चन्द्रादि उसी के अनुशासन में चमक रहे हैं। वे प्रभु ही सारे ब्रह्माण्ड व सारी प्रजाओं के पति हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-वे प्रभु अग्नि हैं, प्रिय तेज को प्राप्त करनेवाले हैं, भूत- भव्य के सम्राट् हैं, अद्वितीय हैं और प्रजापति हैं- सूर्य-चन्द्रादि उसी के अनुशासन में गति कर रहे हैं

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे परमेश्वराच्या गुण, कर्म, स्वभावानुसार आपले गुण, कर्म व स्वभाव बनवितात तीच चक्रवर्ती राज्य भोगण्यायोग्य असतात.

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    विषय

    मनुष्यांनी कसे असावे आणि काय करावे, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (सम्राट्) उत्तम आचरण करणारे, कीर्तिमान (एक:) केवळ एक परमेश्‍वराप्रमाणे आत्मनिर्भर (काम:) प्रजेला प्रिय आणि (अग्नि:) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी असे जे जे विद्यमान सभापती (राजा वा राष्ट्राध्यक्ष) आहेत (भूतस्य) अथवा जे होऊन गेले आहेत आणि (भव्यस्य) जे होणार आहेत, असे सभापती (राजा वा राष्ट्राध्यक्ष) आपल्या (प्रियेषु) सर्व प्रिय (धामसु) जन्म, स्थान आणि नावाने (विराजाति) प्रकाशित होतात वा कीर्ति मिळवितात. (त्यांच्यामुळे त्यांच्या गावाची, नावाची कीर्ती वाढते), असा मनुष्यच राज्याधिकारी वा राष्ट्राध्यक्ष होण्यास पात्र असतो. ॥117॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे जी माणसे परमात्म्याच्या गुण, कर्म आणि स्वभावाप्रमाणे आपले गुण, कर्म स्वभाव ठेवतात, तेच चक्रवर्ती राज्याचे राजा होण्यास पात्र असतात. ॥117॥

    टिप्पणी

    या अध्यायात स्त्री, पुरुष, राजा, प्रजा, शेती, पठन-पाठन आदी विषयांचे वर्णन आहे. यामुळे या अध्यायातील विषयांची आणि अर्थाची पूर्वीच्या (एकादश) अध्यायाशी संगती आहे, असे जाणावे. ॥^श्रीमद्यानन्दासरस्वती यांनी यजर्वेदाच्या केलेल्या हिंदी वेदभाष्यापैकी बाराव्या अध्यायाचा मराठी अनुवाद समाप्त

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    He alone is fit to rule, who, full of brilliance, like the One Self-sufficient Lord, is worthy of homage, self-resplendent, and shines forth in Gods attributes in the past and future.

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    Meaning

    Agni, sole and sovereign lord of the world, loved and worshipped by all that is born and all that is yet to be born, rules and blazes in his glory across the dearest and most beautiful regions of the universe. (Just as Agni, bright and blazing with His glory, is the lord of the universe, so that person alone is worthy of being the ruler of a country who is brilliant by virtue of his/her mind and character, unique in performance, loved and respected by all and shining across the present and the possible future in all regions of the land. )

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    Translation

    The adorable Lord, desire of all that was, and desire of all that is to be, shines forth in abodes pleasing to Him in His matchless majesty. (1)

    Notes

    Bhiitasya bhavyasya, of all that ever was and all that ever will be. Eko samrat, the unique sovereign; the only king.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাঃ কীদৃশা ভূত্বা কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    পুনরায় মনুষ্যগণ কীদৃশ হইয়া কী হইবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে মনুষ্য (সম্রাট্) সম্যক্ প্রকাশক (একঃ) একই অদ্বিতীয় পরমেশ্বর সদৃশ (কামঃ) কামনার যোগ্য (অগ্নিঃ) অগ্নিসম বর্ত্তমান সভাপতি (ভূতস্য) হইয়াছে এবং (ভব্যস্য) ভবিষ্যতে (প্রিয়েষু) ইষ্ট (ধামসু) জন্ম, স্থান ও নাম দ্বারা (বিরাজতি) প্রকাশিত হইবে সেই রাজ্যের অধিকারী হওয়ার যোগ্য ॥ ১১৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে মনুষ্য পরমাত্মার গুণ, কর্ম ও স্বভাবের অনুকূল নিজ গুণ, কর্ম ও স্বভাব করে সেই চক্রবর্ত্তী রাজ্য ভোগ করিবার যোগ্যতা অর্জন করে ॥ ১১৭ ॥
    এই অধ্যায়ে স্ত্রী, পুরুষ, রাজা প্রজা, কৃষি, পঠন-পাঠনাদি কর্মের বর্ণনা আছে ইহার দ্বারা এই অধ্যায়ের অর্থের পূর্ব অধ্যায়ের অর্থ সহ সংগতি বুঝিতে হইবে ।
    ইতি শ্রীমৎপরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়াণাং পরমবিদুষাং শ্রীয়ুতবিরজানন্দসরস্বতীস্বামিনাং শিষ্যেণ পরমহংসপরিব্রাজকাচার্য়েণ শ্রীমদ্দয়ানন্দসরস্বতীস্বামিনা নির্মিতে সুপ্রমাণয়ুক্তে সংস্কৃতার্য়্যভাষাভ্যাং বিভূষিতে য়জুর্বেদভাষ্যে দ্বাদশোऽধ্যায়ঃ পূর্ত্তিমগাৎ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নিঃ প্রি॒য়েষু॒ ধাম॑সু॒ কামো॑ ভূ॒তস্য॒ ভব্য॑স্য ।
    স॒ম্রাডেকো॒ বি রা॑জতি ॥ ১১৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নিরিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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