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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 30
    ऋषिः - विरूपाक्ष ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
    88

    स॒मिधा॒ग्निं दु॑वस्यत घृ॒तैर्बो॑धय॒ताति॑थिम्। आस्मि॑न् ह॒व्या जु॑होतन॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। अ॒ग्निम्। दु॒व॒स्य॒त॒। घृ॒तैः। बो॒ध॒य॒त॒। अति॑थिम्। आ। अ॒स्मि॒न्। ह॒व्या। जु॒हो॒त॒न॒ ॥३० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिधाग्निन्दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम् । आस्मिन्हव्या जुहोतन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    समिधेति सम्ऽइधा। अग्निम्। दुवस्यत। घृतैः। बोधयत। अतिथिम्। आ। अस्मिन्। हव्या। जुहोतन॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 30
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याणां के सेवनीयाः सन्तीत्याह॥

    अन्वयः

    हे गृहस्था! यूयं समिधाग्निमिवान्नादिनोपदेशकं दुवस्यत, घृतैरतिथिं बोधयत, अस्मिन् हव्या आजुहोतन॥३०॥

    पदार्थः

    (समिधा) सम्यगग्निसंस्कृतेनान्नादिना (अग्निम्) उपदेशकं विद्वांसम् (दुवस्यत) सेवध्वम् (घृतैः) घृतादिभिः (बोधयत) चेतयत (अतिथिम्) अनियततिथिमुपदेशकम् (आ) (अस्मिन्) (हव्या) दातुमर्हाणि (जुहोतन) दत्त। [अयं मन्त्रः शत॰६.८.१.६ व्याख्यातः]॥३०॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः सत्पुरुषाणामेव सेवा कार्या, सत्पात्रेभ्य एव दानं च देयम्। यथाग्नौ घृतादिकं हुत्वा संसारोपकारं जनयन्ति, तथैव विद्वत्सूत्तमानि दानानि संस्थाप्यैतैर्जगति विद्यासुशिक्षे वर्धनीये॥३०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किन का सेवन करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे गृहस्थो! तुम लोग जैसे (समिधा) अच्छे प्रकार इन्धनों से (अग्निम्) अग्नि को प्रकाशित करते हैं, वैसे उपदेश करने वाले विद्वान् पुरुष की (दुवस्यत) सेवा करो और जैसे सुसंस्कृत अन्न तथा (घृतैः) घी आदि पदार्थों से अग्नि में होम करके जगदुपकार करते हैं, वैसे (अतिथिम्) जिसके आने-जाने के समय का नियम न हो, उस उपदेशक पुरुष को (बोधयत) स्वागत उत्साहादि से चैतन्य करो और (अस्मिन्) इस जगत् में (हव्या) देने योग्य पदार्थों को (आजुहोतन) अच्छे प्रकार दिया करो॥३०॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि सत्पुरुषों ही की सेवा और सुपात्रों ही को दान दिया करें, जैसे अग्नि में घी आदि पदार्थों का हवन करके संसार का उपकार करते हैं, वैसे ही विद्वानों में उत्तम पदार्थों का दान करके जगत् में विद्या और अच्छी शिक्षा को बढ़ा के विश्व को सुखी करें॥३०॥

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    विषय

    ‘विरूपाक्ष’

    पदार्थ

    १. पिछले मन्त्र की समाप्ति इस बात पर थी कि सब देव हमारे अङ्गों में अपनी-अपनी सम्पत्ति को धारण कर उन्हें सुवीर बनाएँ। वे वीरतापूर्ण अंश इस मनुष्य को ‘विरूपाक्ष’ बनाते हैं—विशिष्ट रूपवाली हैं इन्द्रियाँ जिसकी। इस विरूपाक्ष का कथन है कि २. ( समिधा ) = ज्ञान की दीप्ति से ( अग्निम् ) = उस अग्रेणी प्रभु की ( दुवस्यत ) = परिचर्या करो। वस्तुतः प्रभु की सच्ची उपासना ज्ञान से ही होती है। ज्ञानीभक्त ही प्रभु को आत्मतुल्य प्रतीत होता है। २. ( घृतैः ) = मलों के क्षरण व विद्रावण से, दीप्त अन्तःकरणवृत्तियों से ( अतिथिम् ) = उस [ अत सातत्यगमने ] निरन्तर प्राप्त, सदा हृदय में विद्यमान प्रभु को ( बोधयत ) = [ चेतयत ] जानो। उस प्रभु का ज्ञान तभी होता है जब हमारे हृदयों पर से मल का आवरण दूर हो जाता है। प्रभु तो उपस्थित हैं ही, परन्तु हृदयों के मलावृत्त होने से उसका ज्ञान नहीं होता। मल हटा और प्रभु का दर्शन हुआ। ३. ( अस्मिन् ) = इस प्रभु में स्थित हुए ( हव्या ) = दातुमर्ह—देने योग्य पदार्थों को ( आजुहोतन ) = दान में दो। प्रभु में स्थित हुए, अर्थात् प्रभु को कभी न भूलते हुए हम सदा दान देनेवाले बनें। देकर बचे हुए को खानेवाले बनें। यह यज्ञशेष का सेवन ही प्रभु-अर्चन हो जाता है। वस्तुतः प्रभु-स्मरण करनेवाला व्यक्ति वैषयिक वृत्ति का तो बनता ही नहीं। यह विषय-वासनाओं से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति ‘विरूपाक्ष’ क्यों न बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — १. ज्ञान-दीप्ति से हम प्रभु की परिचर्या करें। २. नैर्मल्य से प्रभु के प्रकाश को देखें। ३. प्रभु-दर्शन करते हुए सदा देकर खाएँ—यज्ञशेष का सेवन करें।

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    विषय

    उसको प्रस्तुत करना उसका गुण वर्णन ।

    भावार्थ

    ( समिधा ) प्रदीप्त करने के साधन काष्ठ से जिस प्रकार अग्नि को तृप्त किया जाता है उसी प्रकार ( सम-इधा ) अच्छी प्रकार तेजस्वी बनाने वाले साधन से ( अग्नि ) अग्नि, आत्मा, गुरु, परमेश्वर की ( दुवस्यत ) उपासना करो और ( अतिथिम् ) सर्वव्यापक, अतिथि के समान पूजनीय उसको ( धृतैः )अग्नि को जिस प्रकार क्षरणशील, पुष्टि - कारक घृत आदि पदार्थों से जगाया जाता है उसी प्रकार उद्दीपन करने. वाले तेजः प्रद साधनों के अनुष्ष्ठानों से उसको (बोधयत ) जगाओ और ( अस्मिन् ) उसमें ( हव्या ) सब पदार्थों, ज्ञानस्तुतियों और कर्मों को और कर्मफलों को आहुति के रूप में ( आ जुहोतन ) निरन्तर त्याग करो ॥ भौतिक अग्नि में हे पुरुषों ! ( समिधा दुवस्यत ) काष्ठ से उसकी सेवा करो, घृताहुतियों से उसको चेतन करो और उसमें चरु पुरोडाश आदि आहुतिरुप में दो । इसी प्रकार यन्त्रकला आदि में भी अग्नि के उद्दीपक पदार्थों से अग्नि को जलाकर (घृतैः ) जलों द्वारा उसकी शक्ति को और भी चैतन्य करके उसे यन्त्रादि में आधान करे॥ शत० ६ । ८ । १ । ६ ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी सत्पुरुशांचीच सेवा करावी. सुपात्री दान करावे. जसे अग्नीमध्ये घृत इत्यादी पदार्थांची आहुती देऊन यज्ञ केला जातो व जगावर उपकार केला जातो तसे विद्वानांना उत्तम पदार्थाचे दान करून जगात विद्या व उत्तम शिक्षण वाढवावे आणि सर्व जगाला सुखी करावे.

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    विषय

    मनुष्यांनी कोणाची सेवा करावी अथवा कोणाची संगतीत रहावे, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे गृहस्थजनहो, जसे (समिधा) चांगल्याप्रकारच्या समिधांनी (वा ज्व हनशी घृत आदी पदार्थांद्वारे) (अग्निम्‌) अग्नी प्रज्वलित करतात, त्याप्रमाणे उपदेश देणाऱ्या विद्वानाची तुम्ही (दुवस्थत) सेवा करा, आणि ज्याप्रमाणे सुसंस्कृत अन्न (घृतै:) घृत आदी पदार्थ अग्निमध्ये होम केल्याने जगावर उपकार होतो, त्याप्रमाणे (अतिथिम्‌) ज्याच्या येण्या-जाण्याची निश्‍चित अशी तिथी नाही (म्हणजे विद्वान उपदेशक केव्हाही गृहस्थाच्या घरी अचानकपणे येतो) त्या उपदेशकाचे सहर्ष स्वागत करून त्याच्या यथोचित सत्कार करावा आणि (अस्मिन्‌) या जगात (हव्या) दानास योग्य अशा वस्तू (आजु होतात) चांगल्या रीतीने (आदराने व प्रसन्नतेने) भेट द्या ॥30॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी केवळ सत्पुरषींचीच सेवा करावी आणि संपत्तीच दान द्यावे. ज्याप्रमाणे यज्ञिकजन घृत आदी पदार्थांचा अग्नीत होम करून जगावर उपकार करतात, त्याप्रमाणे विद्वानांना उत्तम पदार्थांचे दान करून जगात विद्या व सुशिक्षेची वृद्धी करावी आणि साऱ्या संसाराला सुखी करावे ॥30॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O householders, just as fire is kindled with fuel, so serve the learned preacher with well-cooked food, Welcome thy preacher guest with ghee, just as fire is aroused with it in oblations. Give in charity, in this world, all things worth giving.

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    Meaning

    (Agni is an ‘tithe’, a chance guest, which comes at its own will whenever it comes. Serve it with the best of offerings you have. )Light and serve agni (fire) with fuel and fragrant materials. Wake it up, raise it with ghee and other sumptuous offerings as you would feed a venerable chance visitor. Offer the best of yajna into the fire. (Like the fire of yajna, serve the man of light and knowledge with the best you can offer for food and gifts whenever such a venerable person happens to visit you. )

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    Translation

    Kindle the fire with dried wood and arouse the newcomer (i. e. the fire) with clarified butter, Then place your offerings on it. (1)

    Notes

    According to the ritualists this and the next four verses are called Vanivahanam, i. e. driving of agni hither and thither. This verse is repeated from Yaj. III. 1.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্মনুষ্যাণাং কে সেবনীয়াঃ সন্তীত্যাহ ॥
    পুনরায় মনুষ্যা কী সেবন করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে গৃহস্থগণ ! তোমরা যেমন (সমিধা) সম্যক্ ইন্ধন দ্বারা (অগ্নিম্) অগ্নি প্রকাশিত কর সেইরূপ উপদেশক বিদ্বান্ পুরুষের (দুবস্যত) সেবা কর এবং যেমন সুসংস্কৃত অন্ন তথা (ঘৃতৈঃ) ঘৃতাদি পদার্থ দ্বারা অগ্নিতে হোম করিয়া জগদুপকার কর সেইরূপ (অতিথিম্) যাহার আগমনের সময় নিশ্চিত নয় সেই উপদেশক পুরুষকে (বোধয়ত) স্বাগত উৎসাহাদি দ্বারা চৈতন্য কর এবং (অস্মিন্) এই জগতে (হব্যা) প্রদেয় পদার্থকে (আজুহোতন) সম্যক প্রকার প্রদান কর ॥ ৩০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, সৎপুরুষদিগেরই সেবা এবং সুপাত্রকেই দান করিবে যেমন অগ্নিতে ঘৃতাদি পদার্থে হবন করিয়া সংসারের উপকার কর সেইরূপেই বিদ্বান্দিগকে উত্তম পদার্থ দান করিয়া জগতে বিদ্যা এবং সুশিক্ষা বৃদ্ধি করিয়া বিশ্বকে সুখী করিবে ॥ ৩০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স॒মিধা॒গ্নিং দু॑বস্যত ঘৃ॒তৈর্বো॑ধয়॒তাতি॑থিম্ ।
    আऽস্মি॑ন্ হ॒ব্যা জু॑হোতন ॥ ৩০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সমিধাগ্নিমিত্যস্য বিরূপাক্ষ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । গায়ত্রী ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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