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यजुर्वेद अध्याय - 12

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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 26
    ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराडार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    72

    यस्ते॑ऽअ॒द्य कृ॒णव॑द् भद्रशोचेऽपू॒पं दे॑व घृ॒तव॑न्तमग्ने। प्र तं न॑य प्रत॒रं वस्यो॒ऽअच्छा॒भि सु॒म्नं दे॒वभ॑क्तं यविष्ठ॥२६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ते॒। अ॒द्य। कृ॒णव॑त्। भ॒द्र॒शो॒च॒ इति॑ भद्रऽशोचे। अ॒पू॒पम्। दे॒व॒। घृ॒तव॑न्त॒मिति॑ घृ॒तऽव॑न्तम्। अ॒ग्ने॒। प्र। तम्। न॒य॒। प्र॒त॒रमिति॑ प्रऽत॒रम्। वस्यः॑। अच्छ॑। अ॒भि। सु॒म्नम्। दे॒वभ॑क्त॒मिति॑ दे॒वऽभ॑क्तम्। य॒वि॒ष्ठ॒ ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्तेऽअद्य कृणवद्भद्रशोचे पूपन्देव घृतवन्तमग्ने । प्र तन्नय प्रतरँवस्योऽअच्छाभि सुम्नन्देवभक्तँयविष्ठ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। अद्य। कृणवत्। भद्रशोच इति भद्रऽशोचे। अपूपम्। देव। घृतवन्तमिति घृतऽवन्तम्। अग्ने। प्र। तम्। नय। प्रतरमिति प्रऽतरम्। वस्यः। अच्छ। अभि। सुम्नम्। देवभक्तमिति देवऽभक्तम्। यविष्ठ॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 26
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः कीदृशः पाचकः स्वीकार्य इत्याह॥

    अन्वयः

    हे भद्रशोचे यविष्ठ देवाग्ने! यस्ते तव घृतवन्तमभिसुम्नं वस्यो देवभक्तमपूपमच्छ कृणवत् तं प्रतरं पाककर्त्तारं त्वमद्य प्रणय॥२६॥

    पदार्थः

    (यः) (ते) (अद्य) (कृणवत्) कुर्यात् (भद्रशोचे) भद्रा भजनीया शोचिर्दीप्तिर्यस्य तत्सम्बुद्धौ (अपूपम्) (देव) दिव्यभोगप्रद (घृतवन्तम्) बहु घृतं विद्यते यस्मिन् तम् (अग्ने) विद्वन् (प्र) (तम्) (नय) प्राप्नुहि (प्रतरम्) पाकस्य संतारकम् (वस्यः) अतिशयितं वसु तत् (अच्छ) (अभि) (सुम्नम्) सुखस्वरूपम् (देवभक्तम्) देवैर्विद्वद्भिः सेवितम् (यविष्ठ) अतिशयेन युवन्॥२६॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्विद्वत्सुशिक्षितोऽत्युत्तमानां व्यञ्जनानां सुस्वादिष्ठानामन्नानां रुचिकराणां निर्माता पाककर्त्ता संग्राह्यः॥२६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् लोग कैसे रसोइया को स्वीकार करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (भद्रशोचे) सेवने योग्य दीप्ति से युक्त (यविष्ठ) तरुण अवस्था वाले (देव) दिव्य भोगों के दाता (अग्ने) विद्वन् पुरुष! (यः) जो (ते) आपका (घृतवन्तम्) बहुत घृत आदि पदार्थों से संयुक्त (अभि) सब प्रकार से (सुम्नम्) सुखरूप (देवभक्तम्) विद्वानों के सेवने योग्य (अपूपम्) भोजन के योग्य पदार्थों वाला (वस्यः) अत्यन्त भोग्य (अच्छ) अच्छे-अच्छे पदार्थों को (कृणवत्) बनावे, (तम्) उस (प्रतरम्) पाक बनाने हारे पुरुष को आप (अद्य) आज (प्रणय) प्राप्त हूजिये॥२६॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों से अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुए अति उत्तम व्यञ्जन और शष्कुली आदि तथा शाक आदि स्वाद से युक्त रुचिकारक पदार्थों को बनाने वाले पाचक पुरुष का ग्रहण करें॥२६॥

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    विषय

    गुरु का आदर, प्रभु की भक्ति

    पदार्थ

    १. वेद में पाँचों ज्ञानेद्रियों से प्राप्त होनेवाले ज्ञान को ‘ओदन’ [ भोजन ] कहा है, अतः जीव का नाम ही ‘पञ्चौदन’ कर दिया है। विद्यार्थी के लिए इस ओदन का परिपाक करनेवाला उसका आचार्य है। अथर्ववेद ९।५।३७ में ‘पचत पञ्च चौदनान्’ इन शब्दों में इन पाँचों ओदनों के परिपाक का निर्देश है। यह ज्ञान का ओदन ‘घृतवान्’ = मल के क्षरण के द्वारा दीप्ति प्राप्त करानेवाला है। यह ‘अपूप’ = न पूयते = न अपवित्र [ पूयी विशरणे दुर्गन्धे च ] होनेवाला है। इस ( घृतवन्तं अपूपम् ) = नैर्मल्य व दीप्तिवाले, न मलिन होने देनेवाले ज्ञानरूप अपूप को हे ( अग्ने ) = प्रगतिशील छात्र! हे ( भद्रशोचे ) = कल्याणकर ज्ञान की दीप्तवाले! ( देव ) = ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करनेवाले, अतएव दिव्य गुणोंवाले! जो ( ते ) = तेरे लिए ( अद्य ) = आज ( कृणवत् ) = ज्ञानदान करता है ( तं अच्छ ) = उसकी ओर ( प्रतरम् ) = [ अतिशयेन प्रकृष्टं ] बहुत उत्तम ( वस्यः ) = [ वसीयः—अतिशयेन वसु ] निवास के लिए अत्यन्त उपयोगी धन ( प्रनय ) = प्राप्त करा। ( तम् ) = उसके लिए उत्तम-से-उत्तम गुरु-दक्षिणा देने का यत्न कर। २. इस प्रकार गुरु-भक्ति की भावनावाला ( यविष्ठ ) = बुराइयों को अधिक-से-अधिक दूर करनेवाला और अच्छाइयों से अपना मेल करनेवाला होकर ( देवभक्तम् ) = देवों से सेवित ( सुम्नम् ) = [ Hymn ] प्रभु-स्तवन की ( अभि ) = ओर अपने को ( प्रनय ) = ले-चल, अर्थात् ज्ञान देनेवाले गुरु के प्रति तो तेरी श्रद्धा हो ही, साथ ही तू देवों के सेवनीय प्रभु का स्तवन करनेवाला बन।

    भावार्थ

    भावार्थ — जिस आचार्य ने हमें वह ज्ञान प्राप्त कराया, जिससे हमारा जीवन निर्मल हो गया, उस आचार्य के चरणों में हमें यथाशक्ति भेंट देनी चाहिए और सदा प्रभु का स्तवन करनेवाला बनना चाहिए।

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    विषय

    सेनापति और राजा का परस्पर सम्बन्ध ।

    भावार्थ

    हे ( देव ) देव, राजन् ! ( यः ) जो ( अद्य ) आज, नित्य (ते) तेरे लिये ( कृतवन्तम् ) घृत से भरा हुआ ( अपूपम् ) अधूप, मालपूए के समान भोज्य पदार्थ को ( कृणवत् ) तैयार करता है । ( तं ) उस (पतरम्) उत्क्रष्ट पुरुष को ( प्र नय ) प्राप्त कर । हे ( वनिष्ठ ) बलवान् पुरुष ! तू ( वश्यः) सर्व श्रेष्ठ ( सुन्नम् ) सुखकारी ( देवभक्तम् ) विद्वान् सात्विक पुरुषोचित अन्न्न को ( अच्छ अभि ) प्राप्त करे ॥ सेनापति पक्ष में- हे ( भद्रशोचे ) कल्याण, कमनीय तेजवाले देव !अग्ने! राजन् ! ( यः ते ) जो तेरे ( धृतवन्तम् अपूपं ) तेजोयुक्त इन्द्रिय और राज्य सामर्थ्य को ( कृणवत् ) करता है ( ते ) उस ( प्रतरं ) राज्य कार्य को पार लगानेवाले राज्यकर्ता को । वस्यः नय ) उत्तम धन प्राप्त करा । हे ( यविष्ट ) युवतम् ! वीर्यवन् ! उस ( देवभक्तं राज) के सेवन योग्य ( सुम्नं अच्छ अभि ) सुखदायी धन भी प्रदान कर ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । विराडार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्वानांकडून पाककौशल्य प्राप्त केलेल्या व अति उत्तम खाद्य पदार्थ बनविणाऱ्या व भाजी आणि इतर पदार्थ रुचकर बनविणाऱ्या व्यक्तीला स्वयंपाकी नेमावे.

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    विषय

    विद्वज्जनांनी पाचक वा सैंपाकी कोणास नेमावे (सैपाकी कसा असावा) पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वान गृहस्थास उद्देशून) (भद्रशोचे) तेजस्वी भद्ररुपधारी (यविष्ठ) युवा आणि (देव) दिव्य भोगासाठी खास सामग्री देणाऱ्या हे (अग्ने) विद्वान गृहस्थ महोदय, (य:) जो (ते) आपणांस आवडणारे (घृतवन्तम्‌) घृत आदी पदार्थांदच्या साहाय्याने तयार केलेले (अभि) सर्वदृष्ट्या (सुम्नम्‌) आनंददायक आणि (देवभक्तम्‌) विद्वानांना (पाहुण्यांसाठी) वाढण्यास योग्य असे (अपूपम्‌) भोज्य पदार्थ (पुरी, मिष्टानादी) आहेत, असे (वस्य:) अत्यंत प्रिय व अ(अच्छ) उत्तम स्वादिष्ट पदार्थ जो (कृणवत्‌) तयार करू शकतो, (तम्‌) त्या (प्रतरम्‌) पाचक (सैंपाकी वा आचारी) मनुष्यास हे गृहस्थ महोदय, तुम्ही (अद्य) आज (प्रणय) प्राप्त करा (घरात असा कुशल सैंपाकी ठेवा) ॥26॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी अशा कुशल मनुष्यास पाचक म्हणून ठेवावे की ज्याने अनुभवी व अतिकुशल जनांकडून सैंपाक करण्याचे प्रशिक्षण घेतले आहे, जो अति उत्तम स्वादिष्ट व्यंजन तयार करू शकतो. तसेच रुचकर भाज्या व अन्य स्वादिष्ट पदार्थ तयार करू शकतो. ॥26॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O lovely, young learned person, the bestower of enjoyments, always select him as thy cook, who can prepare highly delicious, palatable meals, mixed with butter, fit to be taken by the wise.

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    Meaning

    Agni, brilliant and blissful lord of light, generous and ever youthful, whosoever may well prepare and faithfully offer for you rich and sumptuous food as sacrifice to-day, shower on him/her the gift of your light and take that favourite of the gods across to the world of joy.

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    Translation

    O adorable Lord, O divinity with pleasing brilliance, this sacrificer has presented to you today a cake prepared with melted butter. O most youthful, may you lead him to greater fortune and to the bliss which is enjoyed by the enlightened ones. (1)

    Notes

    Apüpam, पुरोडाशं ‚а cake; a kind of fine bread cooked with purified butter. Devabhaktam,देवै: सेवितं, enjoyed by gods, or by the enlightened ones.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনর্বিদ্বদ্ভিঃ কীদৃশঃ পাচকঃ স্বীকার্য় ইত্যাহ ॥
    বিদ্বান্গণ কেমন পাচক গ্রহণ করিবেন তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ভদ্রশোচে) সেবন-যোগ্য দীপ্তিযুক্ত (য়বিষ্ঠ) তরুণ অবস্থা সম্পন্ন (দেব) দিব্য ভোগের দাতা (অগ্নে) বিদ্বান্ পুরুষ ! (য়ঃ) যে (তে) আপনার (ঘৃতবন্তম্) বহু ঘৃতাদি পদার্থ সংযুক্ত (অভিঃ) সর্ব প্রকারে (সুম্নম্) সুখরূপ (দেবভক্তম্) বিদ্বান্দিগের সেবনীয় (অপূপম্) আহার যোগ্য পদার্থ সংযুক্ত (বস্যঃ) অত্যন্ত ভোগ্য (অচ্ছ) ভাল ভাল পদার্থকে (কৃণবৎ) তৈরী করিবেন (তম্) সেই (প্রতরম্) পাচককে আপনি (অদ্য) আজ (প্রণয়) প্রাপ্ত হউন ॥ ২৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, বিদ্বান্দিগের নিকট সুশিক্ষা প্রাপ্ত অতি উত্তম ব্যঞ্জন এবং শষ্কুলী (পুরি) ইত্যাদি তথা শাকাদি স্বাদযুক্ত রুচিকারক পদার্থ নির্মাতা পাচক পুরুষের গ্রহণ করিবে ॥ ২৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়স্তে॑ऽঅ॒দ্য কৃ॒ণব॑দ্ ভদ্রশোচেऽপূ॒পং দে॑ব ঘৃ॒তব॑ন্তমগ্নে ।
    প্র তং ন॑য় প্রত॒রং বস্যো॒ऽঅচ্ছা॒ভি সু॒ম্নং দে॒বভ॑ক্তং য়বিষ্ঠ ॥ ২৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়স্ত ইত্যস্য বৎসপ্রীর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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