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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 36
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
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अ॒प्स्वग्ने॒ सधि॒ष्टव॒ सौष॑धी॒रनु॑ रुध्यसे। गर्भे॒ सञ्जा॑यसे॒ पुनः॑॥३६॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒ग्ने॒। सधिः॑। तव॑। सः। ओष॑धीः। अनु॑। रु॒ध्य॒से॒। गर्भे॑। सन्। जा॒य॒से॒। पुन॒रिति॒ पुनः॑ ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्स्वग्ने सधिष्टव सौषधीरनु रुध्यसे । गर्भे सन्जायसे पुनः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अप्स्वित्यप्ऽसु। अग्ने। सधिः। तव। सः। ओषधीः। अनु। रुध्यसे। गर्भे। सन्। जायसे। पुनरिति पुनः॥२६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जीवाः कथं कथं पुनर्जन्म प्राप्नुवन्तीत्याह॥
अन्वयः
हे अग्ने अग्निरिव जीव! सधिर्यस्त्वमप्सु गर्भे ओषधीरनुरुध्यसे, स त्वं गर्भे स्थितः सन् पुनर्जायसे। इमावेव क्रमानुक्रमौ तव स्त इति जानीहि॥३६॥
पदार्थः
(अप्सु) जलेषु (अग्ने) अग्निवद्वर्त्तमान विद्वन् (सधिः) सोढा, अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य धः, इश्च प्रत्ययः (तव) (सः) सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम् [अष्टा॰६.१.१३४] इति सन्धिः (ओषधीः) सोमादीन् (अनु) (रुध्यसे) (गर्भे) कुक्षौ (सन्) (जायसे) (पुनः)। [अयं मन्त्रः शत॰६.८.२.४ व्याख्यातः]॥३६॥
भावार्थः
ये जीवाः शरीरं त्यजन्ति, ते वायावोषध्यादिषु च भ्रान्त्वा, गर्भं प्राप्य यथासमयं सशरीरा भूत्वा पुनर्जायन्ते॥३६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब जीव किस किस प्रकार पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य विद्वान् जीव! जो तू (सधिः) सहनशील (अप्सु) जलों में (ओषधीः) सोमलता आदि ओषधियों को (अनुरुध्यसे) प्राप्त होता है, (सः) सो (गर्भे) गर्भ में (सन्) स्थित होकर (पुनः) फिर-फिर (जायसे) जन्म लेता है, ये ही दोनों प्रकार आने-जाने अर्थात् जन्म-मरण (तव) तेरे हैं, ऐसा जान॥३६॥
भावार्थ
जो जीव शरीर को छोæड़ते हैं, वे वायु और ओषधि आदि पदार्थों से भ्रमण करते-करते गर्भाशय को प्राप्त होके नियत समय पर शरीर धारण करके प्रकट होते हैं॥३६॥
विषय
आदर्श प्रचारक
पदार्थ
१. हे ( अग्ने ) = ज्ञान के प्रकाशवाले, प्रजाओं को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले! ( विरूप ) = विशिष्ट रूपवाले तेजस्विन्! ( तव ) = तेरा ( अप्सु ) = प्रजाओं में ( सधिः ) = समान स्थान है, अर्थात् जहाँ प्रजाएँ हैं, वहीं तुझे भी होना है, प्रजाओं में रहते हुए उन्हें ज्ञान देने के लिए सदा यत्नशील रहना है। २. ( सः ) = वह तू प्रजाओं को ज्ञान देता हुआ ( सौषधीः ) = यव आदि [ यवाद्याः— म० ] ओषधियों का ही ( अनुरुध्यसे ) = [ स्वीकरोषि—म० ] स्वीकार करता है। तेरा भोजन सात्त्विक व वानस्पतिक ही होता है। ३ [ क ] ( गर्भे सन् ) = प्रजाओं के मध्य में रहता हुआ तू ( पुनः ) = फिर ( जायसे ) = बाहर हो जाता है, अर्थात् निरन्तर आगे चलते जाने के कारण यह सदा किसी एक स्थान पर ठहरा नहीं रहता। आज यहाँ की प्रजा में है, कल इससे बाहर होकर अन्यत्र चला गया है। [ ख ] अथवा ( गर्भे सन् ) = प्रति वर्ष चौमासे में गर्भ में, अदृश्यरूप में, कहीं एकान्त अज्ञात स्थान में ठहरकर तू ( पुनः ) = फिर ( जायसे ) = प्रकट हो जाता है और अपने अन्दर ग्रहण किये हुए ज्ञान का प्रसार करता है।
भावार्थ
भावार्थ — आदर्श पुरुष वही है जो प्रजाओं के साथ ही रहता है, वानस्पतिक भोजन करता है। चार मास एकान्त में अपने को ज्ञान से भरकर फिर ज्ञान-प्रसार के लिए बाहर आ जाता है।
विषय
गर्भोत्पति के समान सजोत्पति का वर्णन ।
भावार्थ
गर्भों में बीजोत्पत्ति की समानता से राजोत्पत्ति का वशन करते हैं | है (अग्ने) तेजस्विन् ! राजन् ! जिस प्रकार जीव की ( अप्सु संधिः ) जलों में स्थिति है । उसी प्रकार हे राजन् ! (अप्सु से संधिः) आप्त प्रजाजनों में तेरा निवासस्थान है। जीव, जिस प्रकार ( ओषधीः अनुरुध्यसे) औषधियों को प्राप्त होता है । औषधिरूप में उत्पन्न होता है । अथवा (सः) वह जीव ( ओषधीः ऋतु ) ओषधियों के समान ( रुध्यसे ) गर्भों में उत्पन्न होता है वह ठीक औषधियों के समान ही मातृ-योनि कमल में गर्भित होकर अपना मूल जमाकर उत्पन्न होता है। हे जीव ! तू ( गर्भे सन् पुनः जायसे) गर्भ में रहकर पुनः पुत्ररूप से या शरीरधारी रूप से उत्पन्न होता है । उसी प्रकार राजा का भी ( अप्सु संधिः ) प्रजाओं के बीच मैं निवासस्थान है । ( स ) हे राजन् ! वह तू ( ओषधीः अनुरुदयसे ) प्रजाओं के हित के लिये ही राज्यपद ग्रहण के लिये आग्रह किया जाता है । उनके ( गर्भे सन् ) ग्रहण या वश करने में समर्थ होकर, तू ( पुन: जायसे) पुनः वार २ शक्तिमान् होकर प्रकट होता है ॥शत० ६ । ८ । २ । ४॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जे जीव शरीर सोडतात ते वायू व औषधी (वनस्पती) इत्यादी पदार्थांमध्ये भ्रमण करून गर्भाशयात येतात व योग्य वेळ येताच शरीर धारण करून प्रकट होतात.
विषय
जीव कशाप्रकारे पुनर्जन्म प्राप्त करतात, याविषयी
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान (बुद्धिमान आणि आपल्या सत्य स्वरूपाला ओळखण्यास पात्र) हे जीवात्मा, तू (हे जाणून घे की) तू (सधि:) सहनशील असून (अप्सु) जलामध्ये (औषधी:) आणि सोमलता आदी औषधीनां प्राप्त होतोस (तू जलात व औषधतीत राहतोस) आणि (स:) गर्भात (सन्) स्थित होऊन (पुन:) वारंवार जन्म-मरण (तव) तुझेच होतात, हे जाणून घे (आपल्या सत्य अविनाशी रुपाला समजून घे) ॥36॥
भावार्थ
भावार्थ - जे जीवात्मा शरीराचा त्याग करतात हे वायूमध्ये आणि औषधी आदी पदार्थांमध्ये भ्रमण करीत नंतर स्त्रीगर्भात येऊन नियतवेळी पुन्हा शरीर धार करून प्रकट होतात ॥36॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned and tolerant soul, after roaming in waters and plants, thou enterest the womb, and art born again and again.
Meaning
Agni, seed of life, the soul with the subtle and the causal body, your home is in the celestial waters of space. You love to grow in existence with the herbs, and thence, placed in the mother’s womb, are born again.
Translation
O fire, your place is in the waters and you force yourself in the herbs. Having entered them, you are born again out of them. (1)
Notes
The idea is that originally the fire resides in water. From there it enters into plants, herbs and trees and from them it appears in the form of fire. Having been extinguished and tumed into ashes it is consigned to waters, whence it will return again following the same cycle.
बंगाली (1)
विषय
অথ জীবাঃ কথং কথং পুনর্জন্ম প্রাপ্নুবন্তীত্যাহ ॥
এখন জীব কী কী প্রকার পুনর্জন্ম প্রাপ্ত হয় এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) অগ্নি তুল্য বিদ্বান্ জীব ! তুমি যে (সধিঃ) সহনশীল (অপ্সু) জলে (ওষধীঃ) সোমলতাদি ওষধি সকল (অনুরুধ্যসে) প্রাপ্ত হও (সঃ) উহা (গর্ভে) গর্ভে (সন্) স্থিত হইয়া (পুনঃ) পুনঃ (জায়সে) জন্ম গ্রহণ করে, ইহাই উভয় প্রকার আসা-যাওয়ার অর্থাৎ জন্ম মরণ (তব) তোমার, এই রকম জানিও ॥ ৩৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে জীব শরীর ত্যাগ করে উহা বায়ু ও ওষধি ইত্যাদি পদার্থে ভ্রমণ করিয়া গর্ভাশয় প্রাপ্ত হইয়া নিশ্চিত সময়ে শরীর ধারণ করিয়া প্রকট হয় ॥ ৩৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒প্স্ব᳖গ্নে॒ সধি॒ষ্টব॒ সৌষ॑ধী॒রনু॑ রুধ্যসে ।
গর্ভে॒ সঞ্জা॑য়সে॒ পুনঃ॑ ॥ ৩৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অপ্স্বগ্ন ইত্যস্য বিরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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