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यजुर्वेद अध्याय - 12
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यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 20
ऋषिः - वत्सप्रीर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
122
स॒मु॒द्रे त्वा॑ नृ॒मणा॑ऽअ॒प्स्वन्तर्नृ॒चक्षा॑ऽईधे दि॒वो अ॑ग्न॒ऽऊध॑न्। तृ॒तीये॑ त्वा॒ रज॑सि तस्थि॒वास॑म॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षाऽअ॑वर्धन्॥२०॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रे। त्वा॒। नृ॒मणाः॑। नृ॒मना॒ इति॑ नृ॒ऽमनाः॑। अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒न्तः। नृ॒चक्षा॒ इति॑ नृ॒चऽक्षाः॑। ई॒धे॒। दि॒वः। अ॒ग्ने॒। ऊध॑न्। तृ॒तीये॑। त्वा॒। रज॑सि। त॒स्थि॒वास॒मिति॑ तस्थि॒ऽवास॑म्। अ॒पाम्। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। म॒हि॒षाः। अ॒व॒र्ध॒न् ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्रे त्वा नृमणाऽअप्स्वन्तर्नृचक्षाऽईधे दिवोऽअग्नऽऊधन् । तृतीये त्वा रजसि तस्थिवाँसमपामुपस्थे महिषा अवर्धन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
समुद्रे। त्वा। नृमणाः। नृमना इति नृऽमनाः। अप्स्वित्यप्ऽसु। अन्तः। नृचक्षा इति नृचऽक्षाः। ईधे। दिवः। अग्ने। ऊधन्। तृतीये। त्वा। रजसि। तस्थिवासमिति तस्थिऽवासम्। अपाम्। उपस्थ इत्युपऽस्थे। महिषाः। अवर्धन्॥२०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजासम्बन्धमाह॥
अन्वयः
हे अग्नेः! नृमणा अहं यं त्वा समुद्रेऽग्निमिवेधे नृचक्षा अहमप्स्वन्तरीधे दिव ऊधन्नीधे, तृतीये रजसि तस्थिवांसं सूर्यमिव यं त्वा त्वामपामुपस्थे महिषा अवर्धन्, स त्वमस्मान् सततं वर्धय॥२०॥
पदार्थः
(समुद्रे) अन्तरिक्षे (त्वा) त्वाम् (नृमणाः) नायकेषु मनो यस्य सः (अप्सु) अन्नेषु जलेषु वा (अन्तः) मध्ये (नृचक्षाः) नृषु मनुष्येषु चक्षो दर्शनं यस्य सः (ईधे) प्रदीपये (दिवः) सूर्यप्रकाशस्य (अग्ने) विद्वान् (ऊधन्) ऊधनि उषसि। ऊध इत्युषसो नामसु पठितम्॥ (निघं॰१.८) (तृतीये) त्रयाणां पूरके (त्वा) त्वाम् (रजसि) लोके (तस्थिवांसम्) तिष्ठन्तम् (अपाम्) जलानाम् (उपस्थे) समीपे (महिषाः) महान्तो विद्वांसः। महिष इति महन्नामसु पठितम्॥ (निघं॰३.३) (अवर्धन्) वर्धेरन्। [अयं मन्त्रः शत॰६.७.४.५ व्याख्यातः]॥२०॥
भावार्थः
प्रजासु वर्त्तमानाः सर्वे प्रधानपुरुषा राजवर्गं नित्यं वर्द्धयेयुः, राजपुरुषाः प्रजापुरुषांश्च॥२०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी राजा और प्रजा के सम्बन्ध का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् पुरुष! (नृमणाः) नायक पुरुषों को विचारने वाला मैं जिस (त्वा) आपको (समुद्रे) आकाश में अग्नि के समान (ईधे) प्रदीप्त करता हूं (नृचक्षाः) बहुत मनुष्यों का देखने वाला मैं (अप्सु) अन्न वा जलों के (अन्तः) बीच प्रकाशित करता हूं (दिवः) सूर्य के प्रकाश के (ऊधन्) प्रातःकाल में प्रकाशित करता हूं (तृतीये) तीसरे (रजसि) लोक में (तस्थिवांसम्) स्थित हुए सूर्य के तुल्य जिस (त्वा) आप को (अपाम्) जलों के (उपस्थे) समीप (महिषाः) महात्मा विद्वान् लोग (अवर्धन्) उन्नति को प्राप्त करें, सो आप हम लोगों की निरन्तर उन्नति कीजिये॥२०॥
भावार्थ
प्रजा के बीच वर्त्तमान सब श्रेष्ठ पुरुष राजपुरुषों को और राजपुरुष प्रजापुरुषों को नित्य बढ़ाते रहें॥२०॥
विषय
नृमणाः व नृचक्षा
पदार्थ
१. हे ( अग्ने ) = प्रकाशस्वरूप प्रभो! ( नृमणाः ) = [ नृषु मनो यस्य ] मनुष्यों के हित की कामनावाला ( नृचक्षाः ) [ नॄन् चष्टे ] = मनुष्यों का पालन [ look after ] करनेवाला व्यक्ति ( त्वा ) = आपको ( समुद्रे ) = समुद्र में ( अप्सु-अन्तः ) = जलों में तथा ( दिवः ऊधन् ) = [ द्युलोकस्य महोदके प्रदेशे—उ० ] = अन्तरिक्षस्थ मेघों में ( ईधे ) = समिद्ध करता है, अर्थात् जिस भी मनुष्य का मन स्वार्थ से ऊपर उठ जाता है वह समुद्रों में, जलों में व मेघों में आपकी महिमा का दर्शन कर पाता है। निर्मल मन सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखता है। २. ( तृतीये रजसि ) = तृतीय लोक में ( तस्थिवांसम् ) = ठहरे हुए ( त्वा ) = आपको अपाम् ( उपस्थे ) = जलों के समीप—नदी-तटों पर ( महिषाः ) = [ मह पूजायाम् ] उपासक लोग ( अवर्धन् ) = बढ़ाते हैं, अर्थात् आपकी महिमा का गायन करते हैं। ३. प्रभु तृतीय लोक में स्थित हैं का अभिप्राय यह है कि [ क ] प्रभु का दर्शन स्थूल व सूक्ष्म-शरीरों में न होकर कारणशरीर में होता है, जोकि प्राणिमात्र का एक है, अतः हमें स्थूल व सूक्ष्मशरीरों से ऊपर उठकर कारणशरीर में पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए। [ ख ] अथवा प्रभु का दर्शन इन्द्रियों व इच्छाप्रधान मन से न होकर विवेकवाली बुद्धि से होता है, अतः प्रभु का स्थान इन्द्रियों व मन से परे बुद्धि ही है। [ ग ] अथवा प्रभु को तृतीय स्थान में स्थित इसलिए भी कहते हैं कि वे ऋग् व यजुः से ऊपर उठकर साममन्त्रों का विषय हैं। [ घ ] सामान्य बुद्धि प्रभु को पृथिवी व अन्तरिक्ष में स्थित न समझकर उसे द्युलोकस्थ ही समझती है। [ ङ ] अथवा बाल्यकाल क्रीड़ासक्त होने से प्रभु का उपासक नहीं होता, यौवन भी कुछ विषयासक्ति के कारण प्रभु-स्मरण से दूर रहता है और अन्ततः तीसरे वार्धक्य में मनुष्य प्रभु का स्मरण करनेवाला होता है। ४. मन्त्र में ‘समुद्रे अप्सु, दिवः ऊधनि’ इन शब्दों का यह भी अर्थ सङ्गत है कि ‘प्रसादगुणयुक्त मन में [ स+मुद् ] सदा क्रियाशील बने रहने में [ आपः = कर्माणि ] तथा प्रकाश के उषःकाल में [ ऊधन् = उषस्—नि० ] प्रभु का दर्शन होता है। उत्तरार्ध के ‘अपाम् उपस्थे’ इन शब्दों का अर्थ यह होगा कि ‘कर्मों की गोद में’ अर्थात् सदा कार्य करते हुए ही प्रभुदर्शन हो सकता है। प्रभु की उपासना ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ स्वकर्मपालन से ही होती है।
भावार्थ
भावार्थ — हम स्वार्थ से ऊपर उठकर प्रसादयुक्त मन में प्रभु का दर्शन करें। प्रभु-दर्शन के लिए कर्मों में लगे रहना तथा साथ ही ज्ञान के उषःकाल को अपने जीवन में लाना भी आवश्यक है।
विषय
ओनल और विद्युत् के समान राजे पद का वर्णन ।
भावार्थ
( नृमणा: ) मनुष्यों के भीतर अपने चित्त को देनेवाला, लोकोपकारक पुरुष (त्वा) तुझको ( समुद्रे ) समुद्र के बीच और (अप्सु अन्तः ) जलों के भीतर से भी विद्युत् या बड़वानल के रूप में ( इधे ) प्राप्त करता है और उसी प्रकार ( समुद्रे अप्सु अन्तः स्वा ईधे ) उत्तम अम्युदय के मार्ग पर प्रजाओं के बीच राजा को प्रज्वलित करता है । ( नृचक्षाः ) मनुष्यों को ज्ञानदर्शन करानेवाला विद्वान् जन ही ( दिवः ऊधन् ) सूर्य प्रकाश के उद्गमस्थान, या आकाश के ऊधस्,गाय के धान के समान नित्य रसप्रदान करनेवाले मेघ में विद्युत् के समान (दिवः अधन् ) ज्ञान प्रकाश के उद्गमस्थान आचार्य में ( ईधे ) प्रज्वलित करता है और (तृतीय) सर्वोच्च ( रजसि ) लोकमें ( तस्थिवांस ) विराज- मान (त्वा) तुझको (महिषा: ) बड़े २ विद्वान् लोग ( अपाम् उपस्थे ) प्रजाओं के बीच, जलों के बीच, विद्युत् के समान ( अवर्धन् ) बढ़ावें ॥शत० ६ । ७।४।५ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । निचृदार्षी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
प्रजेतील सर्वश्रेष्ठ पुरुषांनी राजाला उन्नत करावे व राजाने प्रजेला उन्नत करावे.
विषय
पुनश्च, राजा आणि प्रजा, यांच्या संबंधी कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (प्रजाजनांपैकी एक श्रेष्ठ विद्वान राजाला उद्देशून म्हणत आहे) हे (अग्ने) विद्वान राजा, मी (एक प्रजाजन) (त्वा) तुम्हाला (समुद्रे) अंतरिक्षात ज्याप्रमाणे अग्नी (विद्युत, सूर्य-प्रकाश आदी रुपात) प्रकाशित होतो, त्याप्रमाणे मी (त्वा) तुम्हाला (ईधे) (श्रेष्ठ कर्म करण्यासाठी) प्रेरित वा उत्साहित करतो. (नृचक्ष:) अनेक माणसांचे निरीक्षण वा संचार करणारा मी तुम्हाला (अप्सु) अन्न आणि जल (अन्त:) यांमधे वा यासाठी प्रेरित व उत्साहित करतो (लोकांसाठी तुम्ही अन्न-जलादीची व्यवस्था करावी, अशी प्रार्थना करतो.) (दिव:) सूर्याच्या प्रकाशाने उजळून निघालेल्या (ऊधन्) प्रात:काळी तुम्हाला विनंती करतो. (तृतीये) तिसऱ्या (रजसि) लोकामध्ये (तस्थिवांसम्) स्थित जो सूर्य, त्या सूर्याप्रमाणे (अपाम्) पाण्याच्या (नदी, सरोवर, कूप आदीच्या) (उपस्थे) जवळ (महिष:) महात्मा विद्वज्जनांनी (अवर्धन्) तुम्हाला प्राप्त करावे (जलाशयाकाठी असलेल्या विद्वानांच्या आश्रम आदी स्थानी तुम्ही त्यांच्याजवळ जावे) अशाप्रकारे तुम्ही आमची व आम्ही तुमची उन्नती करावी ॥20॥
भावार्थ
भावार्थ - प्रजेतील सर्व श्रेष्ठ पुरुषांनी राज्यकार्यात राजाला नित्य सहकार्य करावे आणि राजपुरुषांनी देखील राज्यकार्यात प्रजेची उन्नती व सुख सोय करावी ॥20॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, I the lover of leaders, illuminate thee, like lightning in the sky. I, the judge of the worth of men, spread thy fame over seas, The high-souled literary persons, like the sun in the third high region, elevate thee in the midst of the subjects.
Meaning
Agni, light and life of the world, a leader of thought among men, as I am, I discover and light you in the oceans. A visionary of humanity, I discover you in the foods, in the vapours and in the clouds. In the third region of the heavens of light, abiding in the solar sphere, in the dawn and in the heart of steam and flowing waters, great men discover, light and develop you.
Translation
O fire, the friend of men (the creator) has kindled you in the ocean; overseer of men (the Lord) has kindled you in the waters of mid-space and in the breast of heaven. As you stand on the third high region, the vital breaths fan you up in the lap of waters. (1)
Notes
Nrmanah, नृषु मनो यस्य स:, whose mind is devoted to men, і. е. प्रजापति:, the creator Lord. Nrcaksah, नृषु मनुष्येषु चक्षो दर्शनं यस्य स:, one who oversees men; also प्रजापति:Samudre, Apsvantah, Divo üdhan, in the ocean, in the waters of the mid-space, in the breast of heaven. Üdhas literally is the udder of any female; in women it 1s breast. Mahisah, महांत: प्राणा:, mighty vital breaths; mighty Maruts (Griffith).
बंगाली (1)
विषय
পুনা রাজপ্রজাসম্বন্ধমাহ ॥
পুনঃ রাজা ও প্রজার সম্পর্কে উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্বানপুরুষ ! (নৃমণাঃ) নায়ক পুরুষদিগের বিচারক আমি (ত্বা) আপনাকে (সমুদ্রে) আকাশে অগ্নিসদৃশ (ঈধে) প্রদীপ্ত করি (নৃচক্ষাঃ) বহু মনুষ্যের চাক্ষুষ দর্শনকারী আমি (অপ্সু) অন্ন বা জলের (অন্তঃ) মধ্যে প্রকাশিত করি । (দিবঃ) সূর্যের প্রকাশে (ঊধন্) প্রাতঃকালে প্রকাশিত করি । (তৃতীয়ে) তৃতীয় (রজসি) লোকে (তস্থিবাংসম্) স্থিত সূর্য্য তুল্য যে (ত্বা) আপনাকে (অপাম্) জলের (উপস্থে) সমীপ (মহিষাঃ) মহাত্মা বিদ্বান্ লোকেরা (অবর্ধন্) উন্নতি প্রাপ্ত করিবে, সুতরাং আপনি আমাদিগের নিরন্তর উন্নতি করুন ॥ ২০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- প্রজামধ্যে বর্ত্তমান সর্বশ্রেষ্ঠ পুরুষ রাজপুরুষদিগের এবং রাজপুরুষ প্রজাপুরুষদিগের উন্নতি করিতে থাকিবে ॥ ২০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒মু॒দ্রে ত্বা॑ নৃ॒মণা॑ऽঅ॒প্স্ব᳕ন্তনৃর্চক্॒ষা॑ऽঈধে দি॒বো অ॑গ্ন॒ऽঊধ॑ন্ ।
তৃ॒তীয়ে॑ ত্বা॒ রজ॑সি তস্থি॒বাᳬंস॑ম॒পামু॒পস্থে॑ মহি॒ষাऽঅ॑বর্ধন্ ॥ ২০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সমুদ্র ইত্যস্য বৎসপ্রীর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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