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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 36
    ऋषिः - विरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अ॒प्स्वग्ने॒ सधि॒ष्टव॒ सौष॑धी॒रनु॑ रुध्यसे। गर्भे॒ सञ्जा॑यसे॒ पुनः॑॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्स्वित्य॒प्ऽसु। अ॒ग्ने॒। सधिः॑। तव॑। सः। ओष॑धीः। अनु॑। रु॒ध्य॒से॒। गर्भे॑। सन्। जा॒य॒से॒। पुन॒रिति॒ पुनः॑ ॥२६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्स्वग्ने सधिष्टव सौषधीरनु रुध्यसे । गर्भे सन्जायसे पुनः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अप्स्वित्यप्ऽसु। अग्ने। सधिः। तव। सः। ओषधीः। अनु। रुध्यसे। गर्भे। सन्। जायसे। पुनरिति पुनः॥२६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 36
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    भावार्थ -
    गर्भों में बीजोत्पत्ति की समानता से राजोत्पत्ति का वशन करते हैं | है (अग्ने) तेजस्विन् ! राजन् ! जिस प्रकार जीव की ( अप्सु संधिः ) जलों में स्थिति है । उसी प्रकार हे राजन् ! (अप्सु से संधिः) आप्त प्रजाजनों में तेरा निवासस्थान है। जीव, जिस प्रकार ( ओषधीः अनुरुध्यसे) औषधियों को प्राप्त होता है । औषधिरूप में उत्पन्न होता है । अथवा (सः) वह जीव ( ओषधीः ऋतु ) ओषधियों के समान ( रुध्यसे ) गर्भों में उत्पन्न होता है वह ठीक औषधियों के समान ही मातृ-योनि कमल में गर्भित होकर अपना मूल जमाकर उत्पन्न होता है। हे जीव ! तू ( गर्भे सन् पुनः जायसे) गर्भ में रहकर पुनः पुत्ररूप से या शरीरधारी रूप से उत्पन्न होता है । उसी प्रकार राजा का भी ( अप्सु संधिः ) प्रजाओं के बीच मैं निवासस्थान है । ( स ) हे राजन् ! वह तू ( ओषधीः अनुरुदयसे ) प्रजाओं के हित के लिये ही राज्यपद ग्रहण के लिये आग्रह किया जाता है । उनके ( गर्भे सन् ) ग्रहण या वश करने में समर्थ होकर, तू ( पुन: जायसे) पुनः वार २ शक्तिमान् होकर प्रकट होता है ॥शत० ६ । ८ । २ । ४॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विरूप ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥

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