यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 10
ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - आर्ष्युष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
1
या व्या॒घ्रं विषू॑चिक॒ोभौ वृकं॑ च॒ रक्ष॑ति। श्ये॒नं प॑त॒त्रिण॑ꣳ सि॒ꣳहꣳ सेमं पा॒त्वꣳह॑सः॥१०॥
स्वर सहित पद पाठया। व्या॒घ्रम्। विषू॑चिका। उ॒भौ। वृक॑म्। च॒। रक्ष॑ति। श्ये॒नम्। प॒त॒त्रिण॑म्। सि॒ꣳहम्। सा। इ॒मम्। पा॒तु॒। अꣳह॑सः ॥१० ॥
स्वर रहित मन्त्र
या व्याघ्रँविषूचिकोभौ वृकञ्च रक्षति । श्येनम्पतत्रिणँ सिँहँ सेमम्पात्वँहसः ॥
स्वर रहित पद पाठ
या। व्याघ्रम्। विषूचिका। उभौ। वृकम्। च। रक्षति। श्येनम्। पतत्रिणम्। सिꣳहम्। सा। इमम्। पातु। अꣳहसः॥१०॥
भावार्थ -
( व्याघ्रम् ) व्याघ्र के समान शूरवीर और ( वृकम् च ) भेड़ियों के समान शत्रु पर जा पड़नेवाले अथवा व्याघ्र जो आहार को सूंघ कर ही पता लगा लेता है उसी प्रकार जो सूक्ष्म सूक्ष्म लक्षण से शत्रु का पता लगा ले और वृक भेड़ आदि को बल से हर लेता है उसी प्रकार जो शत्रु राज्य को हर ले (उभौ ) उन दोनों का जो ( विषूचिका ) विविध पदार्थों को सूचना करनेवाली संस्था ( रक्षति) उनको शत्रु के पंजे में पड़ने से बचाती है इसी प्रकार की सूचना देनेवाली संस्था ( श्येनम् ) बाज के समान सहसा शत्रु पर ( पतत्रिणम् ) सेना के दोनों पक्षों (Wings) के साथ वेग से ना टूटने वाले विजयी की और ( सिंहम् ) सिंह के समान पराक्रमी शूरवीर पुरुष की (पाति) रक्षा करती है, उसको शत्रु की चालें बतलाकर शत्रु के हाथों पड़ने से बचाती है (सा) वह ( इमम् ) इस राजा को भी शत्रु की ओर से होने वाले ( अहंसः ) वध आदि क्रूर कर्म से (पातु) बचावे । व्याघ्र, वृक, बाज और सिंह ये जीव दूर से ही अपने आहार आदि के विषय में जान लेते। हैं उनकी जान लेने की घ्राणशक्ति 'विषूचिका' है । सेनापति, राजा, पराक्रमी पुरुषों की भी गुप्त समाचार देनेवाली जासूस संस्था 'विषूचिका' है और ऐसे यन्त्र भी प्राचीन साहित्य में 'प्रज्ञप्ति-साधन' कहे गये हैं । अर्थशास्त्र में 'गुप्त प्रणिधिसंस्था' रूप में है । शत० १२ । ७ । २१ ॥
अध्यात्म में – विविध ज्ञानों को देनेवाले अन्न, प्रज्ञा विषूचिका है । विविध पदार्थों के ज्ञाता 'व्याघ्र', कर्म फलों के आदाता 'वृक' तीक्ष्ण ज्ञानी श्येन, पतत्री, हंस, आत्मा, दोषों के नाशक योगी 'सिंह' रूप आत्मा की प्रज्ञा है वही उसको पाप से बचाती है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हेमवचिर्ऋषिः । सोमः । आर्ष्युष्णिक् । धैवतः ॥ विषूचिकास्तुतिः ॥
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