यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 77
दृ॒ष्ट्वा रू॒पे व्याक॑रोत् सत्यानृ॒ते प्र॒जाप॑तिः। अश्र॑द्धा॒मनृ॒तेऽद॑धाच्छ्र॒द्धा स॒त्ये प्र॒जाप॑तिः। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृ॒तं मधु॑॥७७॥
स्वर सहित पद पाठदृ॒ष्ट्वा। रू॒पेऽइति॑ रू॒पे। वि। आ। अ॒क॒रो॒त्। स॒त्या॒नृ॒ते इति॑ सत्यऽअनृ॒ते। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। अश्र॑द्धाम्। अनृ॑ते। अद॑धात्। श्र॒द्धाम्। स॒त्ये। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्सत्यानृते प्रजापतिः । अश्रद्धामनृते दधाच्छ्रद्धाँ सत्ये प्रजापतिः । ऋतेन सत्यमिन्द्रियँविपानँ शुक्रमन्धसऽइन्द्रस्येन्द्रियमिदम्पयोमृतम्मधु ॥
स्वर रहित पद पाठ
दृष्ट्वा। रूपेऽइति रूपे। वि। आ। अकरोत्। सत्यानृते इति सत्यऽअनृते। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। अश्रद्धाम्। अनृते। अदधात्। श्रद्धाम्। सत्ये। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः। ऋतेन। सत्यम्। इन्द्रियम्। विपानमिति विऽपानम्। शुक्रम्। अन्धसः। इन्द्रस्य। इन्द्रियम्। इदम्। पयः। अमृतम्। मधु॥७७॥
विषय - सत्य के बल पर प्रजापालक की सत्य में श्रद्धा और असत्य में अश्रद्धा का उपदेश ।
भावार्थ -
(प्रजापतेः) प्रजा का पालक परमेश्वर, राजा और न्यायकर्त्ता, (ऋतेन) सत्य ज्ञान के बल से ( सत्यानृते रूपे ) सत्य और अनृत, सचः और झूठ दोनों के स्वरूपों को पृथक पृथक् विवेचना द्वारा (इष्ट्वा) देखकर (वि आ अकरोत् ) पृथक्-पृथक् उपदेश करता है । वह (अनृते) असत्य, सत्यज्ञान से रहित पदार्थ में ( अश्रद्धाम् ) अश्रद्धा, अप्रेम या अग्राह्य बुद्धि को ( अदधात् ) धारण करता और कराता है और (सत्ये) सत्य में (श्रद्धाम् अदधात् ) श्रद्धा अर्थात् सत्य करके मानने की बुद्धि को धारण करता है । उसी प्रकार प्रजापालक राजा भी सत्य और असत्य को ( ऋतेन ) वेद के द्वारा निर्णय करा कर प्रकट करे और असत्य मन्तव्यों को अग्राह्य ठहरावे और सत्य में प्रेम, विश्वास और मान्यता बुद्धि उत्पन्न करे । (ऋतेन) सत्य, वेद द्वारा प्राप्त (सत्यम् ) सत्य पदार्थ (इन्द्रियम् ) आत्मा का हितकारी ( विपानम् ) विविध प्रकार से रक्षा करनेवाला, (शुक्रम्) आत्मा की शुद्धि करने वाला, (अन्धसः इन्द्रस्य) अन्धकार के निवर्त्तक ऐश्वर्यवान् आत्मा और परमेश्वर प्रभु का (इन्द्रियम् ) परम ऐश्वर्यं है जो (इदम् ) साक्षात् (पयः) पुष्टिकारी दूध के समान सुखप्रद, बुध्दिवर्धक, (अमृतम् ) जल के समान जीवनप्रद, मृत्यु के भय को हरनेवाला और (मधु) मधु के समान मधुर एवं ज्ञानरूप से मनन करने योग्य है । इसी प्रकार (ऋतेन) व्यवस्था ग्रन्थ के द्वारा प्राप्त (सत्यम् ) सत्य निर्णय या सज्जनों का हितकारी (इन्द्रियम् ) चक्षु के समान, मार्गदर्शक, मन के समान निर्णयकारक, (विपानम् ) प्रजा की विशेष पालक, (शुक्रम् ) शुद्ध, (अन्धसः इन्द्रस्य) अज्ञाननाशक राजा का (इन्द्रियम् ) विशेष ऐश्वर्य के समान शोभाकर है जो ( इदम् ) साक्षात् ( पयः ) सबको तृप्तिकारक, (अमृतम् ) अमर, अविनाशी और (मधु) दुष्टों का दमनकारी है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्व्यादयः । प्रजापतिः । अतिशक्वरी । पंचमः ॥
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