यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 15
ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः
देवता - सोमो देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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सोम॑स्य रू॒पं क्री॒तस्य॑ परि॒स्रुत्परि॑षिच्यते। अ॒श्विभ्यां॑ दु॒ग्धं भे॑ष॒जमिन्द्रा॑यै॒न्द्रꣳ सर॑स्वत्या॥१५॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑स्य। रू॒पम्। क्री॒तस्य॑। प॒रि॒स्रुदिति॑ परि॒ऽस्रुत्। परि॑। सि॒च्य॒ते॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। दु॒ग्धम्। भे॒ष॒जम्। इन्द्रा॑य। ऐ॒न्द्रम्। सर॑स्वत्या ॥१५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमस्य रूपङ्क्रीतस्य परिस्रुत्परि षिच्यते । अश्विभ्यां दुद्ग्धं भेषजमिन्द्रायैन्द्रँ सरस्वत्या ॥
स्वर रहित पद पाठ
सोमस्य। रूपम्। क्रीतस्य। परिस्रुदिति परिऽस्रुत्। परि। सिच्यते। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। दुग्धम्। भेषजम्। इन्द्राय। ऐन्द्रम्। सरस्वत्या॥१५॥
विषय - राजा का बल-सम्पादन । राष्ट्रयज्ञ का विस्तार ।
भावार्थ -
८. ( परिस्रुत् परिषिच्यते ) जो परिस्रुत् का परिषेक किया जाता है । वह (क्रीतस्य सोमस्य रूपम् ) कीने हुए सोम का रूप है । राष्ट्रपक्ष में- सब देशों से प्राप्त राज्यलक्ष्मी से जो अभिषेक किया जाता है वही राज्यलक्ष्मी द्वारा कीने गये, तदधीन हुए, सर्वाज्ञापक राजा का उत्तम रूप है । देखो शोडपिग्रह प्रकरण । शत० ५ । १ । २ । १६ ॥
९. ( अश्विभ्याम्) अश्वियों, स्त्री-पुरुषों और (सरस्वत्या) सरस्वती, वेद के विद्वानों की बनी सभा द्वारा ( इन्द्राय ) इन्द्र, ऐश्वर्यवान् राजा' के हित के लिये ( भेषजम् ) सब कष्टों का निवारण करनेवाला (ऐन्द्रम् ) इन्द्र का पद ( दुग्धम् ) सब प्रकार से पूर्ण किया जाता है । ओषधिरस के समान ही ऐश्वर्य और ज्ञान का लाभ लेना चाहिये ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सोमः । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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