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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 49
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    उदी॑रता॒मव॑र॒ऽउत्परा॑स॒ऽउन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑। असुं॒ यऽई॒युर॑वृ॒काऽऋ॑त॒ज्ञास्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु॥४९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। ई॒र॒ता॒म्। अव॑रे। उत्। परा॑सः। उत्। म॒ध्य॒माः। पि॒तरः॑। सो॒म्यासः॑। असु॑म्। ये। ई॒युः। अ॒वृ॒काः। ऋ॒त॒ज्ञा इत्यृ॑त॒ऽज्ञाः। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। पि॒तरः॑। हवे॑षु ॥४९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः । असुँयऽईयुरवृकाऽऋतज्ञास्ते नोवन्तु पितरो हवेषु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। ईरताम्। अवरे। उत्। परासः। उत्। मध्यमाः। पितरः। सोम्यासः। असुम्। ये। ईयुः। अवृकाः। ऋतज्ञा इत्यृतऽज्ञाः। ते। नः। अवन्तु। पितरः। हवेषु॥४९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 49
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    भावार्थ -
    ( अवरे ) निकृष्ट, श्रेणी के, (परासः) उत्कृष्ट श्रेणी के और (मध्यमाः) बीच की श्रेणी के ( सोम्यासः ) राजा के अधीन रहने वाले, राष्ट्र के हितकारी, उत्तम स्वभाव के ( पितरः ) राज्य के पालक जन, (उद् उद् उद् ईरताम् ) उन्नति को प्राप्त हों और राष्ट्र की उन्नति करें । ( ये ) जो (ऋतज्ञाः) सत्य व्यवहारों एवं ऋत, सत्य व्यवस्था नियमों के विज्ञ और (अवृकाः) भेड़िये या चोर के समान प्रजा घातक और धन के चोर न होकर (असुम् ) प्राण को (ईयुः) धारण करते हैं, ईमानदारी से जीवन व्यतीत करते हैं (ते) वे (पितरः) पालक जन (नः) हमारी (हवेषु) संग्रामों में ( अवन्तु ) रक्षा करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ४१- ६१ – शंखो यामायनः ऋषिः । पितरः । त्रिष्टुप् धैवतः ॥

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