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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 63
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - पितरो देवताः छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आसी॑नासोऽअरु॒णीना॑मु॒पस्थे॑ र॒यिं ध॑त्त दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्यः॑ पितर॒स्तस्य॒ वस्वः॒ प्रय॑च्छ॒त तऽइ॒होर्जं॑ दधात॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आसी॑नासः। अ॒रु॒णीना॑म्। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। र॒यिम्। ध॒त्त। दा॒शुषे॑। मर्त्या॑य। पु॒त्रेभ्यः॑। पि॒त॒रः॒। तस्य॑। वस्वः॑। प्र। य॒च्छ॒त॒। ते। इह। ऊर्ज्ज॑म्। द॒धा॒त॒ ॥६३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आसीनासोऽअरुणीनामुपस्थे रयिन्धत्त दाशुषे मर्त्याय । पुत्रेभ्यः पितरस्तस्य वस्वः प्र यच्छत त इहोर्जन्दधात ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आसीनासः। अरुणीनाम्। उपस्थ इत्युपऽस्थे। रयिम्। धत्त। दाशुषे। मर्त्याय। पुत्रेभ्यः। पितरः। तस्य। वस्वः। प्र। यच्छत। ते। इह। ऊर्ज्जम्। दधात॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 63
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    भावार्थ -
    हे ( पितरः) पालक पिता लोगो ! आप लोग (अरुणीनाम् ) गौर वर्ण, तेजस्वी, एवं गौओं के समान प्रिय, मनोहर मातृजनों के (उपस्थे) समीप में (आसीनासः) बैठे हुए (दाशुषे मर्त्याय रयिं धत्त) दानशील त्यागी पुरुष को ऐश्वर्य प्रदान करो। हे (पितरः) पालक, पिता जनो ! (पुत्रेभ्यः) पुत्रों को (तस्य वस्वः) वह २ धन प्रदान करो। (ते) वे आप लोग (इह ) इस गृहाश्रम में रहकर ( ऊर्जम् ) बल पराक्रम के गुण ( दधात ) धारण करो । राजपक्ष में- ( अरुणीनाम् ) लाल ऊन की गद्दियों के (उपस्थे) पीठ पर या भूमियों पर अधिकारी रूप से (आसीनासः) बैठे हुए आप लोग ( दाशुषे मर्त्याय ) कर आदि देने वाले प्रजाजन को ( रयिं धत्त ) ऐश्वर्य, भूमि आदि अधिकार प्रदान करो । ( पितरः पुत्रेभ्यः) पुत्रों को जिस प्रकार पिता लोग अपनी-अपनी जायदाद देते हैं उसी प्रकार आप लोग (तस्य वस्त्र :) वे वे नाना धन प्रजाओं को ( प्रयच्छत) प्रदान करो। (ते) वे आप लोग (इह) इस राष्ट्र में, या इस राजा के अधीन, इसके निमित्त ( ऊर्जम् ), बल, पराक्रम ( धत्त) धारण करो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शंखः । पितरः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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