यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 85
ऋषिः - शङ्ख ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
इन्द्रः॑ सु॒त्रामा॒ हृद॑येन स॒त्यं पु॑रो॒डशे॑न सवि॒ता ज॑जान। यकृ॑त् क्लो॒मानं॒ वरु॑णो भिष॒ज्यन् मत॑स्ने वाय॒व्यैर्न मि॑नाति पि॒त्तम्॥८५॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑। सु॒त्रामेति॑ सु॒ऽत्रामा॑। हृद॑येन। स॒त्यम्। पु॒रो॒डाशे॑न। स॒वि॒ता। ज॒जा॒न॒। यकृ॑त्। क्लो॒मान॑म्। वरु॑णः। भि॒ष॒ज्यन्। मत॑स्ने॒ इति॒ मत॑ऽस्ने। वा॒य॒व्यैः᳖। न। मि॒ना॒ति॒। पि॒त्तम् ॥८५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः सुत्रामा हृदयेण सत्यम्पुरोडाशेन सविता जजान । यकृत्क्लोमानँवरुणो भिषज्यन्मतस्ने वायव्यैर्न मिनाति पित्तम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रः। सुत्रामेति सुऽत्रामा। हृदयेन। सत्यम्। पुरोडाशेन। सविता। जजान। यकृत्। क्लोमानम्। वरुणः। भिषज्यन्। मतस्ने इति मतऽस्ने। वायव्यैः। न। मिनाति। पित्तम्॥८५॥
विषय - अन्न से बल प्राप्त करने के समान सुरक्षक राजा की बलवृद्धि, उदर के भीतरी अंगों से शासकों की तुलना ।
भावार्थ -
( सविता ) उत्पादक पुरुष- देह जिस प्रकार (पुरोडाशेन ) सुसंस्कृत अन्न से ( सत्यम् ) सात्विक बल वीर्य को (जजान) उत्पन्न करता है और जिस प्रकार ( सविता ) सूर्य (पुरोडाशेन) प्रकाश से (सत्यं जनान) सत्पदार्थों के सत्य स्वरूप को प्रकट करता है उसी प्रकार (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (सुत्रामा) उत्तम प्रजापालक (सविता) सूर्य के समान तेजस्वी राजा (हृदयेन) अपने हृदय से ( सत्यम् ) सज्जनों के हितकारक तथ्य, सुख-कारक राज्य व्यवस्था, और न्याय को (जजान ) प्रकट करता है । और जिस प्रकार ( वरुणः) शरीर में अपान ( यकृत् ) यकृत्-कलेजे को ( क्लोमानम् ) पिलही या कण्ठनाड़ी को और ( पित्तम् ) पित्तखण्ड को और ( मतस्ने ) गुर्दों को ( वायव्यैः ) अपने वायु वेगों से ( भिषज्यन् ) पीड़ाएं दूर करता हुआ भी (न मिनाति) नहीं विनष्ट होने देता उसी प्रकार (वरुण) समस्त प्रजाओं द्वारा वरण किया गया एवं दुष्टों का वारक राजा (वायव्यैः) अपने वायु के समान बलवान् वीर पुरुषों द्वारा ( भिषज्यन् ) राष्ट्र- शरीर में बैठे रोगों के तुल्य शत्रुओं को दूर करके ( यकृत् ) शरीर में यकृत् (कलेजे) के समान राष्ट्र में यथानियम समस्त प्रजाओं को परस्पर सत्कर्म में लगाने वाले, दानशील, विद्वान्, धार्मिक पुरुष को (क्लोमानम् ) शरीर में क्लोम, पिलही के समान दुष्ट पुरुषों के नाशक या कण्ठनाडी वा फुफ्फुस के समान प्राण धारक पुरुषों को, (मतस्ने) आनन्द से सब को स्नान कराने वाले, शरीर में गुर्दों के समान 'मतस्ने' आनन्द से तृप्तिकारक ज्ञान से हृदय पवित्र करने वाले अध्यापक और उपदेशक या आनन्द से रहने वाले स्त्री-पुरुषों और राष्ट्र के भीतरी घटक और उपकारक अंगों को, और (पित्तम् ) शरीर में पित्त के समान पालक, गुरुजन को भी ( न मिनाति) पीड़ित नहीं करता ।
यकृत् । यजतीति यकृत् । यजेर्ऋसन् उणादिप्रत्ययः । इति दया० उणा० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अश्व्यादयः । सविता । त्रिष्टुप् । धैवतः ।
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