यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 30
ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
व्र॒तेन॑ दी॒क्षामा॑प्नोति दी॒क्षया॑प्नोति॒ दक्षि॑णाम्। दक्षि॑णा श्र॒द्धामा॑प्नोति श्र॒द्धया॑ स॒त्यमा॑प्यते॥३०॥
स्वर सहित पद पाठव्र॒तेन॑। दी॒क्षाम्। आ॒प्नो॒ति॒। दी॒क्षया॑। आ॒प्नो॒ति॒। दक्षि॑णाम्। दक्षि॑णा। श्र॒द्धाम्। आ॒प्नो॒ति॒। श्र॒द्धया॑। स॒त्यम्। आ॒प्य॒ते॒ ॥३० ॥
स्वर रहित मन्त्र
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥
स्वर रहित पद पाठ
व्रतेन। दीक्षाम्। आप्नोति। दीक्षया। आप्नोति। दक्षिणाम्। दक्षिणा। श्रद्धाम्। आप्नोति। श्रद्धया। सत्यम्। आप्यते॥३०॥
विषय - राजा का बल-सम्पादन । राष्ट्रयज्ञ का विस्तार ।
भावार्थ -
(व्रतेन) सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य आदि नियमपालन से (दीक्षाम् आप्नोति) पुरुष दीक्षा को प्राप्त करता है । (दीक्षया) दीक्षा से (दक्षिणाम् आप्नोति) दक्षिणा, प्रतिष्ठा और राज्यलक्ष्मी को प्राप्त होता है ( दक्षिणा ), प्रतिष्ठा से या शक्ति से ( श्रद्धाम् आप्नोति ) श्रद्धा, सत्य धारण करने की इच्छा को प्राप्त होता है । (श्रद्धया सत्यम् आप्यते) श्रद्धा से सत्य ज्ञान प्राप्त करने की प्रबल इच्छा से सत्य प्राप्त किया जाता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञः । अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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