यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 17
ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
वेद्या॒ वेदिः॒ समा॑प्यते ब॒र्हिषा॑ ब॒र्हिरि॑न्द्रि॒यम्। यूपे॑न॒ यूप॑ऽआप्यते॒ प्रणी॑तोऽअ॒ग्निर॒ग्निना॑॥१७॥
स्वर सहित पद पाठवेद्या॑। वेदिः॑। सम्। आ॒प्य॒ते॒। ब॒र्हिषा॑। ब॒र्हिः। इ॒न्द्रि॒यम्। यूपे॑न। यूपः॑। आ॒प्य॒ते॒। प्रणी॑तः। प्रनी॑त इति॒ प्रऽनी॑तः। अ॒ग्निः। अ॒ग्निना॑ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वेद्या वेदिः समाप्यते बर्हिषा बर्हिरिन्द्रियम् । यूपेन यूपऽआप्यते प्रणीतोऽअग्निरग्निना ॥
स्वर रहित पद पाठ
वेद्या। वेदिः। सम्। आप्यते। बर्हिषा। बर्हिः। इन्द्रियम्। यूपेन। यूपः। आप्यते। प्रणीतः। प्रनीत इति प्रऽनीतः। अग्निः। अग्निना॥१७॥
विषय - राजा का बल-सम्पादन । राष्ट्रयज्ञ का विस्तार ।
भावार्थ -
१४. (वेद्या वेदिः समाप्यते) यज्ञ की वेदी से यह समस्त पदार्थ के प्राप्त करानेवाली भूमि समान रूप से जानी जाती है ।
१५. (बर्हिषा ) यज्ञवेदी में बिछे कुश से ( बर्हिः इन्द्रियम् ) महान् - इन्द्र, राजा का ऐश्वर्य ( समाप्यते ) तुलना किया जाता है ।
१६. (यूपेन यूप: ) यज्ञ के 'यूप' नामक स्तम्भ से (यूपः ) सूर्य, वज्र, खड्ग, तेजस्वी बलवान् या स्वयं राजा ही ( आप्यते ) ग्रहण किया जाता है ।
१७. (अग्निना अग्निः) यज्ञ में प्रदीप्त अग्नि से (अग्निः) अग्रणी अग्नि के समान तेजस्वी राजा के सेनापति व सभापति की तुलना की जाती है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यज्ञः। अनुष्टुप् । गांधारः ॥
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