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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 10
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यस्य॒ त्वमू॒र्ध्वो अ॑ध्व॒राय॒ तिष्ठ॑सि क्ष॒यद्वी॑र॒: स सा॑धते । सो अर्व॑द्भि॒: सनि॑ता॒ स वि॑प॒न्युभि॒: स शूरै॒: सनि॑ता कृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । त्वम् । ऊ॒र्ध्वः । अ॒ध्व॒राय॑ । तिष्ठ॑सि । क्ष॒यत्ऽवी॑रः । सः । सा॒ध॒ते॒ । सः । अर्व॑त्ऽभिः । सनि॑ता । सः । वि॒प॒न्यु॒ऽभिः॒ । सः । शूरैः॑ । सनि॑ता । कृ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य त्वमूर्ध्वो अध्वराय तिष्ठसि क्षयद्वीर: स साधते । सो अर्वद्भि: सनिता स विपन्युभि: स शूरै: सनिता कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । त्वम् । ऊर्ध्वः । अध्वराय । तिष्ठसि । क्षयत्ऽवीरः । सः । साधते । सः । अर्वत्ऽभिः । सनिता । सः । विपन्युऽभिः । सः । शूरैः । सनिता । कृतम् ॥ ८.१९.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 10
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (ऊर्ध्वः, त्वम्) सर्वोपरि वर्तमानस्त्वम् (यस्य, अध्वराय) यस्य यागं साधयितुम् (तिष्ठसि) प्रक्रमसे (सः) स जनः (क्षयद्वीरः) शत्रुनाशकवीरयुक्तः सन् (साधते) इष्टं साध्नोति (सः, अर्वद्भिः) सोऽश्वैः (कृतं) साधितम् (सः, विपन्युभिः) स विद्वद्भिश्च साधितम् (सनिता) लब्धा भवति (सः, शूरैः) स शूरैः कृतम् (सनिता) संभक्ता भवति ॥१०॥

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    विषयः

    तमेव प्रशंसति ।

    पदार्थः

    हे देव ! यस्य=यजमानस्य । अध्वराय=यज्ञाय । त्वम्=स्वयमेव । ऊर्ध्वः=उद्योगी सन् तिष्ठसि । स क्षयद्वीरः=क्षयन्तो निवसन्तश्चिरंजीविनो वीराः पुत्रादयो यस्य सः । दीर्घजीविभिर्वीरैः पुत्रादिभिः सः । स सर्वं कार्य्यं साधते=साधयति । सः । अर्वद्भिरश्वैः सह । सनिता=संमिलितो भवति । विपन्युभिर्विद्वद्भिर्युक्तो भवति । स शूरैः सह सनिता युक्तो भवति । एतैरश्वादिभिर्युक्तो भूत्वा कृतम्=सर्वं कर्म साधयतीत्यर्थः ॥१० ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (ऊर्ध्वः, त्वम्) सर्वोपरि वर्तमान आप (यस्य, अध्वराय) जिसके यज्ञसाधन के लिये (तिष्ठसि) उद्यत होते हैं (सः) वह (क्षयद्वीरः) शत्रुक्षयकारक वीरोंवाला होकर (साधते) इष्टकार्यों को सिद्ध करता है (सः, अर्वद्भिः) वह अश्वों से (कृतम्) साधनयोग्य कर्मों को (सः, विपन्युभिः) वह विद्वानों द्वारा साधनयोग्य कर्मों को (सनिता) उपलब्ध करता है (सः, शूरैः) वह शूरों द्वारा साध्यकर्म को (सनिता) लब्ध करता है ॥१०॥

    भावार्थ

    जो पुरुष परमात्माश्रित होकर अपने पौरुष से यज्ञ करने में प्रवृत्त होता है, उसको परमात्मा सहायक होकर गौ, अश्वादि ऐश्वर्य, विद्वानों का सङ्ग, शूरों द्वारा सुरक्षा आदि अनेक इष्ट पदार्थों का लाभ कराके शत्रुओं के अभिभव में समर्थ बनाता है ॥१०॥

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    विषय

    उसकी प्रशंसा दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे देव ! (यस्य) जिस यजमान के (अध्वराय) यज्ञ के लिये (त्वम्) तू स्वयं (ऊर्ध्वः+तिष्ठसि) उद्योगी होता है । (सः) वह (क्षयद्वीरः) चिरंजीवी वीर पुत्रादिकों से युक्त होकर (साधते) संसार के सब कर्तव्य सिद्ध करता है (सः) वह (अर्वद्भिः) घोड़ों से (सनिता) युक्त होता है (सः) वह (विपन्युभिः) विद्वानों से युक्त होता है (सः) वह (शूरैः) शूरों से (सनिता) युक्त होता है । इन अश्वादिकों से युक्त होकर (कृतम्) संसार के सब कर्म को सिद्ध करता है ॥१० ॥

    भावार्थ

    उसकी कृपा से मनुष्य सर्व प्रकार के सुखों से युक्त होता है । प्रतिदिन उसकी वृद्धि और उसका अभ्युदय होता है । वह जगत् में माननीय और गणनीय होता है ॥१० ॥

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    विषय

    अग्रणी वीर नायक के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! ( यस्य अध्वराय ) जिस को नाश न होने देने के लिये वा जिसके यज्ञ की रक्षा के लिये वा जिस राष्ट्र के अहिंसक, पालक पद के लिये ( क्षयद्-वीरः ) शत्रुओं वा अधीन रहने वाले वीरों का स्वामी होकर ( त्वं ) तू ( ऊर्ध्वः ) ऊपर अध्यक्ष होकर ( तिष्ठसि ) विराजता है, ( सः ) वह ही ( अर्वद्भिः ) वीर विद्वानों और ( सः विपन्युभिः ) वह विशेष व्यवहारज्ञों और ( सः शूरैः ) वह शूरवीरों सहित ( सनिता ) ऐश्वर्य का भोक्ता और ( सः सनिता ) वही ऐश्वर्य का दाता होकर ( कृतं साधते ) कार्य सिद्ध करता है । इति त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    क्षयद्वीरः

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (यस्य अध्वराय) = जिसके जीवनयज्ञ के रक्षण के लिये (त्वम्) = आप (ऊर्ध्वः तिष्ठसि) = ऊपर स्थित होते हैं, सदा उद्यत होते हैं, (सः) = वह (क्षयद्वीरः) = निवास करते हैं वीर जिसके यहाँ, अर्थात् वीर सन्तानोंवाला बनता है। (साधते) = यह सब कार्यों को सिद्ध करनेवाला होता है । [२] (सः) = वह (अर्वद्भिः) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों से (सनिता) = सम्भजनशील होता है। (सः) = वह (विपन्युभिः) = [नि० ३।१५ विपन्यु मेधावी ] मेधावी पुरुषों से (कृतम्) = किये हुए कर्मों को (सनिता) = सम्भजनशील होता है। अर्थात् मेधावी पुरुषों की तरह कर्मों को करता है। (सः) = वह (शूरैः) = शूरवीरों से (कृतम्) = किये हुए कर्मों को (सनिता) = सम्भजनशील होता है। अर्थात् शूरों की तरह कार्यों को करता है। इसके व्यवहार में कायरता नहीं होती।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु जब हमारे जीवनयज्ञ के रक्षक होते हैं तो हम [क] वीर सन्तानोंवाले होते हैं, [ख] कार्यों को सिद्ध करते हैं, [ग] प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनते हैं, [घ] तथा मेधावी व शूर पुरुषों के कार्यों को करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The man for whose acts of yajna you rise high and stay constant is blest with brave progeny and achieves all round success in life. He is blest with horses and incoming wealth and honour. Surrounded by the wise, he is blest with praise and high appreciation. Supported by the brave, he achieves fulfilment in whatever he does and whatever he wants to do.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    त्याच्या कृपेने माणूस सर्व प्रकारच्या सुखाने युक्त होतो, प्रत्येक दिवशी त्याची वृद्धी व अभ्युदय होतो. तो जगात माननीय व गणनीय असतो. ॥१०॥

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