ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 30
प्र सो अ॑ग्ने॒ तवो॒तिभि॑: सु॒वीरा॑भिस्तिरते॒ वाज॑भर्मभिः । यस्य॒ त्वं स॒ख्यमा॒वर॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । सः । अ॒ग्ने॒ । तव॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । सु॒ऽवीरा॑भिः । ति॒र॒ते॒ । वाज॑भर्मऽभिः । यस्य॑ । त्वम् । स॒ख्यम् । आ॒ऽवरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सो अग्ने तवोतिभि: सुवीराभिस्तिरते वाजभर्मभिः । यस्य त्वं सख्यमावर: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सः । अग्ने । तव । ऊतिऽभिः । सुऽवीराभिः । तिरते । वाजभर्मऽभिः । यस्य । त्वम् । सख्यम् । आऽवरः ॥ ८.१९.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 30
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथोपासकाय सुखप्राप्तिरुच्यते।
पदार्थः
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (सः) स जनः (सुवीराभिः) सुवीरयुक्ताभिः (वाजभर्मभिः) बलातिशयसहिताभिः (तव, ऊतिभिः) तव रक्षाभिः (प्रतिरते) प्रतिरत्यापदम् (यस्य) यस्य जनस्य (सख्यम्) मैत्रीम् (आवरः, त्वम्) त्वं स्वीकरोषि ॥३०॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्त्तते ।
पदार्थः
हे अग्ने=सर्वगतदेव ! त्वम् । यस्योपासकस्य । सख्यम्= सखित्वम्=मित्रत्वम् । आवरः=अभिवृणोषि=स्वीकरोषि । स उपासकः । तव ऊतिभिः=रक्षाभिः । प्रतिरते=जगति प्रवर्धते । कीदृशीभिरूतिभिः । सुवीराभिः=सुवीरसन्तानोपेताभिः । पुनः । वाजभर्मभिः=वाजानामन्नादीनां भर्त्रीभिः ॥३० ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब परमात्मा के भक्त को सुखप्राप्ति कथन करते हैं।
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (सः) वह मनुष्य (सुवीराभिः) सुन्दरवीरोंवाली (वाजभर्मभिः) बल के आधिक्य सहित (तव, ऊतिभिः) आपकी रक्षाओं से (प्रतिरते) आपत्तिओं को तर जाता है (यस्य) जिसकी (सख्यम्) मैत्री को (त्वम्) आप (आवरः) स्वीकार करते हैं ॥३०॥
भावार्थ
परमात्मा अपने उपासकों को प्रसिद्ध होने के लिये अनेक शौर्यादि शक्ति प्रदान करता है अर्थात् जो परमात्मा का मित्र है, या यों कहो कि जो परमात्मा की आज्ञापालन करता हुआ उसकी उपासना में निरन्तर तत्पर है, वह सब आपत्तियों तथा कष्टों से बचकर सुख अनुभव करता है ॥३०॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वगत देव ! (यस्य) जिस उपासक की (सख्यम्) मित्रता को (आवरः) आप स्वीकार करते हैं, (सः) वह (तव) आपकी (ऊतिभिः) रक्षाओं से (प्रतिरते) जगत् में वृद्धि पाता है । जिन रक्षाओं से (सुवीराभिः) कुल में वीर उत्पन्न हैं । पुनः । (वाजभर्मभिः) जिनसे ज्ञान-विज्ञान आदिकों का भरण होता है ॥३० ॥
भावार्थ
उस देव की जिस पर कृपा होती है, वही धन-धान्य से सम्पन्न होकर इस लोक में प्रशंसनीय होता है ॥३० ॥
विषय
सखा प्रभु ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) सर्वप्रकाशक ! सर्वव्यापक प्रभो ! स्वामिन् ! ( वाजभर्मभिः ) ज्ञान, बल अन्नादि भरण पोषण करने वाली ( सुवीराभिः ) उत्तम वीरों, पुत्रों से युक्त, ( तव ऊतिभिः ) तेरी रक्षाओं और दीप्तियों से ( सः प्र तिरते ) वह बराबर बढ़ा करता है ( यस्थ सख्यं ) जिसके मित्र भाव को ( तू आवरः ) स्वीकार कर लेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु के 'सुवीर - वाजभर्मभिः' रक्षण
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (यस्य) = जिस भी उपासक की (सख्यम्) = मित्रता का (आवरः) = आप वरण करते हैं, (सः) = वह (तव ऊतिभिः) = आपके रक्षणों के द्वारा (प्रतिरते) = अतिशयेन वृद्धि को प्राप्त करता है। [२] ये आपके रक्षण (सुवीराभिः) = हमें उत्तम वीर सन्तानों को प्राप्त करानेवाले हैं, तथा (वाजभर्मभिः) = हमारे शक्ति का भरण करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की मित्रता में, प्रभु के रक्षणों के द्वारा उत्तम सन्तानों व शक्ति को प्राप्त करके हम वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of universal love and friendship, he whose love and friendship, devotion and dedication, you accept into your kind care thrives under your protection and promotion and advances in life with noble and heroic progeny, moving from victory to glory.
मराठी (1)
भावार्थ
देवाची ज्याच्यावर कृपा होते तोच धनधान्याने संपन्न होऊन या लोकात प्रशंसनीय होतो. ॥३०॥
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