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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 33
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यस्य॑ ते अग्ने अ॒न्ये अ॒ग्नय॑ उप॒क्षितो॑ व॒या इ॑व । विपो॒ न द्यु॒म्ना नि यु॑वे॒ जना॑नां॒ तव॑ क्ष॒त्राणि॑ व॒र्धय॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । अ॒न्ये । अ॒ग्नयः॑ । उ॒प॒ऽक्षितः॑ । व॒याःऽइ॑व । विपः॑ । न । द्यु॒म्ना । नि । यु॒वे॒ । जना॑नाम् । तव॑ । क्ष॒त्राणि॑ । व॒र्धय॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य ते अग्ने अन्ये अग्नय उपक्षितो वया इव । विपो न द्युम्ना नि युवे जनानां तव क्षत्राणि वर्धयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । ते । अग्ने । अन्ये । अग्नयः । उपऽक्षितः । वयाःऽइव । विपः । न । द्युम्ना । नि । युवे । जनानाम् । तव । क्षत्राणि । वर्धयन् ॥ ८.१९.३३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 33
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे परमात्मन् ! (यस्य, ते) यस्य तव (अन्ये, अग्नयः) इतरे अग्नयः आहवनीयादयः (वया, इव) शाखा इव (उपक्षितः) उपनिवसन्ति (तव, क्षत्राणि, वर्धयन्) तव बलानि वर्धयन् अहम् (जनानाम्) मनुष्याणां मध्ये (विपः, न) अन्यस्तोतेव (द्युम्ना, नियुवे) यशांसि प्राप्नुयाम् ॥३३॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    हे अग्ने ! ये अन्ये अग्नयः=अग्निसूर्य्यविद्युदादयः सन्ति । ते सर्वे । यस्य । ते=तव । उपक्षितः=आश्रिताः सन्ति । तं त्वां गायामि । अत्र दृष्टान्तः । वया इव=यथा शाखाः स्वमूलवृक्षे आश्रिता भवन्ति तद्वत् । पुनः । हे ब्रह्मन् ! तव क्षत्राणि=बलानि यशांसि च । स्तुत्या वर्धयन्नहम् । जनानां मध्ये । विपो न=अन्ये स्तोतार इव । विप इति स्तोतृनाम । द्युम्ना=द्योतमानानि सुखानि यशांसि च । नि युवे=नितरां प्राप्नोमि ॥३३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे परमात्मन् ! (यस्य, ते) जिस आपके (अन्ये, अग्नयः) अन्य भौतिक आहवनीयादि अग्नि (वया इव) शाखाओं के समान (उपक्षितः) समीप में वसते हैं, उनके द्वारा (तव, क्षत्राणि, वर्धयन्) आपके ऐश्वर्य को बढ़ाते हुए हम (जनानाम्) मनुष्यों के मध्य में (विपः, न) अन्य स्तोता के समान (द्युम्ना, नियुवे) यश को प्राप्त करें ॥३३॥

    भावार्थ

    संसार में अनेक प्रकार के सूर्यादि तेजोमय आधार हैं, परन्तु परमात्मा उन सबों का शक्तिदाता तथा स्वयं परमतेजोमय है। विज्ञानियों को चाहिये कि वे उन सब तेजों से अनेक विज्ञानों को प्रकाशित करके परमात्मा के यश को बढ़ाते हुए स्वयं यशस्वी बनें ॥३३॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगत ब्रह्म ! जो (अन्ये+अग्नयः) अन्य सूर्य्य, अग्नि, विद्युदादि अग्नि हैं, वे (यस्य) जिस (ते) तेरे (उपक्षितः) आश्रित हैं, उस तुझको मैं गाता हूँ । यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(वयाः+इव) जैसे शाखाएँ स्वमूल वृक्ष के आश्रित हैं, तद्वत् । पुनः । हे ब्रह्मन् ! (तव) तेरे (क्षत्राणि) बलों या यशों को (वर्धयन्) स्तुति से बढ़ाता हुआ मैं (विपः+इव) अन्यान्य स्तुतिपाठक के समान (जनानाम्) मनुष्यों के मध्य (द्युम्ना) सुखों और यशों को (नि+युवे) अच्छे प्रकार पाता हूँ । यह आपकी महती कृपा है ॥३३ ॥

    भावार्थ

    ये सूर्य्यादि अग्नि भी उसी महाग्नि ईश्वर से तेज और प्रभा पा रहे हैं, उसी की कीर्ति गाते हुए कविगण सुखी होते हैं ॥३३ ॥

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    विषय

    परम अग्नि प्रभु।

    भावार्थ

    जैसे एक ही अग्नि से अन्य भी अग्नियें प्रज्वलित होकर उसकी नाना शाखा के समान होती हैं उसी प्रकार हे (अग्ने ) अग्निवत् तेजस्विन् ( यस्ते ) जिस तेरे ( अन्ये अग्नयः ) दूसरे तेजस्वी पुरुष भी (उपक्षितः) समीप रहने वाले ( वयाः इव ) शाखाओं के समान विराजते हैं उस ( तव ) तेरे ( जनानां ) मनुष्यों के ( क्षत्राणि ) वीर्यों और धनों को ( वर्धयन् ) बढ़ाता हुआ मैं ( विपः न ) वाणियों के समान ( द्युम्ना ) से धनों वा यशों को ( नि युवे ) प्राप्त करूं।

    टिप्पणी

    वया इति वाङ् नाम।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    शुभ-क्षत्र

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (यस्य) = जिन (ते) = आपके (अन्ये) = दूसरे (अग्नयः) = माता, पिता व आचार्यरूप अग्नियाँ (उपक्षितः) = समीप रहनेवाले हैं, (वयाः इव) = इस प्रकार समीप रहनेवाले हैं जैसे शाखायें वृक्ष के समीप होती हैं, शाखा जब तक वृक्ष के साथ है तब तक उसमें भी रस का संचार होता रहता है, अलग होते ही वह सूख जाती है। इसी प्रकार संसार की सब अग्नियाँ उस महान् अग्नि प्रभु से ही अग्नित्व को प्राप्त होती हैं। प्रभु से अलग होते ही उनका अग्नित्व समाप्त हो जाता है । [२] मैं इन अग्नियों के प्रति अपना अर्पण करता हुआ, इनकी आज्ञा में चलता हुआ तव (क्षत्राणि) = आपके बलों को (वर्धयन्) = अपने में बढ़ाता हुआ, (विपः न) = मेधावी स्तोताओं की तरह (जनानाम्) = लोगों के (द्युम्ना) = यज्ञों को (नियुवे) = नितरां प्राप्त होता हूँ। अर्थात् लोगों में यशस्वी जीवनवाला बनता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु महान् अग्नि हैं, इनकी उपासना से अन्यत्र अग्नित्व की प्राप्ति होती है। इन माता, पिता, आचार्यरूप अग्नियों के सान्निध्य से हम भी बल सम्पन्न व यशस्वी जीवनवाले बनते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Of you, Agni, lord and light of the universe, on whom do other lights such as the sun depend like branches of the tree, I sing like a poet and, celebrating your ruling orders of the people, I enjoy the honour and pleasures of the world of your creation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य इत्यादी अग्नी त्या महान अग्नी ईश्वरापासून तेजप्रभा प्राप्त करत असतात. त्याची कीर्ती गात कविगण सुखी होतात. ॥३३॥

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