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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 32
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    तमाग॑न्म॒ सोभ॑रयः स॒हस्र॑मुष्कं स्वभि॒ष्टिमव॑से । स॒म्राजं॒ त्रास॑दस्यवम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । आ । अ॒ग॒न्म॒ । सोभ॑रयः । स॒हस्र॑ऽमुष्कम् । सु॒ऽअ॒भि॒ष्टिम् । अव॑से । स॒म्ऽराज॑न् । त्रास॑दस्यवम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमागन्म सोभरयः सहस्रमुष्कं स्वभिष्टिमवसे । सम्राजं त्रासदस्यवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । आ । अगन्म । सोभरयः । सहस्रऽमुष्कम् । सुऽअभिष्टिम् । अवसे । सम्ऽराजन् । त्रासदस्यवम् ॥ ८.१९.३२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 32
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (सोभरयः) सुज्ञानं विभृतवन्तो वयम् (अवसे) रक्षायै (सहस्रमुष्कम्) सहस्ररत्नम् (स्वभिष्टिम्) सुयज्ञम् (सम्राजम्) सम्यग्राजमानम् (त्रासदस्यवम्) त्रसदस्यूनामीश्वरम् (तम्) तं परमात्मानम् (आगन्म) प्राप्नुमः ॥३२॥

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    विषयः

    पुनस्तदनुवर्त्तते ।

    पदार्थः

    सोभरयः=विद्यया धनादिभिश्च शोभनभरणकर्त्तार उपासका वयम् । सम्प्रति । अवसे=रक्षायै । तमीशम् । आ+अगन्म=आगताः स्मः=प्राप्ता अभूम । कीदृशम् । सहस्रमुष्कम्=मुष्णन्ति तमांसि हरन्तीति मुष्काणि तेजांसि । सहस्रं मुष्काणि यस्य तम् । स्वभिष्टिम्=स्वभीष्टं शोभनेष्टम् । सम्राजम्=सम्यक् शोभमानम् । पुनः । त्रासदस्यवम्=त्रस्यन्ति बिभ्यति दस्यवो दुष्टा यस्मात् । दुष्टनियन्तारम् ॥३२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (सोभरयः) सम्यग्ज्ञान का भरण करनेवाले हम लोग (अवसे) रक्षा के लिये (सहस्रमुष्कम्) अनेक रत्नोंवाले (स्वभिष्टिम्) सुन्दर यज्ञवाले (सम्राजम्) सम्राट् (त्रासदस्यवम्) त्रसदस्युओं=दस्युओं को प्राप्त करानेवालों के निर्माता (तम्) उस परमात्मा को (आगन्म) प्राप्त होते हैं ॥३२॥

    भावार्थ

    जिसका यज्ञ परमानन्दमय है, जो सब सम्राटों का सम्राट् तथा अनेक शूरवीरों का उत्पादक है, वही सबका परमप्राप्तव्य है अर्थात् जो परमात्मा वेदविरोधी दस्युओं को त्रास देनेवाला, विविध पदार्थों का स्वामी और जो हमारे कल्याणार्थ यज्ञों का निर्माता है, वही हमको प्रयत्न से प्राप्त करने योग्य है ॥३२॥

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    विषय

    पुनः वही विषय आ रहा है ।

    पदार्थ

    (सोभरयः) विद्या से और धनादिकों से प्रजाओं को भरणपोषण करनेवाले हम उपासकगण (अवसे) रक्षा के लिये (तम्) उस परमात्मा के निकट (आ+अगन्म) प्राप्त हुए हैं । जिसके (सहस्रमुष्कम्) अनन्त तेज हैं, (स्वभिष्टिम्) जो शोभन अभीष्टदेव हैं, (सम्राजम्) जो अच्छे प्रकार सर्वत्र विराजमान हैं और (त्रासदस्यवम्) और जिनसे दुष्टगण सदा डरते हैं, ऐसे परमदेव को हम लोग प्राप्त हुए हैं ॥३२ ॥

    भावार्थ

    हम मनुष्य कपट को त्याग उसके निकट पहुँचें, तब ही कल्याणभागी हो सकेंगे ॥३२ ॥

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    विषय

    सम्राट् प्रभु ।

    भावार्थ

    हे (सोभरयः) उत्तम रीति से भरण पोषण करने वालो ! हम लोग ( अवसे ) रक्षा के लिये ( तम् ) उस ( सु-अभिष्टिम् ) उत्तम अभिलाषा वाले, ( त्रासदस्यवम् ) दस्युओं, दुष्ट पुरुषों को भयभीत करने वाले, (सहस्रमुष्कं) हजारों के पोषक वा सूर्यवत् बहुत से दुःखदारिद्र्यहारी नाना तेज:-सामर्थ्यो से सम्पन्न, (सम्राजं आ अगन्म) सम्राटवत् सर्वत्र दीप्तियुक्त प्रभु को प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सहस्त्रमुष्कं स्वभिष्टि-सम्राट्-त्रासदस्यव

    पदार्थ

    [१] (सोभरयः) = अपना उत्तमता से भरण करनेवाले हम (तम्) = उस अग्रेणी प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिये (आगन्म) = प्राप्त होते हैं। जो प्रभु (सहस्त्रमुष्कम्) = अनन्त तेजवाले हैं [तमांसि मुष्णन्ति = मुष्क], (स्वभिष्ठिम्) = सम्यक् अभ्येषणीय हैं। ये प्रभु ही जानने योग्य व प्रार्थना करने योग्य हैं। [२] उस प्रभु को हम प्राप्त होते हैं जो (सम्राजम्) = सम्यक् देदीप्यमान हैं और (त्रासदस्यवम्) = दास्यव भावों को भयभीत करनेवाले हैं। जिनके तेज की अग्नि में 'काम-क्रोध-लोभ' आदि दास्यव भाव दग्ध हो जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु 'सहस्रमुष्क, स्वभिष्टि, सम्राट् व त्रासदस्यव' हैं। इन प्रभु को रक्षण के लिये हम प्राप्त हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Blest with wealth and knowledge and bearing gifts of homage, for ultimate protection and further advancement, we have come to the lord almighty of a thousand forces of light and arms, object of universal love and adoration, blazing ruler of the universe and a scourge of the evil destroyers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही माणसांनी कपटाचा त्याग करून त्या परमेश्वराजवळ जावे तेव्हाच कल्याण होऊ शकेल. ॥३२॥

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