ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 35
यू॒यं रा॑जान॒: कं चि॑च्चर्षणीसह॒: क्षय॑न्तं॒ मानु॑षाँ॒ अनु॑ । व॒यं ते वो॒ वरु॑ण॒ मित्रार्य॑म॒न्त्स्यामेदृ॒तस्य॑ र॒थ्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठयू॒यम् । रा॒जा॒नः॒ । कम् । चि॒त् । च॒र्ष॒णि॒ऽस॒हः॒ । क्षय॑न्तम् । मानु॑षान् । अनु॑ । व॒यम् । ते । वः॒ । वरु॑ण । मित्र॑ । अर्य॑मन् । स्याम॑ । इत् । ऋ॒तस्य॑ । र॒थ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यूयं राजान: कं चिच्चर्षणीसह: क्षयन्तं मानुषाँ अनु । वयं ते वो वरुण मित्रार्यमन्त्स्यामेदृतस्य रथ्य: ॥
स्वर रहित पद पाठयूयम् । राजानः । कम् । चित् । चर्षणिऽसहः । क्षयन्तम् । मानुषान् । अनु । वयम् । ते । वः । वरुण । मित्र । अर्यमन् । स्याम । इत् । ऋतस्य । रथ्यः ॥ ८.१९.३५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 35
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(राजानः) राजमानाः (चर्षणीसहः) शत्रूणामभिभवितारः (यूयम्) यूयं विद्वांसः (मानुषान्, अनु) स्वजनान् प्रति (क्षयन्तम्) परितपन्तम् (कंचित्) कंचिदपि विरोधिनमभिभवथ (वरुण) हे वरणीय (मित्र) हितभूत (अर्यमन्) ज्ञानिन् ! (वयम्) वयं (ते) ते सर्वे (वः) युष्माकम् (ऋतस्य) सत्यस्य (इत्) एव (रथ्यः) ग्रहीतारः (स्याम) भवेम ॥३५॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्त्तते ।
पदार्थः
हे आदित्याः ! यतो यूयम् । मनुष्याणां राजानः=शासकाः । चर्षणीसहः । तथा । चर्षणीनाम्=दुर्जनानाम् । सहः=दण्डयितारः स्थ । अतः । यः कश्चित् । मनुष्यान् । अनु=अनुलक्ष्य दुष्टकर्माणि कुर्वन् । क्षयन्=निवसन् वर्तते तं दण्डयत । हे वरुण हे मित्र हे अर्य्यमन् ! ते उपासका वयम् । वः=युष्माकम् । ऋतस्य=सत्यनियमस्य । रथ्यः=नेतारः । स्याम इत्=स्यामैव ॥३५ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(राजानः) प्रकाशमान (चर्षणीसहः) शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले (यूयम्) आप (मानुषान्, अनु) स्वोपासकों के प्रति (क्षयन्तम्) परिताप उत्पन्न करनेवाले (कंचित्) किसी भी शत्रु को अभिभूत करते हैं (वरुण) हे सेव्य (मित्र) सबके हितकारक (अर्यमन्) ज्ञानिन् ! (वयम्, ते) हम सब (वः) आपके (ऋतस्य, इत्) सत्यमार्ग ही के (रथ्यः) ग्रहीता (स्याम) हों ॥३५॥
भावार्थ
हे सर्वज्ञ तथा प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप वेदविरोधी शत्रुओं को अभिभूत=तिरस्कृत करनेवाले, और वेदविहित कर्म करनेवाले उपासकों की शत्रुओं से रक्षा करते हुए उनको सुख प्राप्त करानेवाले हैं अर्थात् इस संसार में सत्य तथा असत्य दोनों मार्ग प्रचलित हैं, जो असत्यमार्गगामी हैं, वे दण्डनीय होते और सत्यमार्गगामी सदैव सुख अनुभव करते हैं, इसलिये मनुष्यमात्र को सत्य का आश्रयण करना परमावश्यक है, ताकि परमात्मा के प्रिय होकर सुखपूर्ण जीवनवाले हों ॥३५॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
हे आचार्य्यो ! जिस कारण आप (राजानः) सब मनुष्यों के शासनकर्ता हैं और (चर्षणीसहः) दुष्टजनों के दण्ड देनेवाले हैं, इसलिये (कश्चित्) जो कोई (मनुष्यान्+अनु) मनुष्यों के मध्य दुष्टकर्म करता हुआ (क्षयन्तम्) निवास कर रहा है, उसको दण्ड दीजिये । (वरुण) हे राजप्रतिनिधि (मित्र) हे ब्राह्मणप्रतिनिधि ! (अर्य्यमन्) हे वैश्यप्रतिनिधि वे (वयम्) हम उपासकगण (ऋतस्य+इत्) सत्य नियम के ही (रथ्यः) नेता (स्याम) होवें ॥३५ ॥
भावार्थ
हम लोग सदा सत्य और न्यायपथ पर चलें ॥३५ ॥
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( चर्षणीसहः ) शत्रुकर्षण करने वाली सेनाओं वा शत्रुजनों को दबाकर वश रखने में समर्थ ( राजानः ) तेजस्वी राजा लोगो ! ( यूयं ) आप लोग ( कं चित् ) किसी ( मानुषान् क्षयन्तं ) मनुष्यों के ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाले पुरुष के ( अनु ) पीछे रहो । हे ( मित्र अर्यमन् वरुण ) स्नेही, न्यायकारी और सर्वश्रेष्ठ जनो ! (ते वयं ) वे हम लोग ( वः ) आप लोगों के (ऋतस्य) सत्य, न्याय, तेज, धन, सत्यमार्ग के ( रथ्यः ) रथारोही गन्ता के समान ( स्याम इत् ) अग्रेसर होवें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
वरुण, मित्र, अर्यमा
पदार्थ
[१] हे (वरुण) = निर्देषता की देवते! मित्र स्नेह की देवते! तथा (अर्यमन्) = [अरीन् यच्छति ] काम-क्रोध आदि को नियंत्रित करनेवाली देवते ! (ते वयम्) = वे हम (वः) = आपके ही हों, आप तीनों की आराधना करनेवाले हों और (इत्) = निश्चय से (ऋतस्य) यज्ञ आदि ऋत [ठीक] कर्मों के ही (रथ्यः) = प्रणेता स्याम हों। [२] हे (यूयम्) = मित्र व अर्यमन् ! आप सब (राजानः) = हमारे जीवनों को दीप्त बनानेवाले हो । (चर्षणीसहः) = हमारे शत्रुभूत मनुष्यों का पराभव करनेवाले हो। हम 'स्नेह, निर्देषता व संयम' से शत्रुओं की शत्रुता को समाप्त करनेवाले बनते हैं। हे वरुण मित्र अर्यमन्! आप (मानुषान् क्षयन्तम्) = सब मनुष्यों को उत्तम निवास व गति देनेवाले, अर्थात् सब के हित में प्रवृत्त (कञ्चित्) = किसी विरल व्यक्ति के (अनु) = अनुकूल होते हो। कोई विरल पुरुष ही 'वरुण, मित्र व अर्यमा' की आराधना करता हुआ सब के हित में प्रवृत्त होता है। निर्देषता, स्नेह व संयम' के धारण करनेवाले बनकर यज्ञ आदि उत्तम कर्मों
भावार्थ
भावार्थ- हम 'के प्रणेता हों। इनकी आराधना से शत्रुओं की शत्रुता को दूर करें। सब के हित में प्रवृत्त हों।
इंग्लिश (1)
Meaning
Adityas, powers and givers of light and justice, rulers of the bright order over people, punish whoever does evil and violence toward the law abiding citizens. O Vauna, ruling power of judgement and justice, Mitra, men of love and friendship, and Aryaman, guides and pioneers of the nation, let us be cooperative participants to take over the reins of your law and order of the truth and justice of your vision.
मराठी (1)
भावार्थ
आम्ही सदैव सत्य व न्यायपथावर चालावे. ॥३५॥
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