ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 24
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराडार्चीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
यो ह॒व्यान्यैर॑यता॒ मनु॑र्हितो दे॒व आ॒सा सु॑ग॒न्धिना॑ । विवा॑सते॒ वार्या॑णि स्वध्व॒रो होता॑ दे॒वो अम॑र्त्यः ॥
स्वर सहित पद पाठयः । ह॒व्यानि॑ । ऐर॑यत । मनुः॑ऽहितः । दे॒वः । आ॒सा । सु॒ऽग॒न्धिना॑ । विवा॑सते । वार्या॑णि । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः । होता॑ । दे॒वः । अम॑र्त्यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो हव्यान्यैरयता मनुर्हितो देव आसा सुगन्धिना । विवासते वार्याणि स्वध्वरो होता देवो अमर्त्यः ॥
स्वर रहित पद पाठयः । हव्यानि । ऐरयत । मनुःऽहितः । देवः । आसा । सुऽगन्धिना । विवासते । वार्याणि । सुऽअध्वरः । होता । देवः । अमर्त्यः ॥ ८.१९.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 24
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(मनुर्हितः) ज्ञानिभिर्धृतः (देवः, यः) दिव्यो यः (सुगन्धिना, आसा) हवनैः शोभनगन्धेन मुखेन सता (हव्यानि) हव्यपदार्थान् (ऐरयत) उत्पादयति (स्वध्वरः) शोभनयज्ञः (होता) ब्राह्माण्डयज्ञकर्ता (अमर्त्यः, देवः) अमरणशीलो देवः सः (वार्याणि) वरणीयानि (विवासते) ददाति ॥२४॥
विषयः
गुणस्तुतिं दर्शयति ।
पदार्थः
योऽग्निः । मनुर्हितः=मनुष्यैर्हितः स्थापित आहुतश्च सन् । सुगन्धिना=शोभनगन्धयुक्तेन । आसा=ज्वालारूपेण आस्येन मुखेन । हव्यानि=आहुतद्रव्याणि । ऐरयत=सर्वत्र ईरयति प्रेरयति प्रापयतीत्यर्थः । पुनः । वार्य्याणि=वरणीयानि जनैः । जलान्नादीनि वस्तूनि । विवासते=परिचरते । ददातीत्यर्थः । कीदृशः सः । स्वध्वरः=शोभनाध्वदाता । होता=आह्वाता । देवः=दीप्यमानः= प्रकाशमानः । अमर्त्यः=मर्त्यभिन्नः सदास्थायी ॥२४ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(मनुर्हितः) ज्ञानी उपासकों से सेवित (देवः, यः) दिव्यस्वरूप परमात्मा (सुगन्धिना, आसा) हवनों द्वारा शोभनगन्धयुक्त मुखवाला होकर (हव्यानि) हव्य पदार्थों को (ऐरयत) उत्पन्न करता है (स्वध्वरः) सुन्दर यज्ञवाला (होता) ब्रह्माण्डरूप यज्ञ का कर्त्ता (अमर्त्यः, देवः) अमरणशील दिव्य परमात्मा (वार्याणि) उपासकों को अभिलषित पदार्थ (विवासते) उत्पन्न करता है ॥२४॥
भावार्थ
“मुखादग्निरजायत” यजु० ३१।११। इत्यादि मन्त्रों में अग्नि परमात्मा का मुखस्थानीय वर्णन किया है, इसी अभिप्राय से इस मन्त्र में परमात्मा को हवनों द्वारा सुन्दर गन्धयुक्त मुखवाला कहा है। वह परमात्मा यज्ञ द्वारा सेवित होकर शोभन रसों को ही नहीं किन्तु अन्य अभिलषित पदार्थों को भी देता है, जिससे प्राणी पुष्ट होकर स्व-स्व व्यवहार में प्रवृत्त होते हैं, अतएव मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि वह अमरणशील दिव्य परमात्मा की उपासना में तत्पर रहें, जो सबको उत्तमोत्तम पदार्थों का देनेवाला तथा सबका जीवनाधार है ॥२४॥
विषय
गुणों की स्तुति दिखाते हैं ।
पदार्थ
(स्वध्वरः) जो मार्गों को अच्छे प्रकार दिखलानेवाला है, क्योंकि महान्धकार में भी अग्नि की सहायता से मनुष्य सब काम करता है । (होता) वायु, मेघ, पानी आदि देवों को बुलानेवाला है, (देवः) प्रकाशमान और (अमर्त्यः) अमरणधर्मी=सदास्थायी अग्नि है, वह (मनुर्हितः) मनुष्यों से स्थापित और आहुत होने से (हव्यानि) आहुत द्रव्यों को (ऐरयत) यथास्थान में पहुँचाया करता है और (वार्य्याणि) वरणीय जल अन्न आदि पदार्थों को (विवासते) देता है ॥२४ ॥
भावार्थ
होम से जलवर्षण होता है, ऐसा बहुत आचार्य्यों की सम्मति है, अतः हवनसामग्री तदनुकूल होनी चाहिये । तब ही वह लाभ हो सकता है ॥२४ ॥
विषय
उत्तम यज्ञकर्त्ता का सदाचारमय लक्षण।
भावार्थ
जिस प्रकार ( देवः ) देदीप्यमान अग्नि, ( हव्यानि ) हव्य चरुओं को ( सुगन्धिना आसा ) उत्तम गन्धयुक्त ज्वाला रूप मुख से ( ऐरयत ) दूर २ तक भेजता है (वार्याणि वि वासते ) ग्राह्य उत्तम २ प्रकाशों को प्रकट करता है उसी प्रकार ( यः ) जो ( मनुः-हितः ) स्वयं मननशील और सर्वहितकारी विद्वान् ( देवः ) मनुष्य होकर ( सुगन्धिना ) पुण्य गन्ध, उत्तम शिक्षा युक्त ( आसा ) मुख से ( हव्यानि) ग्राह्य वचनों को ( ऐरयत ) उच्चारण करता है वह ( सु-अध्वरः ) उत्तम यज्ञशील, अन्यों की हिंसा से रहित, ( देवः ) दानी ( अमर्त्यः ) साधारण मनुष्य वर्ग से भिन्न होकर ( वार्याणि वि वासते ) वरण करने योग्य उत्तम गुणों और ज्ञानों को प्रकट करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
देव
पदार्थ
[१] (योः) = जो (हव्यानि) = हव्य पदार्थों को (ऐरयत) = अग्नि द्वारा वायु आदि देवों में प्रेरित करता है, अर्थात् सदा यज्ञशील होता है। (मनुः) = विचारशील बनता है व (हितः) = सबका हित करनेवाला होता है। सदा (सुगन्धिना आसा) = उत्तम सुगन्धित शब्दों से युक्त मुखवाला होता है, यही पुरुष (देव:) = देव है। [२] यह (वार्याणि) = सदा वरणीय वस्तुओं व धनों को (विवासते) = विशेषरूप से धारण करता है। (स्वध्वरः) = उन वार्य वस्तुओं के द्वारा उत्तम हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों में प्रवृत्त होता है। (होता) = सदा दानपूर्वक अदन करनेवाला बनता है। देवः प्रकाशमय जीवनवाला व (अमर्त्यः) = नीरोग होता है।
भावार्थ
भावार्थ- देव वह होता है जो यज्ञशील, विचारक, हितकर, मधुरभाषी है। यह वरणीय धनों को प्राप्त करके यज्ञशील, दाता, प्रकाशमय जीवनवाला व नीरोग बनता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni is the divine power which receives and carries the holy materials to the divinities by its fragrant vedi-mouth of fire. It is the benefactor of humanity and gives the choicest good things to all. It is the agent of good action and illuminator of the paths of piety. It is the high priest of universal yajna and an immortal divine power.
मराठी (1)
भावार्थ
होमाने जलवर्षण होत असे अनेक आचार्यांचे म्हणणे आहे. त्यासाठी हवनसामग्रीही त्यानुसारच असली पाहिजे. तेव्हाच हा लाभ होऊ शकतो. ॥२४॥
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