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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 25
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडार्चीपङ्क्ति स्वरः - ऋषभः

    यद॑ग्ने॒ मर्त्य॒स्त्वं स्याम॒हं मि॑त्रमहो॒ अम॑र्त्यः । सह॑सः सूनवाहुत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒ग्ने॒ । मर्त्यः॑ । त्वम् । स्याम् । अ॒हम् । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । अम॑र्त्यः । सह॑सः । सू॒नो॒ इति॑ । आ॒ऽहु॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदग्ने मर्त्यस्त्वं स्यामहं मित्रमहो अमर्त्यः । सहसः सूनवाहुत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अग्ने । मर्त्यः । त्वम् । स्याम् । अहम् । मित्रऽमहः । अमर्त्यः । सहसः । सूनो इति । आऽहुत ॥ ८.१९.२५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 25
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (मित्रमहः) हे अप्रतिकूलतेजः (सहसः, सूनो) सकृत्प्रयत्नेनोत्पाद्य (आहुत) सर्वैस्तर्पित (अग्ने) परमात्मन् ! (यत्, मर्त्यः, अहम्) यदि मरणधर्माहं त्वदुपासनया (त्वम्, स्याम्) त्वद्रूपः स्याम् तर्हि (अमर्त्यः) मरणरहितः स्याम् ॥२५॥

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    विषयः

    प्रार्थनां दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे अग्ने=सर्वगत ! हे मित्रमहः=मित्रैर्जीवैः पूज्यतेजस्क ! हे सहसः सूनो=सहसा बलेन जातं सहो जगत् । यद्वा । सहन्ते जीवाः कर्माणि कर्मफलानि यत्र भुञ्जते तत् सहः=संसारः । सूयते उत्पादयतीति सूनुः=उत्पादकः । हे जगदुत्पादक ईश ! हे आहुत=सर्वपूजित ! यद्=यदि । मर्त्यः=मरणधर्मा । अहम् । त्वं स्याम्=त्वदुपासनया त्वद्रूपमापन्नो भवेयम् । तर्हि । अहमपि । अमर्त्यो=मरणरहितो देव एव स्याम् ॥२५ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (मित्रमहः) हे अनुकूल तेजवाले (सहसः, सूनो) अतिप्रयत्न से साक्षात्कार होने से बल के पुत्र के समान (आहुत) सब उपासकों से सेवित (अग्ने) परमात्मन् ! (यत्, मर्त्यः, अहम्) यदि मरणशील मैं आपकी उपासना करते-२ (त्वम्, स्याम्) आप जैसा हो जाऊँ तो (अमर्त्यः) मरणरहित हो जाऊँ ॥२५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मोपासक को परमात्मा के सदृश हो जाना विधान किया है अर्थात् परमात्मसेवी उसका ध्यान करते-२ सर्व सांसारिक पदार्थों का तत्वज्ञ होकर परमानन्द का अनुभव करता हुआ अन्त में माया से निर्मुक्त होकर परमपद को प्राप्त होता है, यहाँ “अहं त्वं स्याम्”=मैं आप हो जाऊँ, यह अभेदलक्षणा द्वारा किया है, वास्तविक नहीं, जैसे “तत्त्वमसि” इस वाक्य में अथवा “सिंहो माणवकः”=यह माणवक सिंह है, इस वाक्य में वर्णन किया है अर्थात् उपासक परमात्मा के समान गुणोंवाला होता है, परमात्मा नहीं ॥२५॥

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    विषय

    इससे प्रार्थना दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगत ! (मित्रमहः) हे सब जीवों से पूज्यतेजस्क ! (सहसः+सूनो) जगदुत्पादक (आहुत) हे सर्वपूजित ईश ! (यद्) यदि (मर्त्यः) मरणधर्मी (अहम्) मैं (त्वम्+स्याम्) तू होऊँ अर्थात् जैसा तू है, वैसा ही यदि मैं भी हो जाऊँ, तो (अमर्त्यः) न मरनेवाला देव मैं भी बन जाऊँ ॥२५ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर की उपासना से मनुष्यों में उसके गुण आते हैं, अतः वह उपासक उपास्य के समान माना जाता है और मनुष्य की इच्छा भी बलवती होती है, अतः तदनुसार यह प्रार्थना है ॥२५ ॥

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    विषय

    उपास्य-उपासक की अनन्यता की भावना।

    भावार्थ

    जिस प्रकार आहुति वाले अग्नि में जो कुछ पड़ता है वह अग्नि ही होजाता है उसी प्रकार हे ( सहसः सूनो ) बल के उत्पन्न करने, प्रेरने वाले हे ( आहुत ) उपासना योग्य ! ( अग्ने ) ज्ञानवन् वा अग्निवत् तेजस्विन् ! हे ( मित्र-महः ) स्नेहवान् मित्रों से पूजनीय, मित्रों के आदर करने हारे ! ( यत् ) जो ( मर्त्यः ) मनुष्य ( अहं त्वं स्याम् ) मैं तू होजाऊं इस प्रकार उपासना करता है वह भी ( अमर्त्यः ) अविनाशी वा अन्य साधारण मरणधर्मा प्राणियों से भिन्न तेरे समान ही होजाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अमर्त्य

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रेणी, (मित्रमहः) = मृत्यु से बचाने वाले तेज से युक्त, (सहसः सूनो) शक्ति के पुञ्च, (आहुत) = समनगत् दानोंवाले प्रभो ! (यत्) = यदि (अहम्) = मैं (मर्त्यः) = मरणधर्मा पुरुष (त्वं स्याम्) = तू हो जाऊँ तो फिर (अमर्त्यः) = तेरे समान ही अमर्त्य बन जाऊँ। [२] अमर्त्य बनने का भाव यह है कि इस जीवन में नीरोग होना और फिर जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ जाना । यह सब होगा तभी जब हम अग्रगतिवाले बनें, तेजस्वी हों, बल का सम्पादन करें व त्यागशील बनें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'अग्ने, मित्रमह:, सहसः सूनो, आहुत' शब्दों से प्रभु का स्मरण करते हुए प्रभु जैसे बनें। इस प्रकार हम मर्त्यता से अमर्त्यता में प्रवेश कर जायेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light and life of the world, child of omnipotence and creator of the mighty cosmos, mortal as I am, if I could worship you and were to become like you, I too would be an immortal, great adorable friend of the world of existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वराच्या उपासनेने माणसांमध्ये त्याचे गुण येतात. त्यासाठी तो उपासक उपास्याप्रमाणे मानला जातो व माणसाची इच्छा ही बलवती असते. त्यामुळे त्यानुसार ही प्रार्थना आहे. ॥२५॥

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