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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    विभू॑तरातिं विप्र चि॒त्रशो॑चिषम॒ग्निमी॑ळिष्व य॒न्तुर॑म् । अ॒स्य मेध॑स्य सो॒म्यस्य॑ सोभरे॒ प्रेम॑ध्व॒राय॒ पूर्व्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विभू॑तऽरातिम् । वि॒प्र॒ । चि॒त्रऽशो॑चिषम् । अ॒ग्निम् । ई॒ळि॒ष्व॒ । य॒न्तुर॑म् । अ॒स्य । मेघ॑स्य । सो॒म्यस्य॑ । सो॒भ॒रे॒ । प्र । ई॒म् । अ॒ध्व॒राय॑ । पूर्व्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभूतरातिं विप्र चित्रशोचिषमग्निमीळिष्व यन्तुरम् । अस्य मेधस्य सोम्यस्य सोभरे प्रेमध्वराय पूर्व्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विभूतऽरातिम् । विप्र । चित्रऽशोचिषम् । अग्निम् । ईळिष्व । यन्तुरम् । अस्य । मेघस्य । सोम्यस्य । सोभरे । प्र । ईम् । अध्वराय । पूर्व्यम् ॥ ८.१९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (सोभरे, विप्र) हे सुष्ठु अज्ञानानां हर्तः प्रजानां भर्त्तर्वा मेधाविन् ! (अध्वराय) अहिंसयज्ञाय (विभूतरातिम्) बहुतरवानम् (चित्रशोचिषम्) विचित्रतेजस्कम् (अस्य, सोम्यस्य, मेधस्य) अस्य सोमयागस्य (यन्तुरम्) नियन्तारम् (पूर्व्यम्) अनादिम् (अग्निम्) परमात्मानम् (ईडिष्व) स्तुहि ॥२॥

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    विषयः

    ईशं वर्णयति ।

    पदार्थः

    हे विप्र=मेधाविन् ! सोभरे=सुभर्तः । अग्निम्=परमदेवम् । ईळिष्व=स्तुहि=प्रार्थयस्व । कीदृशं विभूतरातिम्=बहुदानम् । चित्रशोचिषम्=विचित्रतेजस्कमद्भुततेजस्कम् । अस्य+सोम्यस्य= सुन्दरस्य=विविधपदार्थयुक्तस्य । मेधस्य=संसारसंगमस्य । यन्तुरम् । नियामकम्=शासकम् । पुनः । पूर्व्यम्=पुरातनम्=सनातनम् । ईदृशमग्निम् । ईम्=एवम् । आग्निमेव नान्यं देवम् । अध्वराय=यज्ञाय । प्र+ईळिष्व ॥२ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (सोभरे, विप्र) हे भलीभाँति अज्ञानों के हरने अथवा प्रजाओं को भरनेवाले विद्वन् ! आप (अध्वराय) हिंसारहित यज्ञ की प्राप्ति के लिये (विभूतरातिम्) बहुत पदार्थों को देने में समर्थ (चित्रशोचिषम्) आश्चर्यमय तेजवाले (अस्य, सोम्यस्य, मेधस्य) इस सोममय याग के (यन्तुरम्) नियन्ता (पूर्व्यम्) अनादि (अग्निम्) परमात्मा को (ईडिष्व) स्तवन करो ॥२॥

    भावार्थ

    “सुष्ठु हरत्यज्ञानं बिभर्त्ति वा जनानिति सोभरिः”=जो भले प्रकार अज्ञानों का नाश करे अथवा प्रजा का भरण-पोषण करे, उसको “सोभरि” कहते हैं। हृ वा भृ धातु से औणादिक इन् प्रत्यय होकर “उकार” को “ओकार” हो गया है और हृ धातुपक्ष में “हृग्रहोर्भश्छन्दसि” इस वार्तिक से ह को भ हो जाता है। सोभरि विद्वान् के प्रति उपदेश है कि यज्ञारम्भ में यज्ञनियन्ता परमात्मा की स्तुति करके सर्वदा हिंसारहित यज्ञ करने की चेष्टा करते रहो, क्योंकि वह परमात्मा हिंसारहित यज्ञवालों को पर्याप्त चिरस्थायी सौभाग्य प्राप्त कराता है और हिंसक याज्ञिकों की सम्पत्ति विपत्तिमय तथा शीघ्र नाशकारी होती है ॥२॥

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    विषय

    ईश का वर्णन करते हैं ।

    पदार्थ

    (विप्र) हे मेधाविन् ! (सोभरे) हे अच्छे प्रकार भरणकर्त्ता विद्वन् आप (अध्वराय) यज्ञ के लिये (अग्निम्+ईम्) परमात्मा की ही (प्र+ईळिष्व) स्तुति करें । जो वह (विभूतरातिम्) इस संसार में नानाप्रकार से दान दे रहा है । (चित्रशोचिषम्) जिसका तेज आश्चर्य्यजनक है । जो (अस्य) इस दृश्यमान (सोम्यस्य) सुन्दर विविध पदार्थयुक्त (मेधस्य) संसाररूप महासङ्गम का (यन्तुरम्) नियामक=शासक है और (पूर्व्यम्) सनातन है ॥२ ॥

    भावार्थ

    यज्ञ में केवल परमदेव ही पूज्य, स्तुत्य और प्रार्थनीय है, क्योंकि वही चेतन देव है । उसी की यह संपूर्ण सृष्टि है ॥२ ॥

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    विषय

    अग्निवत् ज्ञान प्रकाशक की स्तुति और आदर करो।

    भावार्थ

    हे ( विप्र ) मेधाविन् ! विद्वन् ! हे (सोभरे ) उत्तम रीति से प्रजा के पोषण करने हारे ! तू ( इम् ) इस ( अध्वराय ) यज्ञ, और अविनाश के लिये ( पूर्व्यम् ) सब से पूर्व विद्यमान एवं विद्या, बल में पूर्ण ( अस्य सोम्यस्य ) सोम योग्य, पुत्र शिष्यादि के हितकारी ऐश्वर्य से सम्पाद्य इस ( मेधस्य ) सत्संग यज्ञ के ( यन्तुरं ) नियन्ता, ( विभूत-रातिं ) प्रचुर दानशील, ( चित्र-शोचिषम् ) अद्भुत तेजस्वी, ( अग्निम् ) अग्निवत् ज्ञानप्रकाशक को ( प्र ईडिष्व ) अच्छी प्रकार आदर कर। उसको मुख्य पद पर स्थापित कर। ( २ ) इसी प्रकार इस संसार रूप यज्ञ के नियन्ता प्रभु की स्तुति करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    विभूतराति-चित्तशोचिष्-पूर्व्य

    पदार्थ

    [१] हे (विप्र) = मेधाविन् स्तोत: ! तू (अग्निम्) = उस अग्रेणी प्रभु की (ईडिष्व) = स्तुत कर जो प्रभु (विभूतरातिम्) = व्यापक प्रभूत दानवाले हैं और (चित्रशोचिषम्) = अद्भुत ज्ञान दीप्तिवाले हैं। प्रभु तुझे धन भी प्राप्त करायेंगे और ज्ञान भी देंगे। [२] हे (सोभरे) = अपना उत्तमता से भरण करनेवाले मेधाविन् ! तू उस प्रभु का स्तवन कर, जो (अस्य) = इस (सोम्यस्य) = सोम के द्वारा (साध्म) = सोमरक्षण से चलनेवाले (मेधस्य) = जीवनयज्ञ के (यन्तुरम्) = नियामक हैं। अध्वराय इस जीवनयज्ञ को सुन्दरता से पूर्ण करने के लिये (ईम्) = निश्चय से (पूर्व्यम्) उस पालन व पूरण करनेवालों में उत्तम प्रभु को (प्र) [ ईडिष्व ] = प्रकर्षेण स्तुत कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का स्तवन करो। प्रभु ही जीवन यज्ञ की पूर्ति के लिये सब दानों को देते हैं, ज्ञान को प्राप्त कराते हैं, हमारी कमियों को दूर करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O vibrant scholar, worship Agni, lord of light and enlightenment, infinitely giving, awfully wondrous and self-refulgent, and the sole leader and controller of the world. Worship Him, the lord eternal, O generous man, in order that you may participate in this yajnic system of the lord’s universe which is full of love without violence and overflows with the blissful joy of soma, an inspiring invitation to live and act as the child of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यज्ञात केवळ परमदेवच पूज्य, स्तुत्य व प्रार्थनीय आहे. ॥२॥

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