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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 21
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - निचृदुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ईळे॑ गि॒रा मनु॑र्हितं॒ यं दे॒वा दू॒तम॑र॒तिं न्ये॑रि॒रे । यजि॑ष्ठं हव्य॒वाह॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इळे॑ । गि॒रा । मनुः॑ऽहितम् । यम् । दे॒वाः । दू॒तम् । अ॒र॒तिम् । नि॒ऽए॒रि॒रे । यजि॑ष्ठम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईळे गिरा मनुर्हितं यं देवा दूतमरतिं न्येरिरे । यजिष्ठं हव्यवाहनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इळे । गिरा । मनुःऽहितम् । यम् । देवाः । दूतम् । अरतिम् । निऽएरिरे । यजिष्ठम् । हव्यऽवाहनम् ॥ ८.१९.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (मनुर्हितम्) मनुष्यैः यजमानैर्धृतम् तम् (गिरा) वाचा (ईडे) स्तौमि (यम्) यं परमात्मानम् (दूतम्) शत्रूणां दवितारम् (अरतिम्) प्राप्तव्यम् (यजिष्ठम्) यष्टृतमम् (हव्यवाहनम्) हव्यानां धारकम् (देवाः, न्येरिरे) देवाः प्राप्नुवन्ति ॥२१॥

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    विषयः

    स्तुतिमारभते ।

    पदार्थः

    गिरा=गुरूणां व्याख्या तया वाण्या । मनुर्हितम्=मनुष्याणां हितकरम् । अग्निम् । ईडे=स्तौमि । यमग्निम् । देवाः=विद्वांसो जनाः । दूतम्=देवदूतम् । अरतिम्=स्वामिनम् । यजिष्ठं हव्यवाहनम्= हव्यानां हविषां वोढारं च । न्येरिरे=मन्यन्ते ॥२१ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (मनुर्हितम्) यज्ञ करनेवाले मनुष्यों से धारण किये गये उस परमात्मा का (गिरा, ईडे) स्तुतिवाणियों से स्तवन करते हैं (यम्) जिस (दूतम्) शत्रु के उपतापक अथवा शीघ्रगतिवाले (अरतिम्) प्राप्तव्य (यजिष्ठम्) ब्रह्माण्डरूप यज्ञ के कर्त्ता (हव्यवाहनम्) हव्यपदार्थों को प्राप्त करानेवाले परमात्मा को (देवाः, न्येरिरे) देव=दिव्यगुणसम्पन्न प्राणी प्राप्त करते हैं ॥२१॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा ब्रह्माण्डरूप महान् यज्ञ का कर्ता तथा ब्रह्माण्डगत विविध पदार्थों को यथायोग्य यथाभाग सब प्रजाओं को वितीर्ण करनेवाला तथा जो दिव्य विद्वानों द्वारा सेवित है, वही सर्वथा प्राप्तव्य है और ध्यान करने पर शीघ्र ही ध्यानविषय हो जाना उसकी शीघ्रगति कही जाती है। वास्तव में सर्वव्यापक की गति नहीं हो सकती। ऐसे महान् तथा सर्वव्यापक परमात्मा को देव=योगसम्पन्न विद्वान् पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं, अन्य नहीं ॥२१॥

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    विषय

    स्तुति का आरम्भ करते हैं ।

    पदार्थ

    (गिरा) गुरुजनों की व्याख्यारूप वाणी से हम लोग (मनुर्हितम्) मनुष्यहितकारी उस अग्निदेव के (ईडे) गुणों का अध्ययन करें (यम्) जिस अग्नि को (देवाः) विद्वान् जन (दूतम्) देवदूत (अरतिम्) धनस्वामी (यजिष्ठम्) परमदाता और (हव्यवाहनम्) आहुत द्रव्यों को पहुँचानेवाला (न्येरिरे) मानते हैं ॥२१ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य को उचित है कि अग्निहोत्रादि कर्म करे और उससे क्या लाभ होता है, उसका और अग्निविद्या का वर्णन लोगों को सुनावें ॥२१ ॥

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    विषय

    प्रभु की स्तुति।

    भावार्थ

    ( यम् ) जिस ( यजिष्ठं ) अति पूज्य (हव्य-वाहनम् ) हव्य, उत्तम अन्न को ग्रहण करने वाले, ( दूतम् ) दुष्ट पुरुषों के उपतापक और विद्वानों से उपासित ( अरतिं ) अति मतिमान् स्वामी को ( देवाः ) नाना अर्थों के अभिलाषी होकर ( नि ऐरिरे ) स्तुति करते हैं ( मनुर्हितम् ) मननशील पुरुषों द्वारा धारित उस पूज्य की मैं ( गिरा ईडे ) वाणी द्वारा स्तुति करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'दूत, अरति, यजिष्ठ, हव्यवाहन' प्रभु

    पदार्थ

    [१] मैं (गिरा) = स्तुति वाणियों के द्वारा (मनुर्हितम्) = विचारशील पुरुष के द्वारा हृदय में स्थापित किये गये प्रभु को (ईडे) = उपासित करता हूँ। (यम्) = जिस को (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (न्येरिदे) = प्राप्त होते हैं। [२] उस प्रभु की उपासना करता हूँ जो (दूतम्) = ज्ञान का सन्देश देनेवाले हैं, (अरतिम्) = स्वामी [अर्य] हैं अथवा [अ रतिम्] अनासक्त हैं। (यजिष्ठम्) = अधिक से अधिक पूज्य हैं और (हव्यवाहनम्) = हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें। विचारशील देववृत्ति के पुरुष प्रभु को प्राप्त किया करते हैं। प्रभु ज्ञान का सन्देश देनेवाले अनासक्त सर्वाधिक पूज्य व सब हव्य पदार्थों के प्राप्त करानेवाले हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With words of praise I celebrate Agni, sacred fire energy, benefactor of humanity whom brilliant scholars honour and elevate as messenger, speedy ministrant, most valuable and adorable, and bearer of oblations to the divinities of nature.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी अग्निहोत्र इत्यादी कर्म करावे व त्याचा काय लाभ होतो त्याचे व अग्निविद्येचे वर्णन लोकांना ऐकवावे ॥२१॥

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