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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    यस्या॒ग्निर्वपु॑र्गृ॒हे स्तोमं॒ चनो॒ दधी॑त वि॒श्ववा॑र्यः । ह॒व्या वा॒ वेवि॑ष॒द्विष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । अ॒ग्निः । वपुः॑ । गृ॒हे । स्तोम॑म् । चनः॑ । दधी॑त । वि॒श्वऽवा॑र्यः । ह॒व्या । वा॒ । वेवि॑षत् । विषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्याग्निर्वपुर्गृहे स्तोमं चनो दधीत विश्ववार्यः । हव्या वा वेविषद्विष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । अग्निः । वपुः । गृहे । स्तोमम् । चनः । दधीत । विश्वऽवार्यः । हव्या । वा । वेविषत् । विषः ॥ ८.१९.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अग्निः) परमात्मा (यस्य, गृहे) यस्योपासकस्य गृहे (वपुः) रूपम् (स्तोमम्) स्तोत्रम् (चनः) अन्नं च (दधीत) धारयेत् (वा) अथवा (विश्ववार्यः) विश्वैः वरणीयः सः (विषः) देवान् प्रति (हव्या, वेविषत्) हव्यपदार्थान् प्रापयेत् स पूर्वोक्तं लभेत ॥११॥

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    विषयः

    परमात्मस्तुतिः कथ्यते ।

    पदार्थः

    यस्योपासकस्य । गृहे=भवने । विश्ववार्य्यः=विश्वैः=सर्वैः । वार्य्यः=वरणीयः=स्वीकरणीयः । अग्निः=सर्वगः परमात्मा । वपुः=नानारूपविभूषितम् । वपुरिति रूपनाम । निस्तोमम् । स्तोत्रम् । चनोऽन्नञ्च । दधीत=पुष्यते । वा=चार्थः । पुनः । यो यजमानः । हव्या=हव्यानि भोज्यानि अन्नानि । विषः=विदुषः । अत्र दुरित्यस्य छान्दसो लोपः । यद्वा । व्याप्तान् प्रसिद्धान् । वेविषद्=प्रापयति भोजयति । स सर्वं साधयतीति पूर्वेण संबन्धः । विष्ऌ व्याप्तौ ॥११ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अग्निः) परमात्मा (यस्य, गृहे) जिस उपासक के घर में (वपुः) रूप (स्तोमम्) स्तोत्र (चनः) और अन्नादि को (दधीत) धारण करे (वा) अथवा (विश्ववार्यः) सबका भजनीय परमात्मा (विषः) देवों के प्रति (हव्या, वेविषत्) हव्य पदार्थों को प्राप्त कराये, वह पूर्वोक्त फल को पाता है ॥११॥

    भावार्थ

    वह परमात्मा अपने उपासक को शुभकर्म में श्रद्धा उत्पन्न करके पुनः सन्मार्गगामी बनाता है, जिससे वह सर्वदा विविध देवों=विद्वानों की उपासना द्वारा शाश्वत सुख भोगता है अर्थात् वह उपासक विद्वानों की सेवा द्वारा उनसे अपूर्व ज्ञान प्राप्त करके यज्ञादि कर्मों द्वारा सब प्रकार का ऐश्वर्य्य प्राप्त करता है ॥११॥

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    विषय

    परमात्मा की स्तुति कहते हैं ।

    पदार्थ

    (यस्य) जिस यजमान के (गृहे) गृह में (विश्ववार्य्यः) सबसे स्वीकार योग्य (अग्निः) सर्वव्यापी ईश (वपुः) नानारूपवाले (स्तोमम्) स्तोत्र को तथा (चनः) विविध प्रकार के अन्नों को (दधीत) पुष्ट करता है (वा) और जो यजमान (हव्या) भोज्य पदार्थ (विषः) विद्वानों को (वेविषद्) खिलाता है, वह सब कार्य सिद्ध करता है । यह पूर्व से सम्बन्ध रखता है ॥११ ॥

    भावार्थ

    धन्य वे मनुष्य हैं, जिनके गृह अग्निहोत्रादि कर्मों और उपासनाओं से भूषित हैं ॥११ ॥

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    विषय

    विद्वान् का वर्णन उस के संस्कार का विधान ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( अग्निः गृहे चनः दधीत हव्या वेदिषत् ) घर में आग पाचन करता है, नाना अन्न प्राप्त कराता है, उसी प्रकार ( यस्य ) जिस पुरुष के ( गृहे ) घर में ( अग्निः ) तेजस्वी पुरुष ( वपुः ) संशयों को छेदन करने में कुशल और (विश्व-वार्यः) सबसे वरण करने योग्य, सर्वप्रिय होकर ( चनः स्तोमं ) प्रवचन करने योग्य स्तुति योग्य मन्त्र समूह को ( दधीत ) धारण करता है वा और ( विषः ) विविध प्रकार से उपभोग्य वा दातव्य नाना ( हव्या वा ) भोज्य अन्नों और ज्ञानों को ( वेविषद् ) प्राप्त कराता है।

    टिप्पणी

    चनः—पचतेर्वा-वचेर्वा। पचनः, वचनः। वर्ण-लोपरछान्दसः। चनः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    उपासना व अग्निहोत्र [स्तोमं चनः]

    पदार्थ

    [१] (यस्य गृहे) = जिसके घर में (अग्निः) = वह अग्रेणी प्रभु (स्तोमम्) = स्तुति समूह को धारण करता है और जिसके घर में (विश्ववार्य:) = सब से वरने के योग्य यह (अग्निः) = यज्ञकुण्ड में स्थापित आहवनीय (स्तोमं चनः) = अन्न को दधीत धारण करती है। अर्थात् जिसके घर में प्रभु की उपासना व अग्निहोत्र नियम से होता है, वह (वपुः) = सब बुराइयों का वपन [छेदन] करनेवाला होता है। प्रभु की उपासना उसके मानस मलों का अपहरण करती है, तो अग्निहोत्र उसके शारीरिक दोषों को दूर करता है। [२] यह पुरुष (विषः) = वायु आदि व्याप्त देवों को (वा) = निश्चय से (हव्या) = सब हव्य पदार्थों को (वेविषद्) = प्राप्त कराता है। इस प्रकार यह सब देवों की पवित्रता व ऋतुओं की अनुकूलता का साधक होता हुआ, लोक-कल्याण में प्रवृत्त होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु की उपासना करें तथा अग्निहोत्री बनें। इस प्रकार हम सब बुराइयों का छेदन कर पायेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Blest is the man in whose house Agni, lord of universal acceptance with faith and reverence, through the divine fire form of yajna, receives oblations of holy food and Vedic songs of praise and the fire sends up yajnic food to nature’s divinities. He achieves total fulfilment in every field of life through the bounties of divine nature.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याचे घर अग्निहोत्र इत्यादी कर्मांनी व उपासनेने भूषित असते ती माणसे धन्य आहेत. ॥११॥

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