ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 26
ऋषिः - सोभरिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - आर्चीस्वराडुष्णिक्
स्वरः - पञ्चमः
न त्वा॑ रासीया॒भिश॑स्तये वसो॒ न पा॑प॒त्वाय॑ सन्त्य । न मे॑ स्तो॒ताम॑ती॒वा न दुर्हि॑त॒: स्याद॑ग्ने॒ न पा॒पया॑ ॥
स्वर सहित पद पाठन । त्वा॒ । रा॒सी॒य॒ । अ॒भिऽश॑स्तये । व॒सो॒ इति॑ । न । पा॒प॒ऽत्वाय॑ । स॒न्त्य॒ । न । मे॒ । स्तो॒ता । अ॒म॒ति॒ऽवा । न । दुःऽहि॑तः । स्यात् । अ॒ग्ने॒ । न । पा॒पया॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न त्वा रासीयाभिशस्तये वसो न पापत्वाय सन्त्य । न मे स्तोतामतीवा न दुर्हित: स्यादग्ने न पापया ॥
स्वर रहित पद पाठन । त्वा । रासीय । अभिऽशस्तये । वसो इति । न । पापऽत्वाय । सन्त्य । न । मे । स्तोता । अमतिऽवा । न । दुःऽहितः । स्यात् । अग्ने । न । पापया ॥ ८.१९.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 26
अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
अथ पापकर्मणि ईश्वरस्य साहाय्यं निषिध्यते।
पदार्थः
(वसो) हे व्यापक ! (अभिशस्तये) मृषापवादाय (त्वा, न रासीय) त्वां न शब्दयेयम् (सन्त्य) हे संभजनीय (न, पापत्वाय) न पापाचरणाय रासीय (अग्ने) हे परमात्मन् ! (मे, स्तोता) मत्सम्बन्धित्वत्स्तुतिकर्ता (अमतिवा) अल्पबुद्धिमान् (न) न स्यात् (न, दुर्हितः, स्यात्) अमित्रोऽपि न स्यात् (न, पापया) न पापया बुद्ध्या समेतः स्यात् ॥२६॥
विषयः
पुनस्तदनुवर्त्तते ।
पदार्थः
हे वसो=वासदातः ! अहमुपासकः । अभिशस्तये=मिथ्यापवादाय हिंसायै च । त्वा=त्वाम् । न रासीय=न स्तुवीय । रासृ शब्दे । हे सन्त्य=संभजनीय परमपूज्य ! पापत्वाय=पापाय । न त्वा रासीय । हे अग्ने ! मे=मम । स्तोता=स्तुतिकर्त्ता पुत्रादिः । अमतीवा=अमतिरशोभनाबुद्धिस्तद्वान् न भवतु । न च । कस्यापि दुर्हितः=शत्रुर्भवतु । न च पापया=पापेन च युक्तो भवतु ॥२६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब पापकर्म में परमात्मा को साक्षी बनाने का निषेध कथन करते हैं।
पदार्थ
(वसो) हे व्यापक ! (अभिशस्तये) मृषा अपवाद के लिये (त्वा, न रासीय) हम आपका नाम मत लें (सन्त्य) हे संभजनयोग्य (न, पापत्वाय) न पाप आचरण करने के लिये आपका आह्वान करें (अग्ने) हे परमात्मन् ! (मे, स्तोता) आपकी स्तुति करनेवाला मेरा सम्बन्धी (अमतिवा) अल्पबुद्धिवाला (न) न हो (न, दुर्हितः, स्यात्) और न द्वेषी हो तथा (न, पापया) न पापबुद्धिवाला ही हो ॥२६॥
भावार्थ
मनुष्य को चाहिये कि वह असत्य कर्म में तथा अन्य पापकर्म में ईश्वर को साक्षी वा सहायक न बनाये, क्योंकि एक तो पापकर्म ही पाप है और दूसरा ईश्वर को साक्षी बनाना भी पाप होकर दूना पाप हो जाता है, जिससे उसका फलरूप दूना कष्ट भोगना पड़ता है, और जहाँ तक हो सके अपने सब मित्रों को परमात्मज्ञान में प्रवृत्त तथा दुष्ट बुद्धि से निवृत्त करके सबका हितकारक बताना चाहिये, किसी को द्वेषी न बनावे और न किसी को पापकर्मों में प्रवृत्त करे, ऐसा करनेवाला पुरुष महान् दुःखों को भोगता है ॥२६॥
विषय
पुनः वही विषय आ रहा है ।
पदार्थ
(वसो) हे वासदाता परम उदार महादेव ! मैं (अभिशस्तये) मिथ्यापवाद और हिंसा के लिये (त्वा) तेरी (न+रासीय) स्तुति न करूँ । तथा (सन्त्य) हे परमपूज्य ! (पापत्वाय) पाप के लिये (न) तेरी स्तुति मैं न करूँ । (मे) मेरा (स्तोता) स्तुतिपाठक पुत्रादि (अमतीवा) दुष्ट बुद्धिवाला न हो (दुर्हितः+न) और न किसी का शत्रु हो (अग्ने) हे सर्वगत ईश ! और वह (पापया) पाप से युक्त (न+स्यात्) न होवे ॥२६ ॥
भावार्थ
मारण, मोहन, उच्चाटन, हिंसा आदि कुत्सित कर्म के लिये हम उपासक ईश्वर की उपासना न करें तथा हम कदापि किसी के शत्रु पिशुन और कलङ्कदाता न बनें ॥२६ ॥
विषय
पाप के निमित्त भगवान् का परित्याग न हो, स्तोता वा शास्ता मूर्ख और पापी न हो ।
भावार्थ
हे ( वसो ) धनवत् प्रजा को बसाने और सब में बसने हारे स्वामिन् ! मैं जिस प्रकार ( अभिशस्तये ) निन्दा अपवाद और (पापत्चाय) पाप के लिये ( न रासीय ) धन को नहीं दूं उसी प्रकार ( त्वा ) तुझे भी ( अभिशस्तये ) निन्दा, परापवाद और ( पापत्वाय ) पाप कार्य के लिये ( न रासीय ) कभी त्याग न करूं वा तेरा नाम अन्यों को पीड़ा पहुंचाने और पाप कर्म करने के निमित्त न लूं । हे ( सन्त्य ) भजन करने योग्य ! हे ( अग्ने ) ज्ञानप्रकाशक ! प्रभो ! ( मे स्तोता ) मेरा स्तुति करने वा उपदेश करने वाला ( अमतिवा ) मतिहीन, मूर्ख ( न ) न हो और ( दुर्हितः ) दुःखदायी दुष्टाशय पुरुष ( न ) न हो और ( न पापः स्यात् ) वह पापाचारी वा पाप बुद्धि से युक्त भी न हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'अभिशस्ति व पाप' के लिये प्रार्थना नहीं
पदार्थ
[१] हे (वसो) = वसानेवाले प्रभो ! (त्वा) = आपको अभिशस्तये किसी के भी हिंसन के लिये (न रासीय) = व्यर्थ की प्रार्थना न करता रहूँ। हे (सन्त्य) = सम्भजनीय प्रभो ! (पापत्वाय) = किसी पाप कर्म के लिये भी न रासीयन प्रार्थना करूँ। [२] हे (मे अग्ने) = मेरे अग्रेणी प्रभो! यह आपका (स्तोता) = उपासक (न अमतीवा) = न दुर्बुद्धि हो (न दुर्हितः) = न बुरे कर्मों में स्थापित हो, (न पापया स्यात्) = न पाप बुद्धि से बाधित हो। आपका स्तवन करता हुआ मैं सुबुद्धि बनूँ, सदा सत्कार्यों में प्रवृत्त रहूँ, कभी भी पाप बुद्धि से बाधित न होऊँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम कभी भी किसी की हिंसा के लिये व पाप के लिये प्रार्थना न करें। प्रभु के उपासक बनते हुए सुबुद्धि व सत्कार्य प्रवृत्त हों और पाप से दूर रहें।
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, light of life, haven and home of humanity, let me not worship you for the sake of something despicable. Lord adorable, nor must I pray to you for something evil. Let not my own admirer, say my son or my disciple, be stupid and dull, nor malignant, nor sinful.
मराठी (1)
भावार्थ
मारण, मोहन, उच्चाटन, हिंसा इत्यादी कुत्सित कर्मासाठी आम्ही उपासकांनी ईश्वराची उपासना करू नये व आम्ही कधीही कुणाचे शत्रू, निंदक व कलंकदाता बनता कामा नये. ॥२६॥
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