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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 36
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - त्रसदस्योर्दानस्तुतिः छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    अदा॑न्मे पौरुकु॒त्स्यः प॑ञ्चा॒शतं॑ त्र॒सद॑स्युर्व॒धूना॑म् । मंहि॑ष्ठो अ॒र्यः सत्प॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अदा॑त् । मे॒ । पौ॒रु॒ऽकु॒त्स्यः । प॒ञ्चा॒शत॑म् । त्र॒सद॑स्युः । व॒धूना॑म् । मंहि॑ष्ठः । अ॒र्यः । सत्ऽप॑तिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदान्मे पौरुकुत्स्यः पञ्चाशतं त्रसदस्युर्वधूनाम् । मंहिष्ठो अर्यः सत्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदात् । मे । पौरुऽकुत्स्यः । पञ्चाशतम् । त्रसदस्युः । वधूनाम् । मंहिष्ठः । अर्यः । सत्ऽपतिः ॥ ८.१९.३६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 36
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (पौरुकुत्स्यः) पुरुकुत्सेषु=बहुशस्त्रयोद्धृषु तेजोरूपेण विद्यमानः (मंहिष्ठः) सर्वमहान् (सत्पतिः) सतां पालकः (त्रसदस्युः) दस्युत्रासकः (अर्यः) प्राप्तव्यः परमात्मा (मे) मह्यम् (वधूनां) वहनशीलानां नदीनाम्, “वधूरिति नदीनामसु पठितम्” निरु० १।१३। (पञ्चाशतम्) पञ्चाशतम् उपलक्षणमेतदनेकानाम् (अदात्) उपभोगार्थं समुदपद्यत ॥३६॥

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    विषयः

    उपासनाफलं दर्शयति ।

    पदार्थः

    अदादिति−मंहिष्ठः=दातृतमः परमदाता । अर्य्यः=पूज्यः । सत्पतिः=सतां पालकः । त्रसदस्युः=दस्यूनां दुष्टानां त्रासकः । पौरुकुत्स्यः=पुरूणां जीवानां रक्षकः परमात्मा । मे=मह्यमुपासकाय । वधूनाम्=वडवानाम् । पञ्चाशतम्= पञ्चाशत्संख्याम् । बाहुल्यमित्यर्थः । अदात्=ददाति ॥३६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (पौरुकुत्स्यः) पुरुकुत्स=विविधशस्त्रोंवाले योद्धाओं में तेजरूप से विद्यमान “कुत्स इति वज्रनामसु पठितम्” निरु० २।२०। (मंहिष्ठः) सबसे महान् (सत्पतिः) सज्जनों का पालक (त्रसदस्युः) दस्युओं को त्रास देनेवाला (अर्यः) प्राप्तव्य परमात्मा ने (मे) मेरे उपभोगाय (वधूनाम्) सहनशील नदी आदि पदार्थों के, “वधू” यह शब्द नदीनामों में पढ़ा है, निरु० १।१३। (पञ्चाशतम्) पचासों संख्यावाले समुदाय को (अदात्) उत्पन्न किया ॥३६॥

    भावार्थ

    वह परमात्मा शूरवीरों में तेजोरूप से विद्यमान होकर शत्रुओं के नाश द्वारा सज्जनों का पालन करता है, उसी ने अपनी विचित्र शक्ति से नदियों द्वारा सर्वत्र जल पहुँचाया और उसी ने घृतादि वहनशील पदार्थों को उत्पन्न करके प्रजावर्ग को पुष्ट तथा सुखी किया, इत्यादि अनेकानेक पदार्थ जिनका उपभोग करके मनुष्य सुखी होते हैं, सब परमात्मा की रचना है, अतएव मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि उसकी महिमा का अनुभव करते हुए उसके आज्ञापालक हों, ताकि वह प्रसन्न होकर हमें प्रभूत सुखकारक पदार्थ प्राप्त कराए ॥३६॥

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    विषय

    इन दो मन्त्रों से उपासना का फल दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (मंहिष्ठः) परमदाता (अर्य्यः) परमपूज्य (सत्पतिः) सज्जनपालक (त्रसदस्युः) दुष्टनिवारक (पौरुकुत्स्यः) सकल जीवपालक वह परमदेव (मे) मुझ उपासक को (वधूनाम्+पञ्चाशतम्) बहुत से घोड़े, घोड़ियाँ और अन्यान्य पशु (अदात्) देता है ॥३६ ॥

    भावार्थ

    जो उसकी उपासना अन्तःकरण से करता है, वह सर्व धनसम्पन्न होता है, अतः हे मनुष्यों ! केवल उसी की उपासना सदा करो ॥३६ ॥

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    विषय

    पौरुकुत्स्य का दान ।

    भावार्थ

    ( पौरुकुत्स्यः ) बहुत से वज्र अर्थात् हथियारबन्द वीर पुरुषों का स्वामी ( त्रसदस्युः ) दुष्टों को भयभीत करने वाला राजा ( मंहिष्ठ: ) अति दानशील, पूज्य, ( अर्यः ) स्वामी ( सत्पतिः ) सज्जनों का पालक, ( अर्यः ) सबका स्वामी, है । वह ( मे ) मुझ प्रजाजन को धारण करने वाली ( पञ्चाशतं ) ५०, वा, १०५, वा ५०० सेनाओं को ( अदात् ) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सोभरिः काण्व ऋषिः॥ देवता—१—३३ अग्निः। ३४, ३५ आदित्याः । ३६, ३७ त्रसदस्योर्दानस्तुतिः॥ छन्दः—१, ३, १५, २१, २३, २८, ३२ निचृदुष्णिक्। २७ भुरिगार्ची विराडुष्णिक्। ५, १९, ३० उष्णिक् ककुप् । १३ पुरं उष्णिक्। ७, ९ , ३४ पादनिचृदुष्णिक्। ११, १७, ३६ विराडुष्णिक्। २५ आर्चीस्वराडुष्णिक्। २, २२, २९, ३७ विराट् पंक्तिः। ४, ६, १२, १६, २०, ३१ निचृत् पंक्ति:। ८ आर्ची भुरिक् पंक्तिः। १० सतः पंक्तिः। १४ पंक्ति:। १८, ३३ पादनिचृत् पंक्ति:। २४, २६ आर्ची स्वराट् पंक्ति:। ३५ स्वराड् बृहती॥ सप्तत्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    पौरुकुत्स्यः त्रसदस्युः

    पदार्थ

    [१] (पौरुकुत्स्यः) = पुरुकुत्स का सन्तान, अर्थात् बड़ा (पुरुकुत्स:) = खूब ही वासनाओं का संहार करनेवाले [कुक्ष हिंसायाम्] (त्रसदस्युः) = दास्यव भावनाओं को भयभीत करनेवाले जिनके हृदयस्थ होने पर दास्यव भावनायें उत्पन्न ही नहीं होती वे प्रभु (मे) = मेरे लिये (बधूनाम्) = ज्ञान का वहन करनेवाली (पञ्चाशतम्) = [पञ्च, शतम्] शत वर्ष पर्यन्त ठीक कार्य करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियों को (अदात्) = देते हैं। [२] ये प्रभु (मंहिष्ठ:) = दातृतम हैं, सर्वोत्तम दाता हैं। (अर्यः) = स्वामी हैं। (सत्पतिः) = सब सत्कार्यों के रक्षक हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे लिये वासनाओं के संहार के द्वारा शतवर्षपर्यन्त चलनेवाली पाँच ज्ञानवाहिनी ज्ञानेन्द्रियों को देते हैं। वस्तुतः यह प्रभु का महान् दान है। वे प्रभु ही स्वामी हैं, सब सत्कार्यों के रक्षक हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the lord sustainer of all life and destroyer of negativities, protector against the wicked, most liberal, most respectable defender of truth and goodness, I pray, bless us with many manly sons in the family and give them all noble wives.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो त्याची (परमेश्वराची) उपासना अन्त:करणपूर्वक करतो तो धनसंपन्न होतो. त्यासाठी हे माणसांनो! केवळ त्याचीच सदैव उपासना करा. ॥३६॥

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